पुस्तक समीक्षा: लोक शाहीर अण्णा भाऊ साठे की संघर्षमय ज़िंदगी और अदबी कारनामे

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अण्णा भाऊ साठे की पहचान एक लोक शाहीर की है। जिन्होंने ‘स्टालिनग्राड’ ‘तेलंगणा’ जैसे जोशीले पंवाड़े और तमाशे रचे। ‘अकलेची गोष्ट’, ‘मौन जुलूस’, ‘तिरसठ नंबर की खोली’, ‘माझी मुंबई’, ‘मुंबई कोणाची’, ‘शेटजीचे इलेक्शन’  लोकनाट्य प्रस्तुत किए। दो सौ से ज़्यादा लावणी लिखीं। भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा के देशव्यापी विस्तार में सक्रिय भूमिका निभाई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर रहे। देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया और उसके बाद संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जुड़े। आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद जेल गए, यातनाएं सहीं, लेकिन सच का साथ न छोड़ा।

अण्णा भाऊ की एक और बड़ी पहचान है, जिस पर बहुत कम बात होती है, और वह है मराठी दलित साहित्य की नींव रखनेवाले रचनाकार की। जिन्होंने अपने साहित्य में दलित, वंचित, आदिवासी, घुमंतू जातियों-जनजातियों की पीड़ा, दुःख-दर्द, वंचनाओं और संघर्ष को अपनी आवाज़ दी। उन्हें साहित्य के केन्द्र में लाए। अण्णा भाऊ साठे की कहानियों और उपन्यासों की लोकप्रियता का ही कमाल है कि उनकी इन रचनाओं पर मराठी में कई फ़िल्में भी बनीं। उनके साहित्य का अनेक देशी, विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। अण्णा भाऊ साठे ने डेढ़ सौ से ज़्यादा कहानियां और दो दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे। इतना विपुल लेखन होने के बावजूद, जिस तरह से अण्णा भाऊ साठे के साहित्य का मूल्यांकन होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। मराठी साहित्य में भी वे विस्मृत और हाशिए पर ही रहे। आलोचकों ने उनके साहित्य पर क़लम चलाना तक गवारा नहीं समझा।

साल 2020 अण्णा भाऊ साठे का जन्मशती साल था, इस मौके़ पर भी उन्हें जिस तरह से याद किया जाना चाहिए था, वह न हुआ। न तो सरकारी स्तर पर उन पर केन्द्रित कोई बड़ा आयोजन हुआ और न ही कोई दीगर साहित्यिक, सामाजिक संगठन उनको याद करने के लिए आगे आये। एक ऐसे साहित्यकार और आंदोलनकारी जिसने अपनी सारी ज़िंदगी हाशिये से नीचे के समाज को ऊपर उठाने के लिए लगा दी हो, उसको बिसरा देना किसी भी लिहाज से सही नहीं कहा जा सकता।  

साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित मराठी साहित्य के प्रसिद्ध उपन्यासकार विश्वास पाटिल ने अण्णा भाऊ साठे के व्यक्तित्व और कृतित्व को ध्यान में रखकर, साल 2021 में मराठी में एक विस्तृत जीवनी ‘अण्णाभाऊ की दर्दभरी दास्तान’ लिखी थी। जिसे काफ़ी पसंद किया गया। अण्णा भाऊ साठे पर हिन्दी में ज़्यादा सामग्री नहीं है। इसी ज़रूरत को ध्यान में रखकर, अब यह जीवनी हिन्दी में भी आ गई है। अलबत्ता हिन्दी में आते-आते इस किताब का शीर्षक बदलकर ‘दलित और स्त्री-जगत के श्रेष्ठ क़लमवीर अण्णा भाऊ साठे’ हो गया है। मराठी ज़बान से किताब का हिन्दी अनुवाद सुरेश माहेश्वरी ने किया है। वाणी प्रकाशन ने इस किताब को जीवनी श्रंखला के तहत प्रकाशित किया है। लोक शाहीर अण्णा भाऊ साठे की जीवनी को प्रमाणिक बनाने के लिए लेखक विश्वास पाटिल ने काफ़ी शोध किया है। इसके लिए वे अण्णा भाऊ से संबंधित कई स्थानों पर गए, लोगों से मुलाक़ात की, उनके इंटरव्यू लिए, तत्कालीन अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों का संदर्भ इकट्ठा किया, उनके रिश्तेदारों से मिले और उनके समकालीन जीवन से जुड़ी अनेक बातों, घटनाओं की सूक्ष्मता से जांच-पड़ताल कर अपने लेखन को अंजाम दिया।

