मोदी-भाषणों की पृष्ठभूमि: याद आते हैं पत्रकारिता के वे बीते दिन!

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दूसरे चरण के मतदान की पूर्व पृष्ठभूमि में देश के सर्वोच्च शक्तिमान पुरुष उर्फ़ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के राजस्थान- चुनावी सभा के भाषणों ने भारतीय मीडिया (गोदी मीडिया) का ही नहीं, विश्व मीडिया का ध्यान आकृष्ट किया था। देश के विवेकशील वर्गों में उनके बांसवाड़ा, टोंक और अन्यत्र स्थानों में दिए गये भाषण आज तक विवाद का मुद्दा बने हुए हैं। भाषणों का संबंध चुनाव आचार संहिता के निर्देशों के उल्लंघन से है।

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषणों में देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को निशाने पर रखा था। उन्हें अन्य अशोभनीय शब्दों से जोड़ते हुए ‘घुसपैठिए’ शब्द से भी उनकी नई पहचान को प्रचारित करने की कोशिश की थी। कांग्रेस के घोषणापत्र को अनर्गल असत्य बातों के साथ जोड़ दिया गया था। चुनाव आयोग तक शिकायतें पहुंचीं। आयोग ने संज्ञान लेते हुए भाजपा अध्यक्ष को पत्र लिख कर ज़वाब तलब कर लिया। आयोग ने यही प्रक्रिया राहुल गांधी के भाषणों से जुड़ी शिकायतों के प्रकरण में भी अपनाई। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को भी पत्र लिखा गया। सम्भवत: चुनाव आयोग के इतिहास में यह पहला अवसर है जब उसने मूल उल्लंघनकर्ताओं से जवाब-तलबी करने के बज़ाय पार्टी अध्यक्षों को पत्र लिखने का विकल्प चुना है।

इस नई परिपाटी अपनाने के संबंध में कई अर्थ लगाए जा रहे हैं। माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री के विरुद्ध शिकायतें अकाट्य हैं। उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था। लेकिन, आयोग की विवशता यह भी है कि सर्वशक्तिमान से सीधे ज़वाब-तलबी कैसे की जाए, क्योंकि उन्होंने ही तो आयुक्तों का चयन किया है? आका को नाराज़ कैसे किया जा सकता है? यदि मोदी-भाषण उल्लंघनों की उपेक्षा कर राहुल गांधी से ही जवाबतलबी की जाती है तो इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। विवाद और भी बढ़ जायेगा। मोदी और गांधी के विरुद्ध मिली शिकायतों को नज़रअंदाज़ करने से भी विवाद फैलेगा। आयोग कठघरे में खड़ा दिखाई देगा। वैसे भी इसकी छवि मलिन दिखाई देती है। पिछले एक अर्से से इसकी स्वतंत्र भूमिका पर अनेक सवालिया निशान लगते रहे हैं।

सूरत में मंचित भाजपा के ताज़ा ‘विजय नाटक’ ने तो चुनाव तंत्र की सार्थकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। चुनाव आयोग टुकुर- टुकुर देखता रहा और चुनावी मैदान में शेष रहा भाजपा का एकल उम्मीदवार बग़ैर चुनाव लड़े चुनाव जीतता रहा। पर्दे के पीछे किसने नाटक की पटकथा लिखी, संवाद किसके थे, निर्माता व निर्देशक कौन थे, यह सवाल रहस्यों से भरा हुआ है। इस पर से कभी पर्दा उठेगा भी या नहीं, यह भी दस लाख टके का सवाल है। दुखद तथ्य यह भी है कि आयोग के सदस्यों की चयन प्रक्रिया स्वयं विवादों से घिरी हुई है। इसकी संवैधानिक स्वायत्ता अक्षुण है, यह भी संदिग्ध है! वैसे आदर्श आचार सहिंता के उल्लंघन की शिकायतों से चुनाव आयोग लगातार घिरता ही जा रहा है। सत्ताधारी दल के प्रत्याशी इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। चुनावी भाषणों में ध्रुवीकरण का कारोबार निर्लज्जता के साथ चल रहा है।

इस लेख का असल विषय यह है कि अगर मैं आज संपादक या रिपोर्टर होता तो मेरी भूमिका कैसी रहती? क्या मैं प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, अनुराग ठाकुर, स्मृति ईरानी तथा दूसरे सत्ताधीशों के सम्भावी वक्तव्यों-भाषणों तथा समाचारों को पेशेवर ढंग से प्रकाशित या प्रसारित कर पाता? क्या मैं पत्रकारिता की पेशेवर प्रतिबद्धता के साथ बड़बोले-बिगड़ैल- नकचढ़े नेताओं से सवाल-ज़वाब कर सकता था? क्या उनके इंटरव्यू ले सकता था? क्या किसी चैनल में एंकर-धर्म निभा सकता था?

