तेलंगाना में मोदी-आत्मस्वीकृति क्यों और क्या क्या रंग खिलाएगी ?

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अड़तालीस घंटे बीत चुके हैं। देश के सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शिखरतम कॉर्पोरेटपति मुकेश अंबानी और गौतम अडानी के कालेधन का खुलासा किये जाने के बावजूद अभी तक सरकारी एजेंसियां खामोश बैठी हुई हैं। दो रोज़ पहले ही मोदी जी ने तेलंगाना की अपनी एक चुनाव सभा में कहा था कि अंबानी और अडानी टेंपो से बोरों में भर कर कांग्रेस को नोट पहुंचा रहे हैं। इसीलिए कांग्रेस और राहुल गांधी ने दोनों उद्योगपतियों की आलोचना बंद कर दी है। स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा ऐसा ऐतिहासिक भंडाफोड़ किए जाने पर भी ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसी शक्तिशाली संस्थाओं ने कॉर्पोरेट द्वय और कांग्रेस सहित राहुल गांधी के यहां कालेधन को लेकर अभी तक कोई छापेमारी नहीं की है।

सरकारी क्षेत्रों में हैरतभरी चुप्पी फैली हुई है। यदि नौकरशाही का मेरुदंड साबुत रहा होता तो प्रधानमंत्री से भी टेंपो और बोरों का प्रमाण सहित विवरण मांगा गया होता। चुनाव आयोग भी पूछताछ करता। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं घटा। भाजपा का भी कोई आधिकारिक बयान सामने नहीं आया है। दूसरी तरफ राहुल गांधी सहित कांग्रेसी प्रवक्ताओं के तेवर आक्रामक हैं और कार्रवाई करने के लिये ललकार रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी स्वयं भी अगले दिन इस मुद्दे पर लगभग खामोश ही रहे। इस हैरतअंगेज़ मुद्दे पर गोदी मीडिया की ख़ामोशी भी लाज़वाब है।

वास्तव में, भारत का इतिहास प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी को विकास -प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज़ करेगा, यह तो विवादास्पद है। लेकिन, निःसंदेह इतिहास मोदी जी को अम्बानी+अडानी कॉर्पोरेट घरानों के पास कालेधन की आत्मस्वीकृति के लिए याद रखेगा। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सम्भवतः नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने सार्वजनिक मंच से देश के दो शिखर कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के नाम लेकर उनके कालाधन को सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के साथ नत्थी किया है।

मोदी जी ने चुनावी माहौल में अनायास ही जहां बुनियादी सच को उघाड़ दिया है, वहीं वे और उनकी सरकार भी सवालों से बुरी तरह से घिर गई है; सत्ता प्रतिष्ठान और नौकरशाही की साख को दांव पर चढ़ा दिया है। दिलचस्प यह कि मुकेश अंबानी और गौतम शांतिलाल अडानी, दोनों ही मोदी जी के चहेते माने जाते है। एक प्रकार से तीनों ही परस्पर सरपरस्त हैं। लोकसभा में राहुल गांधी इस मुद्दे को भी उठा चुके हैं। एक लंबे अरसे से राहुल मोदी+अडानी रिश्तों की अच्छी खासी खबर सार्वजनिक मंचों पर भी लेते आ रहे हैं। दोनों यात्राओं में भी राहुल ने अपने इस सिलसिले को जारी रखा था। चुनावी भाषणों में तो राहुल मोदी+ अडानी रिश्तों की परत दर परत छिलाई करते आ रहे हैं।

यह इत्तफाक है कि प्रधानमंत्री मोदी और उद्योगपति अंबानी व अडानी, तीनों ही गुजरात से हैं। तीनों की अपने अपने क्षेत्रों में अभूतपूर्व श्रीवृद्धि तकरीबन समानांतर हुई है। यह संयोग हो सकता है, या योजनाबद्ध सिलसिला, यह गहन अध्ययन और गंभीर जांच पड़ताल का विषय है। इसकी जिम्मेदारी भावी गैर- भाजपा सरकार पर छोड़ देनी चहिए। लेकिन, मोदी जी को इस बात का श्रेय निश्चित रूप से दिया जाना चाहिए कि उन्होंने हताशा+बदहवासी+ पगलाहट+ खुंदक में ऐसी कुत्सित सच्चाई को उजागर कर दिया है जोकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोशीदा रही है।

यह सर्वविदित है कि पूंजीवादी उदार लोकतंत्र में पूंजीपतियों की भूमिका रहती है। यह सार्विक सत्य है। भारत भी अपवाद नहीं है; नेहरू काल से मोदी काल तक यह सिलसिला चलता आ रहा है। मुझे याद है,1969 में महात्मा गांधी की शताब्दी मनाई गई थी। उस अवसर एक भव्य स्मारिका प्रकाशित हुई थी। उसका आरंभिक आलेख प्रसिद्ध उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला का था। उन्होंने उसमें यह गिनाया था कि बिड़ला परिवार ने गांधी जी और कांग्रेस की कब-कब कितनी आर्थिक मदद की थी। लेकिन, उन्होंने यह नहीं बताया कि उनके औद्योगिक घराने ने कांग्रेस सरकारों से कितना लाभ कमाया था।

