मजनूं गोरखपुरी की शख़्सियत एक संस्था की हैसियत रखती थी 

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मजनूं गोरखपुरी की शख़्सियत एक संस्था की हैसियत रखती थी तरक़्क़ीपसंद तहरीक में मजनूं गोरखपुरी का नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है। तहरीक के शुरुआती ज़माने में जिन नक़्क़ादों ने इसे वैचारिक आधार प्रदान किया उसमें एहतेशाम हुसैन, डॉ. अब्दुल अलीम, डॉ. एजाज हुसैन, मुमताज हुसैन, आल-ए-अहमद ‘सुरूर’, सिब्ते हसन, अली सरदार जाफ़री के साथ उनका नाम भी अहमियत के साथ लिया जाता है।

यह वे आलोचक हैं जिन्होंने मार्क्सवादी दर्शन के आधार पर अदब और ज़िंदगी के संबंध को वाजे़ह करने की कोशिश की। उर्दू अदब में तरक़्क़ीपसंद तहरीक ही का असर था कि पहले जो आलोचक सौंदर्य-शास्त्रीय आधार पर अदब की तख़्लीक करने की बात करते थे, वह भी आलोचना की इस नयी राह की तरफ़ आ गये। वैज्ञानिक नज़रिये का आलोचना में दख़ल हो गया। ज़बान से ज़्यादा कंटेट पर ज़ोर दिया जाने लगा।

मजनूं गोरखपुरी एक होनहार तरक़्क़ीपसंद नक़्क़ाद थे। मुल्की और गै़र-मुल्की दोनों ही अदब का उन्होंने बहुत अध्ययन किया था। यही वजह है कि उनका दृष्टिकोण भी बेहद व्यापक था। सैय्यद एहतेशाम हुसैन ने अपनी किताब ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में मजनूं गोरखपुरी की तन्क़ीद निगारी पर क़लम चलाते हुए लिखा है, ‘उनके लिखने का ढंग इतना बढ़िया है कि वह भी उतने ही रोचक और रचनात्मक होते हैं। एक कमी अलबत्ता कभी-कभी दिखाई पड़ती है कि जब वह केवल सिद्धांतों का विवरण करते हैं, तो मार्क्सवाद को पूरी तरह अपनाते हुए जान पड़ते हैं, परंतु जब किसी शायर या अदीब की तख़्लीक़ात की तन्क़ीद करते हैं, तो उनका पुराना नज़रिया उनके मज़ामीन में आ जाता है।’’ (पेज-267)  

10 मई 1904 को उत्तर प्रदेश के जिला बस्ती के पिलवा उर्फ़ मुल्की जोत में एक ज़मींदार घराने में जन्मे मजनूं गोरखपुरी का असल नाम अहमद सिद्दीक़ था। शायरी उनको विरासत में मिली। उनके वालिद शायरी करते थे। ज़ाहिर है कि अदब की ओर उनका रुजहान घर के माहौल से ही मुमकिन हुआ। दीनी तालीम (उर्दू, अरबी, फ़ारसी ज़बान पर उन्होंने  बचपन में ही अपनी गिरफ़्त मज़बूत कर ली थी।) के अलावा मजनूं गोरखपुरी की इब्तिदाई तालीम गोरखपुर में ही हुई और उन्होंने यहीं से ग्रेजुएशन मुकम्मल किया।

पढ़ाई के दौरान उन्होंने एक प्रकाशन संस्थान ‘ऐवान-ए-इशाअत’ भी शुरू किया। जिससे उनकी कुछ शुरुआती किताबें शाए हुईं। आगे चलकर आगरा यूनिवर्सिटी से मजनूं गोरखपुरी ने अंग्रेज़ी और उर्दू अदबियात में एमए किया। पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद, वे प्रोफ़ेसर हो गए। साल 1932 से लेकर 1958 तक उन्होंने गोरखपुर के मुख़्तलिफ़ कॉलेजों में अंग्रेज़ी के लेक्चरर और सद्र-ए-शोबा की ख़िदमात दी। नवम्बर, 1958 में वो अलीगढ़ आए। और वहां कोई एक दहाई तक उनका क़याम रहा। साल 1968 में वो पाकिस्तान चले गए। और वहां 1978 तक कराची यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर रहे। 4 जून, 1988 को कराची (पाकिस्तान) में ही मजनूं गोरखपुरी का इंतिक़ाल हुआ।

मजनूं गोरखपुरी की शख़्सियत, उनके परिवार और मिज़ाज के बारे में सज्जाद ज़हीर ने अपनी किताब ‘रौशनाई तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादें’ में कुछ रौशनी डाली है, ‘मजनूं की शख़्सियत ही एक तंज़ीम थी।…..वह हमारी ज़बान के शैलीकार अदीबों, जाने-माने नक़्क़ादों और अदबी शख़्सियतों में एक ख़ास हैसियत रखते थे। तरक़्क़ीपसंद अदब की तहरीक से उनका इब्तिदाई दौर से ही जुड़ाव मेरे लिए काफ़ी अहम बात थी। मजनूं अपनी गोशानशीनी के लिए मशहूर थे।

