कौन बड़ा रणछोड़ : मोदी+शाह ब्रांड भाजपा या राहुल गांधी ?

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आख़िरकार कांग्रेस ने भाजपा और उसके शिखर नेता द्वय – प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को गच्चा दे ही दिया; राहुल गांधी अमेठी के बज़ाय अब रायबरेली से चुनाव लड़ेंगे। इस फैसले से प्रधानमन्त्री मोदी भी चौंक गए और उनकी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया थी, “राहुल डरो मत, भागो मत।” दूसरे शब्दों में , राहुल गांधी, भाजपा प्रत्याशी व निवर्तमान सांसद स्मृति ईरानी से हार के भय से अमेठी से भाग खड़े हुए हैं और पड़ोस की अत्यंत सुरक्षित सीट रायबरेली से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं।

इस सीट से दिवंगत इंदिरा गांधी और कांग्रेस की पूर्व अध्यक्षा चुनाव जीतती रही हैं, जबकि अमेठी से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और राहुल गांधी चुनाव जीतते रहे हैं। लेकिन, 2019 के चुनावों में भाजपा की नेता ईरानी से गांधी चुनाव हार गए थे। लेकिन, केरल की वायनाड सीट से चुनाव जीत कर राहुल लोकसभा पहुंचे थे। इस दफ़ा भी वे दो स्थानों -वायनाड और रायबरेली से खड़े हुए हैं। ज़ाहिर है, विवाद उठेगा और कई अर्थ लगाए जायेंगे।

शुरू में मुझे भी राहुल गांधी का यह निर्णय अचरज़ भरा लगा था। मैंने भो सोचा था कि गांधी संभावित हार से भयभीत होकर उन्होंने अपनी मां की सुरक्षित सीट को चुना है। बड़बोली स्मृति ईरानी से मुक्ति मिली है। यदि वे ईरानी जी दूसरी दफ़ा भी हार जाते तो उसका प्रतिकूल प्रभाव राहुल के भविष्य पर पड़ सकता था। भाजपा क्षेत्र उनकी जमकर खिल्लियां उड़ाता। इंडिया गठबंधन में भी उनकी स्थिति अधिक नमनीय हो सकती थी।

मेरे मत में अंतिम युद्ध जीतने के लिए एक-दो मोर्चों या लड़ाइयों को हारा भी जाता है। क्योंकि, गांधी के इस फैसले से प्रतिपक्ष के खेमों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। विरोधी दल सोच सकते हैं कि राहुल गांधी बगैर लड़े ही मैदान को छोड़ कर भाग खड़े हुए। राजनीति में हार-जीत चलती ही रहती है। उनको अमेठी से ही लड़ना चाहिए था। उन्होंने यह क़दम उठा कर नाहक़ ही स्मृति ईरानी का क़द बढ़ा दिया और मोदी जी को व्यंग्य कसने का मौक़ा दे दिया है। अब भाजपा को अमेठी में सपाट मैदान मिल गया है। ऐसा दावा किया जा रहा है।

लेकिन, क्या राहुल वास्तव में भगोड़े या रणछोड़ हैं, इस पर अंतिम राय बनाने से पहले इस सवाल पर दूसरे दृष्टिकोण से भी सोचा जाना चाहिए। चौबीस घंटे गुज़र जाने के बाद लगता है कि कांग्रेस और राहुल गांधी ने जोख़िम भरा क़दम उठाया है। यह ज़रूरी नहीं है कि राहुल गांधी रायबरेली से जीत ही जायेंगे। 1977 के चुनावों में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी स्वयं इस सीट से समाजवादी नेता राजनारायण से चुनाव हार चुकी हैं। इतना ही नहीं, उनके छोटे पुत्र संजय गांधी भी अमेठी -सीट को हार चुके हैं। इसलिए यह सोचना कि ग़ैर -कांग्रेसी प्रत्याशी शर्मा के लिए अमेठी सीट सुरक्षित है, ग़लत सोचना होगा।

आज जबकि उत्तर प्रदेश में भाजपा का राज है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की शासन पर गहरी पकड़ है, कुछ भी हो सकता है। जब भाजपा सूरत और इंदौर में बग़ैर लड़े विजयश्री को अपनी मुट्ठियों में बंद कर सकती है तो राय बरेली या अमेठी कैसे अपवाद हो सकती है। इस सीट परअपनी जीत को पक्की करने के लिए भाजपा कोई दूसरा फार्मूले को अपना सकती है।