बिड़ला घराने का तो दशकों तक औद्योगिक क्षेत्र में एकाधिकार बना रहा था। बजाज, डालमिया, मूंदड़ा जैसे कुछेक घरानों ने कांग्रेस सरकारों से काफी लाभ अर्जित किया था। अंबानी परिवार का उत्थान भी कांग्रेस शासन में ही हुआ था। राजनैतिक गलियारों में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को अंबानी परिवार का करीबी माना जाता रहा है। इंदिरा काल में कांग्रेस के ही युवा तुर्क मंडली (चंद्रशेखर, कृष्णकांत, मोहन धारिया, अर्जुन अरोड़ा, अमृत नाहटा आदि) ने बिड़ला घराने के खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

सांसद शशि भूषण ने बिड़ला जी की उस कोठी के अधिग्रहण के लिए अनशन किया था जहां गांधी जी की हत्या हुई थी। आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को झुकना पड़ा और 30 जनवरी मार्ग पर स्थित बिड़ला निवास का अधिग्रहण किया गया था। कुछ लाख मुआवज़े के तौर पर बिड़ला जी को दिए भी गये थे। सभी दल पूंजीपतियों से धन लेते हैं और अपनी सियासत चलाते हैं; अमेरिका समेत सभी देशों में यही चलन है। धन के बदले में उद्योगपतियों को विभिन्न प्रकार से उपकृत किया जाता है, किसी को कम, किसी को ज्यादा। हरेक दल के अपने अपने चंद चहेते पूंजीपति होते हैं। इसका आधार एक सीमा तक विचारधारा भी होती है।

मिसाल के तौर पर, टाटा, बिड़ला, बजाज, अंबानी जैसे घरानों को कांग्रेस शासन के करीब माना जाता रहा है। इसके विपरीत दोयम श्रेणी के पूंजीपति तत्कालीन जनसंघ के करीब रहते रहे हैं। क्षेत्रीय पूंजीपति या उद्योगपति उभरते क्षेत्रीय दलों के इर्द-गिर्द जमा होते रहे हैं। दक्षिण के अधिकांश पूंजीपति द्रविड दलों के साथ रहे हैं।

सारांश में, पूंजीवादी लोकतंत्र में निजी पूंजी की भूमिका रहती ही है। समस्या तब पैदा होती है जब पूंजी राजनीतिक उद्देश्यों पर हावी होने लगती है और विचारधारा हाशिए पर चली जाती है; राजनीतिक दल और निर्वाचित प्रतिनिधि पूंजी घरानों के एजेंट बनने लगते हैं; पूंजीपति राजनीति और राजसत्ता को हांकने लगते हैं। ऐसी स्थिति में राष्ट्र राज्य स्वतंत्र न रह कर कॉर्पोरेट राज्य में तब्दील होने लग जाता है और कॉर्पोरेट एजेंडा की पूर्ति का माध्यम बन जाता है। जरूरत इस बात की है कि पूंजीपतियों को राज्य और राजनीति पर कभी भी हावी होने नहीं दिया जाए। इस बाबत एक दो निजी अनुभवों को मैं बांटना चाहूंगा।

बीती सदी के अंतिम दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और उनके सहयोगी काबीना मंत्री अर्जुन सिंह के बीच तनातनी मची हुई थी। 6 दिसंबर, 92 को बाबरी मस्जिद को गिराया जा चुका था और हर्षद मेहता घूसकांड उजागर हो चुका था। राव साहब पर इस्तीफा देने के लिए दबाव बढ़ रहा था। ऐसी पृष्ठभूमि में, मैं अर्जुन सिंह जी की कोठी पर पहुंचता हूं। पता चलता है कि धीरूभाई अंबानी मंत्री जी के साथ वार्ता कर रहे हैं। पंद्रह मिनट के इंतजार के बाद अंबानी जी बाहर निकलते हैं।मंत्री सिंह उन्हें अपने कमरे की दहलीज से ही विदाई देते हैं। बाहर खड़े दो सहायक उन्हें कंधा पकड़ कर पोर्च में खड़ी कार में बिठाते हैं। मैं अंदर जाकर मंत्री जी पूछता हूं कि अंबानी जी का कैसे आना हुआ? अर्जुन सिंह जी मुस्कराते हुए कहने लगे, ”सेठ जी चाहते थे कि मैं राव साहब के साथ सुलह कर लूं। उनके बाद आप ही प्रधानमंत्री बनेंगे।” मैं पूछता हूं, ”आपने क्या कहा?” वे कहने लगे, ”सेठ जी, आप उद्योग लगाएं, व्यापार करें। राजनीति हमारा क्षेत्र है, हमें करने दें।”