उनके वालिद गोरखपुर के मुसलमानों के बड़े गर्मजोश लीडर थे। और सयुंक्त प्रांत की असेम्बली के मेंबर थे, जहां पर वह अपनी गर्मकलामी के लिए मशहूर थे। इसके बरख़िलाफ़ मजनूं के बारे में कहा जाता था कि वह निजी काम कमाने, जलसों या कॉन्फ्रेंसों में शिरकत या तक़रीर करने या सियासत में सीधे-सीधे हिस्सा लेने से कोसों दूर रहते थे। गो उनकी हमदर्दियां क़ौमपरस्त और साम्यवादी सियासत के साथ है।’ (पेज-304, 305) यानी सज्जाद ज़हीर के मुताल्लिक मजनूं गोरखपुरी की शख़्सियत एक संस्था की हैसियत रखती थी। बेवजह की लाइमलाइट में रहने की बजाए उनका लिखने में ज़्यादा यक़ीन था। यही वजह है कि अदब की सभी विधाओं में उन्होंने जमकर लिखा।

मजनूं गोरखपुरी की अदबी ज़िंदगी का आग़ाज़ शायरी और अफ़साना निगारी से हुआ। फ़लसफ़ा और जमालियात से भी उन्हें गहरी दिलचस्पी थी। शायर इक़बाल की शायरी के वे बड़ी मुरीद थे। उन्होंने इक़बाल पर दो किताबें ‘इक़बाल’, और ‘इक़बाल इजमाली तब्सिरा’ भी लिखीं, जो काफ़ी मक़बूल हुई। मजनूं गोरखपुरी में शायरी की बेहतरीन सलाहियत थी, लेकिन उन्होंने इस मैदान में ज़्यादा काम नहीं किया। अलबत्ता इस क़ाबलियत का इस्तेमाल, उन्होंने आलोचना के मैदान में किया। और किताबों की इस अंदाज़ में आलोचना की, वह किताबें भी मक़बूल हो गईं। पाठकों को उनका ये अंदाज़ खूब पसंद आया।

आगे चलकर मजनूं गोरखपुरी पूरी तरह से आलोचना के ही होकर रह गये। शोपेनहार के फ़लसफ़े पर एक किताब ‘शोपेनहार’ और ‘तारीख़-ए-जमालियात’ जैसी किताबें उन्होंने इब्तिदाई दौर में ही लिख दी थीं। बाद में ‘अदब और ज़िंदगी’ (साल 1944), ‘तन्क़ीदी हाशिए’, ‘नुक़ात-ए-मजनूं’, ‘नुक़ूश-ओ-अफ़कार’, ‘शेर-ओ-ग़ज़ल’, ‘अफ़साना’ (साल 1935), ‘ग़ालिब शख़्स और शायर’, ‘अफ़साना और उसकी घायत’, ‘दोश-ओ-फ़र्दा’, ‘ग़ज़ल सरा’, ‘निकात-ए-मजनूं’, ‘नुकू़श-ए-अफ़कार’ वगैरह के उन्वान से उनकी आलोचना की किताबें प्रकाशित हुईं। इन किताबों में उनके तन्क़ीदी मज़ामीन, रिसर्च आदि शाए हुए हैं। इन किताबों के अलावा भी वे अपने दौर के कई अहम मौजूआत पर अपने आलिमाना ख़यालात का इज़हार करते रहे।

मजनूं गोरखपुरी नक़्क़ाद के अलावा एक मुमताज फिक्शन निगार भी थे। उनमें कुछ तवील अफ़साने लिखे। अपने अफ़सानों में वे टामस हार्डी की तरह जज़्बात की अक्कासी करते थे। उनके अफ़सानों का यदि अध्ययन करें, तो इनमें रूमान निगारी के साथ-साथ फ़लसफ़ियाना मसाइल पर भी उनकी क़लम चलती है। वे तख़्लीक़ी ढंग से इन मौजू़अ पर रौशनी डालते हैं। इसके अलावा उनके अक्सर अफ़सानों का अंजाम दुःखांत होता है। अलबत्ता अफ़सानों के इस दुःखांत में भी वे एक सोशल इंक़लाब की ओर इशारा कर देते हैं।