यही नहीं अण्णा भाऊ पर लिखी दीगर किताबों के हवाले भी लेखक ने अपनी किताब में ज़रूरत के मुताबिक इस्तेमाल किए हैं। जीवनी को पढ़कर, इन सब बातों का एहसास भी होता है। 360 पेजों की इस विस्तृत जीवनी को लेखक ने तीस अध्यायों में बांटा है, तो वही दो परिशिष्ट भी जोड़े हैं। पहले परिशिष्ट में अण्णा भाऊ के निधन की ख़बर है, जो दैनिक ‘मराठा’ में 19 जुलाई, 1969 को प्रकाशित हुई थी, तो दूसरे परिशिष्ट में अण्णा भाऊ साठे की श्रेष्ठ कहानियों की लिस्ट है। किताब की प्रस्तावना मराठी के एक और बड़े साहित्यकार शरण कुमार लिंबाले ने लिखी है। डॉ. लिंबाले अपनी इस भूमिका में अण्णा भाऊ साठे के ऐतिहासिक साहित्यिक अवदान की चर्चा करते हुए लिखते हैं, ‘‘अण्णा भाऊ की लेखनी ने हमें प्रकाश पर्व की मशाल प्रदान की और हम दलित साहित्य लिखने लगे। दलित साहित्य के शुरुआती दौर में इतना बड़ा विशाल ताक़तवर लेखक हमारे पास था। इसलिए हम सनातन प्राचीन व्यवस्था के ख़िलाफ़ धैर्य के साथ लड़ पाए। विद्रोह किया और जीवन की लड़ाई में जीत हासिल की।’’

मराठी दलित साहित्य में शरण कुमार लिंबाले की हैसियत एक सशक्त हस्ताक्षर की है, ज़ाहिर है कि उनका यह कथन दलित साहित्य में अण्णा भाऊ साठे की अहमियत को दर्शाता है। इस किताब के लेखक खु़द विश्वास पाटिल ने भी अण्णा भाऊ की कहानी ‘शमसान का सोना’ को प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ से बेहतर माना है। ‘मनुष्य, लोमड़ी और शमसान’ अध्याय में उन्होंने इस कहानी का बहुत तर्कसंगत विश्लेषण किया है। यही नहीं वे अण्णा को भारतीय महानगरीय साहित्य के प्रवर्तक भी मानते हैं।

उनका मानना है कि उपन्यास ‘चित्रा’, ‘चंदन’ और कहानी संग्रह ‘चिराग़नगर के भूत’ एवं ‘बरबाद्या कंजारी’ ने महानगरीय साहित्य की पुख़्ता नींव रखी। अण्णा भाऊ ने ‘चित्रा’ और ‘चंदन’ उपन्यास में सशक्त नारी किरदारों की रचना की। जो पुरुषप्रधान समाज में अपना अलग वजूद साबित करती हैं। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती हैं। ‘श्रमिक नायिका चंदन’, ‘चित्रा’ मुंबई का नकाब उतरा चेहरा’, ‘बयालीस बेटियों का कुलीन पिता’, ‘सुलगता आँचल’, ‘उपन्यास और जीवन की नायिकाएँ’ और ‘बहु-बेटियों के आँसुओं से भीगा उत्तरीय’ आदि अध्यायों में लेखक ने अण्णा भाऊ साठे की रचनाओं पर विस्तृत नज़र दौड़ाई है, और उनका सम्यक मूल्यांकन किया है। एक शोधार्थी की तरह उन्होंने रचनाओं का विश्लेषण करना ज़रूरी समझा। ताकि आम पाठक भी अण्णा भाऊ की रचनाओं के मर्म तक पहुंचें।