1999 में मैं सक्रिय पत्रकारिता से अलग होकर एकेडेमिक जगत से जुड़ गया था। लेकिन, आज मैं अस्सी पार के पड़ाव पर बैठा स्वयं को दुविधाजनक सवालों से घिरा ज़रूर पाता हूं। रोज़-ब- ऱोज़ ऐसी घटनाएं घटती जा रही हैं जो कि किसी भी संवेदनशील व चेतनशील पत्रकार की ज़मीर को ललकारती रहती हैं। मैं किसी मीडिया संस्थान से जुड़ा हुआ नहीं हूं और न ही स्वतंत्र सक्रिय पत्रकार हूं। सोशल मीडिया पर गाहे-बगाहे सियासी टिप्पणियां ज़रूर करता-रहता हूं। लेकिन, क्या कोई संस्थागत वरिष्ठ या कनिष्ठ पत्रकार आज़ादी के साथ लिख सकता है? क्या मोदी जी+शाह जी के भाषणों का विश्लेषण कर सकता है? क्या दिल्ली के राष्ट्रीय दैनिकों में मोदी और राहुल की राजनैतिक शैलियों पर तुलनात्मक लेख प्रकाशित हो सकता है?

हिंदी पट्टी के एक प्रसिद्ध कथाकार स्तम्भ लेखक ने मुझे बताया था कि एक दैनिक के सम्पादक ने मुझे हिदायत दे रखी है कि अपने स्तम्भों में प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह जैसे नेताओं को बचा कर लिखा करें। उनका विवादों में नाम नहीं आने दें। एक बहुसंस्करणीय दैनिक के संयुक्त सम्पादक ने कहा था, “सर, मैं अपने दैनिक में पत्रकारिता को छोड़ बाक़ी सभी काम करता हूं। निर्देशों का पालन करना होता है। अनुकूलित सम्पादकीय और समाचार लिखने होते हैं। मीडिया संस्थानों से प्रश्न-संस्कृति ग़ायब हो चुकी है। निर्देश वंदना का दूसरा नाम ही स्वतंत्र पत्रकारिता हो गया है”।

सवाल तो यह भी है कि क्या वर्तमान दौर के किसी भी मीडिया संस्थान में पेशवर पत्रकार को प्रवेश मिल सकता है? क्या वहां व्यावसायिक स्वतंत्रता का वातावरण है? यदि मैं युवा रहता तो क्या मुझे किसी दैनिक या चैनल में नौकरी मिल सकती थी? ये सवाल मुझे यादों में धकेल रहे हैं। 1989 में मैं नई दुनिया (इंदौर) से जुड़ा था। पहला असाइनमेंट ही चुनौतीपूर्ण था। लोकसभा के मध्यावधि चुनावों की घोषणा हो चुकी थी। मुझसे कहा गया की उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर चुनाव रपट भेजें। मैं सक्रिय वामपंथी पृष्ठभूमि से निकला था। लेकिन, नई दुनिया के प्रबंधक अभय छजलानी और प्रमुख सम्पादक राहुल बारपुते व सम्पादक राजेंद्र माथुर ने कोई आपत्ति नहीं की। चुनावों के बाद मुझे नियमित रूप से दिल्ली का ब्यूरो प्रमुख भी नियुक्त किया गया।

नई दुनिया के प्रबंधक कांग्रेस-समर्थक थे। कतिपय कांग्रेसी सांसदों ने उनसे कहा भी था कि एक खांटी वामपंथी को क्यों लिया गया है? प्रबंधक और सम्पादक का एक ही उत्तर होता,” जिस दिन जोशी जी अपनी रिपोर्टिंग में ऑब्जेक्टिव नहीं रहेंगे, तब हम कोई एक्शन लेंगे। जहां तक वैचारिक लेखों का सवाल है, यह पत्रकारीय स्वतंत्रता है”। क्या यह आज संभव है? प्रतिष्ठित साहित्यकार व सम्पादक अज्ञेय, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, प्रभाष जोशी, धर्मवीर भारती, अक्षयकुमार जैन आदि ने मेरे विश्लेषणात्मक लेखों पर कभी सम्पादकीय कैंची चलाई हो, मुझे याद नहीं है। इतना ही नहीं, अज्ञेय जी ने तो एक बार समर सेन की प्रसिद्ध पत्रिका ‘फ्रंटियर’ में प्रकाशित मेरे एक लम्बे लेख का स्वतंत्र हिंदी अनुवाद भी नवभारत टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर तीन किस्तों में छापा था।

उन दिनों जनता पार्टी का शासन था और प्रधानमंत्री थे मोरारजी देसाई। धर्मयुग के एक अंक में मैंने अपने लेख में नौकरशाही के वर्ग चरित्र का जमकर विश्लेषण किया था। क्या आज यह सब कुछ संभव है? क्या कोई एंकर अपनी किसी चर्चा में शीर्षस्थ नेता या नौकशाह की कार्यशैली पर चर्चा आयोजित कर सकता है? क्या मुख्यधारा के तथाकथित हिंदी दैनिकों में सरकार की विदेश नीतियों और आर्थिक नीतियों पर आलोचनात्मक लेखमाला प्रकाशित हो सकती है?

