धर्मनिरपेक्षता नहीं ‘शर्म निरपेक्षता’ है मोदी का राजधर्म

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18 वीं लोकसभा के चुनावों के तीन चरण पूरे हो चुके हैं। लोकसभा की  543 में से 283 सीटों पर मतदान हो चुका है। शेष का पहली जून तक चार चरणों में पूरा होगा। किस दल को कितनी  सीटें मिलेंगी या त्रिशंकु लोकसभा होगी, यह  भविष्यवाणी करना इस लेख का विषय नहीं है। इस लेख का सीधा-सादा विषय है कि  हमें तो  ‘ शर्म निरपेक्ष ‘ बनने में गर्व है। भारत की सत्ताधारी पॉलिटिकल क्लास ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ का परित्याग  कर ‘शर्म -निरपेक्ष धर्म’ का परिपालन शुरू कर दिया है। अब  शर्म निरपेक्ष  ‘राजधर्म ‘ बन चुका  है!

अब सोशल मीडिया पर वीडियो और पोस्ट घूम रहे हैं। कल रात को ही इस लेखक ने देखा था कि उत्तर प्रदेश के संभल निर्वाचन क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदाय के मतदाताओं को पोलिंग बूथ से खदेड़ा जा रहा है। इतना ही नहीं, समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी जियाउर्रहमान बर्क की  पुलिस के साथ कहा -सुनी चल रही है। इससे पहले एक और खबर आई थी  कि गुजरात की गांधीनगर सीट के गैर-भाजपाई प्रत्याशियों पर नाम वापस लेने का दबाव बनाया गया था। लेकिन, यह चाल सफल नहीं हुई। प्रयास था कि सूरत की तर्ज़ पर पर गांधीनगर से भाजपा प्रत्याशी व गृहमंत्री अमित शाह को मतदान पूर्व ही  ‘विजयी’ घोषित करवा दिया जाए। लेकिन, कांग्रेस सहित अन्य उम्मीदवारों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और शाह जी नायाब ‘तोहफ़े’ से महरूम हो गए। 

पिछले ही सप्ताह इंदौर की सीट को लेकर भी पोस्ट वायरल हुई थी। पोस्ट के अनुसार, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ़ इंडिया (एस. यू. सी.आई.) के उम्मीदवार पर भी दबाव डाला गया था। इतना ही नहीं, उनके प्रस्तावक पर भी दबाव बनाया गया था कि  वे नॉमिनेशन फॉर्म पर अपने हस्ताक्षर से मुकर जाएं। भाजपा ने शेष अन्य निर्दलीय 13 उम्मीदवारों को तो नाम वापस लेने के लिए कथित रूप से तैयार भी  कर लिया था। लेकिन, एस. यू.सी. उम्मीदवार कॉमरेड अजीत  सिंह  पंवार और प्रस्तावक ने  भाजपा के सामने झुकने या बिकने से इंकार कर साम्यवादी प्रतिबद्धता का परिचय  दिया।  इस तरह से  भाजपा की कुत्सित योजना विफल हो गई। कांग्रेस ने उम्मीदवार ने विवादास्पद स्थिति में अपना नाम वापस ले लिया है। अब 13 मई को इस सीट पर मतदान होगा। 

गुजरात में सूरत सीट से भाजपा प्रत्याशी की विजय-घोषणा की पृष्ठभूमि से सभी परिचित हैं। किसने सूरत सीट पर बग़ैर लड़े भाजपा-विजय के नाटक की पटकथा लिखी थी, यह स्वयं में हैरतअंगेज़ है। चंडीगढ़ के मेयर चुनाव के दौरान मची धांधली से पटकथा-लेखन का सिलसिला शुरू होता है। खजुराहो में इसका पूर्वाभ्यास किया जाता है। इसका सफल मंचन सूरत में होता है। लेकिन, इसकी सफल पुनरावृति  गांधीनगर और इंदौर में  नहीं हो पाती है। भाजपा के लिए यही दुखती रग  है। वैसे ओडिशा में भी कोशिश हो चुकी है। और कुछ अन्य क्षेत्रों में भी। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा की ऐतिहासिक उपलब्धि यह है कि उसने  ‘शर्म निरपेक्ष धर्म’ को अपना लिया है या उसे अघोषित ‘राजधर्म’ में तब्दील कर दिया है। चुनाव आयोग के स्पष्ट निर्देशों और आचार सहिंता के बावज़ूद मोदी जी लगातार इसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं।

कल भोपाल में अपने चुनावी भाषण में  मतदाताओं के ध्रुवीकरण की रणनीति पर चलते हुए उन्होंने  फिर  मतदाताओं से कह डाला कि यदि विपक्ष जीतता है तो अयोध्या मंदिर पर ‘बाबरी ताला’ दाल देगा और कश्मीर में फिर से अनुच्छेद 370  लागू कर देगा। इसलिए भाजपा को 400 सीटों पर विजयी बनाएं। इतना ही नहीं, मोदी जी की बौखलाहट उबलती हुई थी  जब उन्होंने खरगोन के मतदाताओं से कह डाला “ भारत इतिहास के नाज़ुक मोड़ पर है। आप लोगों को अब तय करना होगा कि क्या आपका ‘वोट जिहाद’ के लिए होगा या ‘राम राज्य’ के लिए।

मोदी जी की यह सरासर उन्मादी चुनावी अपील है। क्या यह संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के अनुसार है? प्रधानमंत्री ने संविधान की शपथ ली है। बावजूद इसके वे साम्प्रदायिकता से भरे भाषण देते रहते है। इससे पहले वे पिछले महीने राजस्थान के बांसवाड़ा और टोंक में भी बेसिरपैर के भाषण दे चुके हैं। चुनाव आयोग में भी शिकायत हो चुकी है। लेकिन, धार्मिक-मज़हबी दृष्टि से विभाजक भाषण देने से अब भी मोदी जी बाज़ नहीं आ रहे  हैं।  क्या उन्हें अपने पद की गरिमा की चिंता नहीं है? क्या वे नहीं जानते कि प्रधानमंत्री का प्रत्येक शब्द राष्ट्र के मानस को गढ़ता है। क्या झूठ और भड़काऊ भाषणों के आधार पर वे भारत की वर्तमान और भावी पीढ़ी का निर्माण करना चाहते हैं?