संयोग से मैं रायबरेली और अमेठी, दोनों ही सीटों पर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के चुनावों को कवर कर चुका हूं। अब दोनों ही सीटों की सामाजिक -राजनैतिक पृष्ठभूमियां बदल चुकी हैं। नए वर्ग और नई आकांक्षाएं जन्म ले चुके हैं। परम्परागत वफ़ादारियां शिथिल पड़ चुकी हैं। उपभोक्तावादी परिवेश की वज़ह से पुश्तैनी संबंधों में गुणात्मक परिवर्तन आ गए हैं। ऐसी स्थिति में रायबरेली रहे या अमेठी, स्थायी रूप से सुरक्षित नहीं है। दूसरा प्रमुख कारण यह भी रहा होगा कि राहुल गांधी अमेठी की जीत या हार के दबाव से मुक्त हो कर स्वतंत्रता के साथ देश भर में कांग्रेस और इंडिया गंठबंधन के उम्मीदवारों का चुनावी प्रचार कर सकेंगे।

प्रधानमंत्री मोदी के समान ही राहुल गांधी प्रतिपक्ष के स्टार प्रचारक हैं। जहां कांग्रेस की रणनीति में गांधी के लिए वायनाड सुरक्षित सीट समझी जाती है, वहीं रायबरेली सीट भी अमेठी की अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित मानी गई हो! यह सर्वविदित है, स्मृति ईरानी को तो भाजपा की स्टार प्रचारक माना नहीं जाता है। उनपर दूसरे क्षेत्रों में जा कर प्रचार का दबाव भी नहीं है, जबकि राहुल गांधी की स्थिति उनसे सर्वथा भिन्न है।

यह भी याद रखा जाना चाहिए कि स्मृति ईरानी स्वयं अपना पहला चुनाव दिल्ली की चांदनी चौक सीट से हार चुकी हैं। यह वह ज़माना था जब दिवंगत प्रमोद महाजन की भाजपा में तूती बोलती थी। उसी दौरान ईरानी जी को 2004 में लोकसभा के लिए भाजपा का टिकिट मिला और कांग्रेस के कपिल सिब्बल के ख़िलाफ़ पहला ही चुनाव हार गयी थीं। उन्होंने उस चुनाव में स्वयं को ‘चांदनी चौक की बहु’ के रूप में प्रचारित किया था। लेकिन, बुरी तरह से वे हारीं। इसके बाद वे गुजरात से राज्यसभा के लिए चुनी गयीं थी। 2014 के चुनावों में राहुल गांधी स्मृति ईरानी को करीब एक लाख वोटों से हरा भी चुके हैं।

एक प्रकार से स्मृति ईरानी स्वयं भी ‘ भगोड़ी ‘ हैं और दिल्ली से बजरिय गुजरात अमेठी पहुंची हैं। उनकी राजनीतिक यात्रा भी विवादास्पद रही है। अपनी पढ़ाई की डिग्रियों को लेकर वे विवाद में घिर चुकी हैं। वे मोदी-सरकार में महत्वपूर्ण काबीना मंत्री ( शिक्षा मंत्री, सूचना प्रसारण मंत्री, टेक्सटाइल मंत्री आदि ) भी रहीं हैं। लेकिन, उनका कार्यकाल बिना प्रभावी छाप के रहा है।वह विवादों से घिरा रहा है। वर्तमान में वे निवर्तमान महिला और बाल विकास काबीना मंत्री हैं। विश्व के बाल कल्याण तालिका में भारत का निराशाजनक स्थान 113 वां है।

यदि राहुल बनाम स्मृति जंग होती तो स्मृति ईरानी को नाहक अपार प्रचार मिलता। ईरानी जी अभी तक ‘राष्ट्रीय नेता ‘ के रूप में स्वयं को स्थापित नहीं कर सकी हैं। शिखर सत्ता का अपार संरक्षण प्राप्त होने के बावजूद स्मृति ईरानी जी औसत नेता की श्रेणी में मानी जाती हैं। उनकी कार्यशैली से अभी तक दृष्टि सम्पन्नता का परिचय नहीं मिला है।

