जम्मू-कश्मीर में पत्रकारीय स्वतंत्रता नहीं है : अनुराधा भसीन

Estimated read time 1 min read

(अनुराधा भसीन ‘कश्मीर टाइम्स’ की प्रबंध संपादक हैं। वह ‘अ डिस्मेंटल्ड स्टेट : द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ कश्मीर आफ्टर आर्टिकल 370’ पुस्तक की लेखिका हैं जो हार्पर कॉलिन्स इंडिया ने 2022 में प्रकाशित की थी। इसके अलावा भी उन्होंने काफी भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों के लिए लेखन किया है। इस समय वह अमेरिका के  स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में जेएसके जर्नलिज़म फ़ेलो हैं। अमित सेनगुप्ता ने उनसे यह साक्षात्कार लिया है-संपादक)

प्रश्न: घाटी में चुनावी परिदृश्य कैसा है? शांति और नॉर्मल्सी स्थापित करने आदि के बड़े दावे करने के बावजूद भाजपा घाटी में क्यों नहीं लड़ रही है? 

अनुराधा भसीन: संभवत: घाटी में पहली बार हम संसदीय चुनाव को लेकर ज्यादा उत्साह देख रहे हैं और इसका कारण जम्मू एवं कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद से प्रतिनिधित्व और लोकतान्त्रिक स्पेस का अभाव होना है। विधान सभा चुनाव 2014 से नहीं हो रहे हैं। राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में अवनत किया गया है और लद्दाख बिना विधानसभा के रह गया है और राजनीतिक आवाज़ें दबा दी गई हैं। 2024 के चुनावों को, खासकर घाटी में, लोगों के अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों और राजनीतिक दलों के लिए अपने खोए स्पेस को फिर से हासिल करने के प्रयासों के रूप में देखा जा सकता है। 

इस पर आश्चर्य ही हुआ कि भाजपा, जो अतीत में कश्मीर में चुनाव लड़ती रही है, ने घाटी में एक भी प्रत्याशी नहीं खड़ा किया! यह इसलिए भी आश्चर्यजनक है कि पिछले पांच सालों में उन्होंने कश्मीर में अपना आधार बढ़ाने और कश्मीर के राजनीतिक हालात को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने की हर तरकीब आजमाई है। उन्होंने प्रमुख राजनीतिक दलों और काँग्रेस को जम्मू एवं कश्मीर में गिरफ्तार करने से लेकर “भ्रष्ट या आतंकवादी समर्थ” करार देकर बदनाम करने तक के रास्ते अपनाए हैं। उन्होंने राजनीतिक दलों को तोड़ा है, इन पार्टियों के सदस्य छीने हैं और कई प्रॉक्सी समूह तैयार किए हैं। 

सबसे महत्वपूर्ण, असाधारण रूप से क्षेत्रों का परिसीमन भाजपा को मदद करने के लिए किया गया लगता है। इस सब के बावजूद उन्हें कोई सीट जीतने – यहाँ तक कि सम्मानजनक संख्या में वोट पाने – का विश्वास नहीं है क्योंकि उन्हें पता है कि घाटी में ही नहीं बल्कि ‘हिन्दू’ क्षेत्र जम्मू और लद्दाख में भी उनके खिलाफ बहुत आक्रोश है। 

यही वजह है कि उन्होंने घाटी में प्रॉक्सी उम्मीदवारों को समर्थन करने का निर्णय लिया है। वह फिर भी इतने नर्वस हैं कि फिजूल के बहानों पर अनंतनाग-रजौरी क्षेत्र, जो खास भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिए बनाया गया, में मतदान की तारीख में बदलाव किया गया। 

विडंबनात्मक रूप से यह सब जम्मू एवं कश्मीर में 2019 के बाद नॉर्मल्सी, सुधार और तरक्की के उनके नैरेटिव के विपरीत है। देश के सभी चुनावों में प्रचार के दौरान कश्मीर की भूमिका रही है। लेकिन भाजपा के लिए आज कश्मीर में अपने झूठ पर विश्वास कर पाना मुश्किल हो रहा है। इसीलिए वह प्रॉक्सी के पीछे छिप रही है और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और इंडिया गठजोड़ के खिलाफ खुद लड़ने से मना कर रही है।

प्रश्न: भाजपा प्रमुख क्षेत्र अनंतनाग-रजौरी में क्यों नहीं लड़ रही? यह प्रॉक्सी कौन हैं? क्या लोगों में इनका कोई सामाजिक विश्वसनीयता और राजनीतिक आधार है? 