किसी समय भारत में ‘बूथ लूट’ हुआ करती थी। लेकिन, भाजपा राज में ‘प्रत्याशी लूट’ का कारोबार शुरू हो गया है। क्या चंडीगढ़ , खजुराहो, सूरत, इंदौर, गांधीनगर जैसी सीटों की घटनाएं सिर्फ़ ‘संयोग’ मात्र हैं? क्या ऐसी घटनाओं के माहौल में लोकतंत्र व गणतंत्र स्वस्थ रह सकेंगे? इन अलोकतांत्रिक घटनाओं के मद्देनज़र, देश का चुनाव आयोग शुतुरमुर्ग बना हुआ है। मरियल दिखाई दे रहा है। मुख्य चुनाव आयुक्त को याद आना चाहिए कि वे जिस आसन पर बैठे हैं, वहां कभी टी. एन. शेषन बैठ चुके हैं जिन्होंने चुनाव आयोग को अस्तित्ववान बनाया था। आप इतिहास में कायरतम और पक्षपाती के रूप में दर्ज़ होते प्रतीत होते हैं। अभी चुनाव के चार चरण शेष हैं। शर्म-निरपेक्षता को त्याग कर  आयोग को जीवंत और सत्य व धर्मनिरपेक्ष बनाइये।

जब भाजपा 400 पार का नारा उछाल चुकी है। विपक्ष को आतंकित किया जा चुका है। अरविन्द केजरीवाल, हेमंत सोरेन सहित अनेक नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया है। विपक्ष की आर्थिक कमर टूट चुकी है। भगवान् राम की अलौकिक और हिंदुत्व की  लौकिक शक्ति से लैस होने के बावज़ूद मोदी जी और उनकी पार्टी को अलोकतांत्रिक हथकंडों की ज़रुरत क्यों पड़ रही है? वे हिन्दू समुदाय के बहुमत का दावा करते हैं, तकरीबन एक दर्जन राज्यों में भाजपा और समर्थित सरकारें हैं। गोदी मीडिया का प्रचण्ड समर्थन भी प्राप्त है। उनकी मुट्ठियों में अकूत संसाधन क़ैद है।  फिर भी  मोदी जी भयभीत क्यों होते जा रहे हैं? क्यों ऊंटपटांग बोलते जा रहे हैं? क्या वे अपनी वाणी पर संयम नहीं रख सकते हैं? क्यों प्रधानमंत्री मोदी ने लोकतंत्र की न्यूनतम संवैधानिक मर्यादा और सार्वजनिक मंचों पर  शब्दों की लोकलाज को तिलांजलि दे दी है? क्या वे स्वयं की जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हैं? उनका विश्वास डगमग कर रहा है? उनकी काया भाषा पर उभरती हुई लकीरें और भाषण अदायगी में हड़बड़ी कुछ और ही कहानी कह रही है। 

माना, आपकी आस्था धर्मनिरपेक्षता व बहुलतावाद में नहीं है। संविधान में भी संदेहास्पद है। लेकिन, झूठ और शर्मविहीनता में आस्था क्यों बढ़ती जा रही है? कोई तो वज़ह होगी? क्या आप असत्य व निर्लज्जता के बल पर चुनाव जीतना चाहते हैं? आप जीत भी जायेंगे। लेकिन, उसका अंतिम अंजाम क्या होगा, सोचा है आपने? बीती सदी के चौथे दशक में हिटलर और मुसोलिनी को भी असत्य व निर्लज्जता का अहंकार था। हिटलर के चहेते प्रचारमंत्री गोएबल्स ने असत्य को निरंकुशता के साथ सत्य में बदल डाला था। हिटलर-शासन निर्लज्जता,असत्यता और जातीय ध्रुवीकरण की विकृत पराकाष्ठ था। क्या वह दीर्घजीवी सिद्ध हो सका? याद रखें, असत्य और उसके वाहक कभी अमर नहीं होते हैं। इतिहास में ऐसे किरदार  विकास नायक के रूप में नहीं, विनाश खलनायक के रूप में याद किये जाते हैं। ऐसे ही शासक ‘शर्म -निरपेक्षता’ को राजधर्म के तौर पर प्रचारित करते रहते हैं। याद रखें, इतिहास ने अशोक व अक़बर को ही ‘महान’ माना   है, औरंगज़ेब या बाबर को नहीं। इतना तो विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि असत्य व निर्लज्जता के पंख लगाकर महानता की सीमाओं को चूमा नहीं जा सकता।  

भारतीय लोकतंत्र, संविधान और गणतंत्र पर रहम करते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी  फैसला करें – आप इतिहास में किस किरदार के रूप में स्वयं को याद किया जाना पसंद करेंगे? फैसला करते समय, इस सच्चाई को भी याद रखें कि राजसत्ता द्वारा रचित असत्य व निर्लज्जता किसी भी समाज व राष्ट्र का स्थायी चरित्र नहीं बन सकती है। 

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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