इसके विपरीत, राहुल गांधी की कार्यशैली और दृष्टि में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है; भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा की कोख से एक नए राहुल का जन्म हुआ है। यदि वे पप्पू छवि से ही चिपके हुए होते तो आज़ मोदी +शाह जोड़ी उन पर बेलगाम हमले नहीं कर रही होती! वे हाशिये पर ही पड़े हुए माने जाते। लेकिन, जो कुछ हो रहा है वह मोदी + शाह जोड़ी की अपेक्षाओं के विपरीत हो रहा है।

राहुल गांधी की सार्वजनिक शैली में जो आक्रामकता दिखाई देती है, वह स्वयं की अर्जित है। लेकिन, इसका आंशिक श्रेय मैं प्रधानमंत्री मोदी को भी देना चाहूंगा। उन्होंने राहुल गांधी के सुप्त अस्तित्व को झकझोर दिया और आज वे स्वयं मोदी+शाह जोड़ी को निरंतर ललकार भी रहे हैं। क्या स्मृति ईरानी स्वयं के दम पर इतनी प्रताड़ना झेल सकती थीं ?

राहुल जिसे ‘पप्पू की छवि’ का सालों बंदी बनाया गया हो, आज वह भाजपा की शिखर सत्ता जोड़ी की नाक में दम मचाये हुए है। क्या ईरानी जी ऐसी स्थिति से उभर सकती थीं? सो, राहुल गांधी ने एक ही झटके में स्मृति जी को ‘प्रचार पूंजी ‘ से बुरी तरह वंचित कर दिया है। यदि वे जीत भी जाती हैं तो उन्हें वैसी शौहरत तो नहीं ही मिलेगी जोकि गांधी को हराने से मिलती। और यदि वे कांग्रेस के गैर-गांधी प्रत्याशी से हार जाती हैं तो उनके राजनैतिक करियर पर ही सवालिया निशान लग जायेगा।

मोदी+ शाह सत्ता मंडल से छिंटक जाने का अंदेशा पैदा हो जायेगा। राहुल गांधी तो दो सीटों में से एक सीट पर ज़रूर जीत जायेंगे। यदि राय बरेली जीत जाते हैं तो उनकी राजनैतिक यात्रा में नया आयाम जुड़ेगा। लेकिन,अमेठी में जीत से भी स्मृति ईरानी ऐसी उपलब्धि से वंचित ही रहेंगी।

मोदी जी की दृष्टि में राहुल गांधी ‘भगोड़े’ हैं। यदि गांधी भगोड़े हैं तो भाजपा भी कश्मीर से भगोड़ी ही है। संविधान से अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बावजूद भाजपा और मोदी जी कश्मीर घाटी की तीन सीटों पर चुनाव लड़ने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। आखिर क्यों ? किस प्रकार के भय से मोदी ब्रांड भाजपा आक्रांत है ?

तीन में से किसी भी सीट पर उसने अपना प्रत्याशी खड़ा नहीं किया है, जबकि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ही कश्मीर में आतंक मुक्त और विकास युक्त घाटी का आलाप दिन -रात भर रहे हैं। देश भर की चुनाव सभाओं में भाजपा के अन्य नेता भी कश्मीर से अनुच्छेद 370 के ख़ात्मा का ढोल भी पीट रहे हैं। लेकिन, मोदी-शाह द्वय घाटी की किसी भी सीट पर चुनाव लड़ने का साहस का प्रदर्शन नहीं कर सके हैं। क्या यह मोदी -नेतृत्व और भाजपा का घाटी से पलायन नहीं है ?

इसे भी सामूहिक ‘भगोड़ापन’ ही कहा जायेगा जोकि राहुल गांधी के ‘ अमेठी पलायन’ से कहीं अधिक गंभीर, व्यापक और संकट -सूचक है। याद रखें, व्यक्तिगत पलायन और दलीय पलायन, दोनों में बुनियादी अंतर् है; वैयक्तिक पलायन से एक व्यक्ति की छवि प्रभावित होती है जबकि सत्तारूढ़ दल के पलायन से ‘ हुक़ूमत का इक़बाल’ प्रभावित ही नहीं होता है, बल्कि कमज़ोर और भयग्रस्त माना जाता है। घाटी से भाजपा-पलायन से यही संकेत उभरते हैं कि कश्मीर अब भी सामान्य स्थिति की मंज़िल से बहुत दूर है। सारांश में, यही लगता है कि मोदी+ शाह ब्रांड भाजपा राहुल गांधी से कहीं बड़ी ‘ रणछोड़ या भगोड़ी ‘ है !

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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