नेहरू जी से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक कोई भी प्रधानमंत्री पूंजीपति के साथ गलबहियां करते हुए चित्र में नहीं मिलेंगे। मुझे याद है, एक बार मुंबई की एक सभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ एक उद्योगपति ने फोटो फ्रेम में आने के लिए कुछ छूट लेने की कोशिश की थी। अटल जी असहज दिखाई दिए और कुछ पीछे हट गए थे। इस अवसर पर मैं मौजूद था। राजीव गांधी ने लंबे समय तक अंबानी जी को मिलने का समय नहीं दिया था। उन्होंने मिलने के लिए कई जुगतें लगाई थीं। इसे लेकर राजनीतिक गलियारों में कई तरह की चर्चाएं भी घूमती रहीं। व्यक्तिगत रूप से इंदिरा जी भी पूंजीपतियों के साथ चित्र खिंचवाने से दूर रहा करती थीं। नेहरू जी की बात तो सबसे अलग थी। बिड़ला सहित अन्य पूंजीपतियों का उन तक पहुंचना आसान नहीं था।

इसके विपरीत हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी जी ने अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों को पछाड़ दिया है। उनकी पूंजीपतियों, विशेषतः अम्बानी व अडानी, के साथ घरापे की अनेक तस्वीरें उपलब्ध हैं। दोनों पूंजीपतियों व परिवार के समक्ष उनकी काया भाषा बिछी-बिछी दिखाई देती है। उस समय उन्हें यह याद नहीं रहता है कि वे विशाल भारत के प्रधानमंत्री हैं। अडानी के विमान का उपयोग करते रहना और अम्बानी के जलसों में मुक्तभाव से शामिल होना, उनके शिखरतम पद की मान-मर्यादा के अनुकूल नहीं है। लेकिन, मोदी जी का यह सार्वजनिक कोर्पोरेट प्रेम से यही प्रतीत होता है कि पूंजीपति उन्हें हांक रहे हैं; मुख्यमंत्री काल से प्रधानमंत्री काल तक का सफर कॉर्पोरेट पूंजी संरक्षण में चलता आ रहा है।

यह भी किसी से छिपा नहीं है कि कॉर्पोरेट घरानों द्वारा संचालित मीडिया मोदी जी के छवि निर्माण में चौबीसों घंटे तैनात रहता है। बावजूद अम्बानी+अडानी परस्पर सरपरस्ती के, मोदी जी ने एकाएक अपने विश्वासपात्र संरक्षकों का नाम क्यों उजागर किया है? क्या मोदी जी अपना मानसिक संतुलन खोते जा रहे हैं? क्या उन्हें पराजय अवश्यसंभावी लगने लगी है ? क्या मोदी जी ने स्वयं को सत्ता में बनाये रखने के लिए ज़ोख़िम भरा दांव खेला है? क्या यह दांव उनकी दूरगामी रणनीति का शस्त्र तो नहीं है? क्या ऐसा करके वे मतदाताओं की हमदर्दी बटोर लेंगे और कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया महागठबंधन की स्थिति को नमनीय बना देंगे?

इन सवालों का ज़वाब तो चुनाव परिणाम ही देंगे। परन्तु इतना तय है कि इस कृत्य से उनकी बदहवासी ही उजागर हुई है। राजनीतिक दलों व नेताओं और पूंजीपतियों के बीच मौज़ूद परम्परागत अलिखित समझदारी भी भंग हुई है। निश्चित ही मोदी जी ने इस विश्वास को तोड़ कर भविष्य के संबंधों को अनिश्चित व अविश्वनीय बना दिया है। मोदी -कारनामा से कोई नई वैकल्पिक व्यवस्था या संबंध जन्म लेंगे, फिलहाल संदिग्ध लगता है।

मोदी-खुलासा से पैदा विवाद जल्दी ही समाप्त हो जायेगा, इसकी सम्भावना कम है। अब यह राजनीतिक के साथ-साथ कानूनी भी बन गया है; कालेधन की मौजूदगी और सप्लाई, दोनों ही कृत्य आपराधिक श्रेणी के हैं। कोई भी व्यक्ति अदालत जाकर मोदी, धनकुबेरों और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ याचिका दायर कर सकता है। एक तरफ तो मोदी जी दावा करते रहते हैं कि 2016 में नोटबंदी के बाद कालाधन की आमद ख़त्म हो गई है, लेकिन उनके ताज़ा खुलासे ने उन्हें ही कठघरे में खड़ा कर दिया है।

नोटबंदी -प्रकरण को और अधिक संदेहास्पद व विवादास्पद बना दिया है। मोदी-खुलासे से अंतरराष्ट्रीय जगत में भी भारत सरकार की छवि प्रभावित हो सकती है। राजनयिक क्षेत्र प्रधानमंत्री को अविश्वसनीय दृष्टि से देख सकते हैं! इतिहास में हुकूमतें इक़बाल से चलती आई हैं। मगर, प्रधानमंत्री मोदी जी ने अपनी ही ‘मोदी -हुक़ूमत का इक़बाल’ नेस्तनाबूद कर दिया है। भविष्य में किसी भी दल के प्रधानमंत्री के लिए ’इक़बाल बहाली’ चुनौतीपूर्ण रहेगी।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
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10 days ago

बहुत बेबाकी से लिखा है आपने. इतिहास इस कालखण्ड को सराहना के साथ तो स्मरण नहीं ही करेगा.