मैंने स्वयं नई दुनिया के प्रथम पृष्ठ पर प्रधानमंत्री नरसिंह राव और उनकी सरकार की कार्यशैली पर सात सवालों को सात दिन तक उठाया था। काफी शोर मचा था। लेकिन, सत्ता प्रतिष्ठान से न अख़बार पर कोई आंच आई थी, और न ही मुझ पर। एक समय था जब ज़ी टीवी के लिए असाइनमेंट किये थे। मुझे याद है, भाजपा के शिखर मण्डली के नेता नानाजी देशमुख से इंटरव्यू के लिए मुझे चुना गया था। अपनी पृष्ठभूमि बताने के बावजूद यह चयन हुआ। करीब दो घंटे का इंटरव्यू था। जम कर सवाल-ज़वाब हुए।

पत्रकार रामशरण जोशी नानाजी देशमुख का इंटरव्यू करते हुए

नई दुनिया में प्रकाशित भाजपा के वरिष्ठतम विद्वान नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी का साक्षात्कार तो काफी चर्चित हुआ था। सवाल मेरे थे, जवाब उनके। पहला ही सवाल था,” डॉ. जोशी जी, समय की अवधारणा क्या है”, और अंतिम सवाल थे पूंजीवाद, श्रमिक वर्ग व अमेरिकी साम्राज्यवाद। वे मुस्कराते हुए स्वयं को यह कहने से नहीं रोक पाए थे, “जोशी जी, आप तो मुझे अपने ही पाले में घसीट लाये!”

ऐसे ही अनुभव तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल जी के साथ हुए। इंद्रकुमार गुजराल रहे हों या राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्री, कभी कोई घुटन महसूस नहीं की थी। भाजपा के भैरोंसिंह शेखावत, सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी जैसे नेताओं के दरवाज़े भी मेरे जैसे पत्रकारों के लिए खुले रहते थे। कभी किसी नेता ने विपरीत विचारधारा वाले पत्रकार को अछूत नहीं समझा था।

पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव एवं अटल बिहारी वाजपेयी से बात करते पत्रकार रामशरण जोशी

पता चला है कि देश के नये संसद भवन में सेंट्रल हॉल की व्यवस्था है ही नहीं, जबकि पुराने भवन में थी। पुराने संसद भवन में लोकसभा और राजयसभा सदनों के बीच सेंट्रल हॉल या केंद्रीय हॉल है। यह हॉल दोनों सदनों के बीच सेतु की भूमिका निभाता है। इस हॉल में प्रधानमंत्री, मंत्रीगण, सभी दलों के नेता-सांसद और प्रदेशों के राज्यपाल, मुख्यमंत्रीगण और विधायकगण अनौपचारिक रूप से आ कर बैठा करते थे। वरिष्ठ मीडियाकर्मी भी आ जाया करते थे। सभी बेतखल्लुफ़ी के साथ बतियाया करते थे। मैं भी सालों इस हॉल में जाता रहा हूं। भाजपा नेता अरुण जेटली तो सर्वप्रिय नेता थे। लालू यादव के चुटकले खूब चला करते थे। एक थोड़े ही है, सेंट्रल हॉल के हज़ार अफ़साने हैं।

लेकिन, मोदी जी के नए दौर में सन्नाटा है। नए भवन में कोई प्रावधान ही नहीं रखा है। पुराने हॉल में होने वाली अनौपचारिक चर्चाओं में काफी कुछ छन कर संकेत मिल आ जाया करते थे। नेता-मंत्री तनाव मुक्त हो जाया करते थे। मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान के प्रतिनिधियों के बीच अनौपचारिक संवाद बना रहता था। लेकिन, वर्तमान शक्तिमान को ऐसा तनाव मुक्त और स्वतंत्र परिवेश नामंज़ूर है। इसीलिए, किसी भी विधा का पत्रकार मुक्तभाव से मोदी जी के व्याख्यानों, भाषणों और सत्य-असत्यों पर टीका -टिप्पणी से घबराता है, विशेषरूप से हिंदी के प्रतिष्ठानी प्रबंधक व संपादक। ऐसे कुंठित व रुंधे परिवेश में बांसवाड़ा और टोंक के मोदी- भाषणों को ‘देववाणी’ से ही परिभाषित किया जायेगा!

निश्चित ही, इस माहौल में मुझे किसी भी मीडिया में प्रवेश ही नहीं मिलता। यदि मैं पहले से ही किसी मीडिया हाउस में कार्यरत रहता भी तो मेरे सामने तीन-चार विकल्प ही शेष रहते: 1. इस्तीफ़ा, 2. बर्खास्तगी, 3. समर्पण व रीढ़विहीन पत्रकारिता और 4. निष्कासन के बाद जेल-यात्रा। अब तो यही गुनगुनाने के लिए शेष रह गया है: कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…..!

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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