किताब में न सिर्फ़ अण्णा भाऊ साठे की संघर्षमय ज़िंदगी उभरकर सामने आई है, बल्कि लेखक ने उनकी प्रमुख साहित्यिक रचनाओं उपन्यास ‘फ़किरा’, ‘चित्रा’, ‘चंदन’, ‘माकड़ी का पठार’, ‘वारणा की घाटी’, ‘वैजयंता’, ‘आवडी’ और कहानी संकलन ‘चिरागनगर के भूत’, ‘सलाखों के पीछे’, ‘लोडेड संगीनें’ की अनेक कहानियों की विस्तृत विवेचना की है। अण्णा भाऊ की लेखन प्रक्रिया से लेकर, इन रचनाओं में अंतर्निहित संदेश को भी उन्होंने बड़े ही सरलता और ख़ूबसूरती से पाठकों तक पहुंचाया है। यह रचनाएं क्यों अहम हैं, सूक्ष्म विश्लेषण कर बतलाया है।

लेखक ने अण्णा भाऊ के चर्चित उपन्यास ‘फ़किरा’ को तो हावर्ड फास्ट के ‘स्पार्टाकस’ और पर्ल बक के उपन्यास ‘द गुड अर्थ’ के समकक्ष रखा है। मराठी साहित्य में जिस सोचे-समझे तरीक़े से अण्णा भाऊ साठे की उपेक्षा की गई, लेखक को इस बात का काफ़ी मलाल है। किताब में विश्वास पाटिल ने कई मर्तबा उदाहरण देकर, यह साबित करने की कोशिश की है कि अण्णा भाऊ जैसे मराठी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर पर बात न कर, आलोचकों ने साहित्य का नुक्सान किया है। ‘अण्णा भाऊ की उपेक्षा : सोची-समझी साजिश’ इस अध्याय में लेखक का मानना है कि ‘‘साहित्य के आंगन में क्षुब्ध करनेवाली स्वार्थपूर्ण गुटबाजी, अध्ययनमंडल और विश्वविद्यालयीन स्तर की साहित्यिक अधीनता तथा जातीयता इन सबके आघात का कोड़ा अण्णा जैसे ताक़तवर साहित्यकार को निरंतर और समय-समय पर लगता रहा।’’ (पेज-340) इसी अध्याय में वे आगे कहते हैं, ‘‘ज्ञानपीठ पुरस्कार के हक़दार निश्चित ही अण्णाभाऊ थे, लेकिन गुटबाजी, मैत्री और स्वयंप्रचारी ब्राह्मणी मनोवृति, अपने आपको प्रगतिशील कहलानेवाली तथाकथित मराठी आलोचना ने भी अण्णा को ऐसा सम्मान दिलाने का तकनीकी समय कब का ही खो दिया है।’’ (पेज-346) (नोट-अनुवाद की दुरूहता इस वाक्यांश में भी देखी जा सकती है।)

(दलित और स्त्री जगत के श्रेष्ठ क़लमवीर अण्णा भाऊ साठे, लेखक : विश्वास पाटिल, मराठी से हिन्दी अनुवाद : सुरेश माहेश्वरी, मूल्य : 595, पेज : 360, प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-110002)

साल 1955-56 में हुए संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन पर भी लेखक ने किताब में विस्तार से लिखा है। तत्कालीन केन्द्र और राज्य सरकार ने इस आंदोलन का किस तरह से दमन किया और आंदोलनकारियों को रोकने की कोशिश की, ‘संयुक्त महाराष्ट्र का आंदोलन’ अध्याय में इसका पूरा ब्यौरा है। कॉमरेड डांगे, कॉ. नाना पाटिल, बैरिस्टर नाथ पै, कॉ. तारा रेड्डी, कॉ. अहिल्या रांगणेकर, आचार्य पी. के. अत्रे के साथ इस आंदोलन में लोक शाहीर अण्णा भाऊ साठे, अमर शेख़, गव्हाणकर, आत्माराम पाटिल, गजानन बेणी, जैनू शेख़, जाधव, करीम भी शामिल थे। महाराष्ट्र से लेकर राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली में संसद से लेकर सड़कों तक चले इस संघर्ष में इन लोकशाहीरों के पंवाड़े, वगनाट्य, लावणी, गीतों ने आंदोलनकारियों में पूरे समय एक जोश बनाए रखा।