‘समन पोश’, ‘ख़्वाब-ओ-ख़याल’, ‘सैद-ए-ज़बूं’ और ‘मजनूं के अफ़साने’ मजनूं गोरखपुरी के अफ़सानों के मजमूए हैं, तो वहीं ‘जै़दी का हश्र’, ‘सोगवार-ए-शबाब’, ‘गर्दिश’ और ‘मरयम मजदलानी’ उनके अहम नॉवेल हैं। बावजूद इसके उर्दू अदब में मजनूं गोरखपुरी की शिनाख़्त एक नक़्क़ाद की ही रही। उन्होंने लगातार अपने अहद के अदबी और तन्क़ीदी मसाइल पर लिखा। उनके लिखे की एक अहमियत थी। अदीबों के साथ-साथ पाठक भी उन्हें संजीदगी से लेते थे। मजनूं गोरखपुरी ने भारतीय साहित्य के अलावा पश्चिमी साहित्य का भी ख़ूब अध्ययन किया था।

पश्चिमी साहित्य में जब भी कोई नया ट्रेंड आता, उस पर उनकी गहरी नज़र होती। उन्होंने ऑस्कर वाइल्ड के ड्रामे ‘सालोमी’ के ही नाम से, लेव तालस्तोय के ड्रामे ‘द फ़र्स्ट डिस्टिलर’ का ‘अबुल खम्र’, जॉन मिल्टन-‘शम्सून-ए-मुबरिज़’ और बायरन के म्यूजिक ड्रामे ‘काइन’ का ‘क़ाबैल’ नाम से उर्दू में तर्जुमा किया है। यही नहीं जार्ज बर्नार्ड शॉ के मशहूर ड्रामे ‘बैक टू मेथ्यू सेला’ की बिना पर उन्होंने ‘आग़ाजे़-हस्ती’ नाम से एक ड्रामा लिखा। ‘परदेसी के ख़ुतूत’, इस किताब में मजनूं गोरखपुरी के ख़त संकलित हैं।

मजनूं गोरखपुरी का तरक़्क़ीपसंद तहरीक से शुरू से ही वास्ता रहा। तरक़्क़ीपसंद अदब से अपनी वाबस्तगी के बारे में उन्होंने अपने एक आत्मकथात्मक लेख में लिखा है,‘जब से ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ वजूद में आई है, मैं उसका मेंबर रहा हूं। अपने सियासी शऊर और बाग़ियाना, बल्कि इंक़लाबी मिज़ाज के बा’इस फ़िराक़ से 1924-25 में ख़ुसूसी मरासिम हुए। हमने मार्क्स का मुतालआ किया। हम उनके ख़यालात से इब्तिदा से ही मुतास्सिर थे।’ (पेज नंबर-110, ‘अरमुगान-ए-मजनूं’, कराची)

‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ ने जब अपनी मैगज़ीन ‘नया अदब’ निकाली, तो मजनूं गोरखपुरी ने इसके प्रकाशन के लिए न सिर्फ़ अपनी ओर से हर मुमकिन मदद की, बल्कि इसके लिए अनेक मज़ामीन भी लिखे। उनका शुरुआती मज़मून ‘तरक़्क़ीपसंद अदब’ इसी मैगज़ीन में छपा था। ‘नया अदब’ में उस वक़्त मजनूं गोरखपुरी के अलावा एहतेशाम हुसैन, डॉ. अब्दुल अलीम, फ़ैज़ अहमद फै़ज़, मुमताज हुसैन, फ़िराक़ गोरखपुरी के तन्क़ीदी मज़ामीन शाए होते थे। इन मज़ामीन ने ही उर्दू अदब में तन्क़ीद के मैदान में नए नज़रिये की नींव रखी। यह वह ज़माना था, जब प्रगतिशील आलोचना की ख़ूब तरक़्क़ी हुई। गोया कि मजनूं गोरखपुरी की ‘अदब और ज़िंदगी’, उसी दौर की किताब है।

मजनूं गोरखपुरी के समकालीन शायर-नक़्क़ाद फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी मक़बूल किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में मजनूं गोरखपुरी के अदब का अदबी जाइज़ा लेते हुए लिखा है,‘वस्तुतः मजनूं की चेतना में बुद्धि और भावना का इतना अनोखा समन्वय है, जो उनकी सृजनात्मक और आलोचनात्मक दोनों प्रकार की कृतियों को एक अत्यंत स्वस्थ्य और संतुलित दृष्टिकोण दे देता है। उनकी नज़र पैनी है और उनकी पैठ गहरी है। कभी-कभी वे परम्परा से अलग बातें करते हैं, किंतु उनका आधार इतना दृढ़ होता है कि उनमें नयी परम्परा को जन्म देने की क्षमता होती है।’ (पेज-306) मजनूं गोरखपुरी की किताबों से जो लोग गुज़रे हैं, उन्हें फ़िराक़ की यह बात सच लगेगी। मजनूं गोरखपुरी ने वाक़ई अपनी तन्क़ीद से उर्दू अदब में एक नई रिवायत को जन्म दिया। उर्दू अदब को आबाद किया। तन्क़ीद के मैदान में उनके बेमिसाल योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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