अण्णा भाऊ के वगनाट्य ‘माझी मुंबई’ का महाराष्ट्र में जगह-जगह मंचन हुआ। यही नहीं उनकी लावणी ‘माझी मेना गावावर राहिली’ ने तो जैसे उस वक़्त पूरे आंदोलन को ही अभिव्यक्त कर दिया था। इस बात का भी शायद बहुत कम लोगों को इल्म हो कि संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के लिए गीतकार शैलेन्द्र ने भी ख़ास तौर पर एक क्रांतिकारी गीत ‘जागा मराठा/आम ज़माना बदलेगा/उठा है तो तूफ़ान/वह आख़िर बंबई लेकर दम लेगा।’ लिखा था। जो उस हंगामाख़ेज़ माहौल में ख़ूब मक़बूल हुआ। इस आंदोलन और संघर्ष का ही नतीजा, मौजूदा महाराष्ट्र है।

अण्णा भाऊ साठे के कॉमरेड श्रीपाद अमृत डांगे, सुप्रसिद्ध पत्रकार आचार्य अत्रे, गीतकार शैलेन्द्र, लोकशाहीर अमर शेख़ और गव्हाणकर, फ़िल्म कलाकार बलराज साहनी, एके हंगल, ख़्वाजा अहमद अब्बास से किस तरह अनौपचारिक संबंध थे, यह भी किताब से मालूम चलता है। लेखक ने बाक़ायदा कई जगह इसका हवाला दिया है। मसलन अब्बास ने अपनी फ़िल्म ‘परदेसी’ में मराठी ग्रामीण जीवन को साकार करने के लिए, उस वक़्त अण्णा भाऊ साठे से काफ़ी मदद ली थी।

फ़िल्म के डायलॉग, ड्रेस और संगीत में उनका योगदान था। अण्णा भाऊ साठे का गीतकार शैलेन्द्र से गहरा याराना था। वे संघर्ष के साथी थे। किताब में इस बात का भी ज़िक्र है कि माटुंगा लेबर कैंप के गर्दिश के दिनों में शैलेन्द्र ने अण्णा भाऊ के साथ उसल-पाव खा कर दिन काटे थे। शैलेन्द्र ने अपने कई मशहूर गीतों की रचना अण्णा के चिरागनगर के घर में की थी। यही नहीं जब अण्णा का रूस के सफ़र पर जाने का तय हुआ, तो इस बात की सबसे ज़्यादा ख़ुशी शैलेन्द्र को ही हुई थी। उन्होंने उस वक़्त अपने जिगरी दोस्त अण्णा के लिए एक ओवरकोट भी सिलवाकर दिया था।

अण्णा भाऊ साठे मुंबई आने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से सक्रिय तौर पर जुड़ गए थे और उसके सांस्कृतिक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से भी उनका मज़बूत वास्ता रहा। उन्होंने मज़दूर आंदोलनों में हिस्सा लिया। कॉमरेड डांगे और दीगर कम्युनिस्ट लीडर से उनके  मधुर संबंध थे, यह बात भी किसी से छिपी नहीं। अण्णा भाऊ साठे के समूचे साहित्य का जायज़ा लें, तो उनके साहित्य में मार्क्सवादी सोच स्पष्ट दिखाई देती है। अपने साहित्य से समतामूलक समाज बनाना उनका प्रमुख लक्ष्य था। बावजूद इसके किताब में लेखक विश्वास पाटिल का यह बार-बार आग्रह है कि अण्णा भाऊ साठे किसी वाद या विचारधारा से प्रभावित नहीं थे। कमोबेश इसी तरह की टिप्पणी अनुवादक सुरेश माहेश्वरी ने भी की है।

यदि अण्णा भाऊ साठे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे और उन्होंने वर्गविहीन समाज बनाने के लिए काम किया, तो इसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है ? जबकि अण्णा भाऊ साठे ने ख़ुद एक जगह यह बात स्वीकारी है, ‘‘मैं और मेरा व्यक्तित्व मुंबई के जुझारू मज़दूर वर्ग ने गठित किया। मैं मिल का सांचा छोड़ साहित्य की ओर मुड़ा।’’ वहीं एक जगह वे कहते हैं, ‘‘हमारी लड़ाई कभी रुकनेवाली नहीं है। जब तक इस दुनिया में एक भी व्यक्ति भूखा है, तब तक हमारी लड़ाई जारी ही रहेगी।’’ (पेज-232)

‘लाल बावटा’ जो कम्युनिस्ट पार्टी का कलापथक दल था, उससे भी अण्णा भाऊ साठे जुड़े हुए थे। प्रस्तुत किताब से ही यह मालूम चलता है कि पार्टी से वास्ता रखने की वजह से ही वह जेल भी गए। माटुंगा लेबर कैंप में रहकर उनका साहित्यिक विकास हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी के ‘लोकसाहित्य’ और ‘लोकयुद्ध’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में वे नियमित लिखते थे। और यह बात अण्णा भाऊ ने कभी नहीं छुपाई कि उनके लेखन की प्रेरणा मार्क्सवादी, वामपंथी, प्रगतिवादी विचारधारा रही है। वे उस वर्णवादी व्यवस्था और पूंजीवाद के घोर विरोधी थे, जो इंसान को इंसान समझने से इन्कार करती है।

साल 1958 में बंबई में आयोजित पहले ‘दलित साहित्य शिखर सम्मेलन’ में उद्घाटन भाषण में जब उन्होंने यह बात कही ‘‘यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर नहीं टिकी है। अपितु वह दलितों, काश्तकारों और मज़दूरों के हाथों में सुरक्षित है।’’, तो कई यथास्थितिवादियों की भृकुटी टेढ़ी हुई। लेकिन वे कभी अपने विचारों से नहीं डिगे।

जहां तक किताब के अनुवाद का सवाल है, इसमें काफ़ी ख़ामियां हैं। कई जगह अनुवाद से लेकर वाक्यांश तक ठीक नहीं बने हैं। यह वाक्यांश लंबे अलग हैं। यही वजह है कि पढ़ते समय भाषा का प्रवाह भी नहीं बन पाता। अनुवादक ने कहीं-कहीं इतनी क्लिष्ट हिन्दी का प्रयोग किया है कि आम पाठकों को इसे समझने में दुश्वारी का सामना करना पड़ेगा।

मिसाल के तौर पर, ‘‘ग़रीब के हृदय में दातृत्व होता है। इस उक्ति को सार्थक करते हुए, उस ग़रीब, मासूम लड़की को भाऊ ने अपनी बेटी माना और टटपुंजिया संसार में एक और खानेवाला बढ़ गया।’’ (पेज-19, 20), ‘‘शाहिर अमर शेख़ तो उनके बारे में बोलते हुए गद्गद हो गए। उन्होंने कहा, ‘समाजवाद निर्माण करने के लिए मुझे जूझना है। इसके लिए मुझे जीना होगा।’ ऐसा अण्णाभाऊ मुझसे हमेशा कहते थे।’’ (पेज-352) एक बात और, किताब के आवरण के अलावा एक-दो और जगह ‘अण्णा भाऊ साठे’ लिखा है, तो बाक़ी किताब में ‘अण्णाभाऊ’ शब्द रचना है। यही नहीं मराठी भाषा में अक्सर ‘शाहीर’ लिखा जाता है, लेकिन किताब में सभी जगह ‘शाहिर’ लिखा गया है।

हां, 360 पेज की पेपरबैक किताब के दाम 595 रुपए भी, कुछ वाजिब नहीं। बावजूद इसके ‘दलित और स्त्री-जगत के श्रेष्ठ क़लमवीर अण्णा भाऊ साठे’, लोकशाहीर अण्णा भाऊ साठे पर एक ज़रूरी किताब है। अण्णा भाऊ को अगर जानना और उनके साहित्य को अच्छी तरह से समझना है, तो वाक़ई यह काम की किताब है। लेखक विश्वास पाटिल ने यह किताब लिखकर, महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। जिसके लिए वह मुबारकवाद के हक़दार हैं।

(जाहिद खान रंगकर्मी और टिप्पणीकार हैं।)


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