अनुराधा भसीन: कारण वही है जो बाकी घाटी में है। इसके बावजूद, इस क्षेत्र का मामला अलग है। जैसा कि मैंने पहले कहा, यह खास भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए बनाया गया, कनेक्टिविटी, भौगोलिक स्थल और सांस्कृतिक  अनुरूपता आदि बातों को नजरंदाज करते हुए।

ऐसी अटकलें थीं की भाजपा कश्मीर क्षेत्र में पहला भगवा झंडा जम्मू एवं कश्मीर के दो बेमेल क्षेत्रों को मिलाकर, यहाँ लगाना चाहती है। इस क्षेत्र की सीमाएं इस तरह बनाई गई हैं कि यह न केवल कश्मीरी मुस्लिम एकरूपता को कमजोर करती हैं, बल्कि सुनिश्चित करती हैं कि इसमें हिंदुओं (रजौरी-पुंछ से हिन्दू पहाड़ी और अनंतनाग से कश्मीरी पंडित), मुस्लिम पहाड़ियों और बंजारा गुज्जर-बकरवाल समुदाय (सभी मुस्लिम) की अच्छी-खासी संख्या हो। 

रजौरी और पुंछ में पहाड़ी और गुज्जर समुदाय आमने-सामने रहे हैं। भाजपा ने पहाड़ियों को अनुसूचित जाति दर्जा देकर इस खाईं को और चौड़ा किया है। पहले सिर्फ गुज्जरों और बकरवालों को ही यह दर्जा था। ऐसा करने के पीछे खुला उद्देश्य पहाड़ी वोट बैंक छीनना था जो जमीन पर कारगर साबित नहीं हो पाया है। 

2019 के बाद भाजपा सरकार की गतिविधियों ने चारों ओर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मताधिकार से वंचित हो जाने की भावना पैदा की है और कितना भी फर्जी तुष्टीकरण किया जाए, काम नहीं आने वाला। वैसे देश भर के लोग व्यापक बेरोजगारी और ऐसे विकास के खतरे से जूझ रहे हैं जो लोगों के लिए कम लाभकारी है और बेहद शोषणकारी है। यह इस क्षेत्र पर के लिए भी सच है। 

प्रॉक्सी ग़ुलाम नबी आजाद की डीपीएपी, जिसकी कोई महत्वपूर्ण उपस्थिति नहीं है, और जे एंड के नेशनलिस्ट फ्रन्ट जैसे अन्य समूह हैं। अपनी पार्टी (पूर्व पीडीपी मंत्री अल्ताफ बुखारी के नेतृत्व में) भी है। वैसे इस क्षेत्र में सीधी लड़ाई पीडीपी की महबूब मुफ्ती और नेशनल कान्फ्रेन्स के मियां अल्ताफ के बीच लगती है, अपनी पार्टी प्रत्याशी एक पहाड़ी लेखक से राजनीतिज्ञ बने ज़फ़र इकबाल मनहास का भी थोड़ा प्रभाव है लेकिन मुकाबले में उक्त दो महारथियों की तुलना में कुछ खास नहीं है। महबूबा और मियां अल्ताफ का बहुत प्रभाव और सम्मान है। 

इसलिए इस बात की आशंका थी कि भाजपा, जो यहाँ अपनी पार्टी के पीछे अपनी ताकत लगा रही है, चुनाव टालकर जोड़तोड़ की कोशिश कर सकती है। 

प्रश्न: इंडिया गठजोड़ में दरार क्यों पड़ी? 

अनुराधा भसीन: मैं ठोस कारण नहीं बता सकती, अनुमान ही बता सकती हूँ। एनसी-पीडीपी की पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता के अलावा तुच्छ अहमों की भी भूमिका है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है और ऐसा नहीं होना चाहिए था लेकिन मुझे लगता है कि पीपल्स अलायंस फॉर गुपकर डेक्लरेशन, जो इंडिया गठजोड़ का हिस्सा है, के अन्य सदस्यों से चर्चा किए बिना ओमर अब्दुल्लाह के घाटी से तीन प्रत्याशियों की घोषणा के बाद मामला बिगड़ गया। 

प्रश्न: महबूबा मुफ्ती के अनंतनाग में जीतने की संभावना है? 

अनुराधा भसीन: मुकाबला कड़ा लग रहा है और मुझे लगता है कि मियां अल्ताफ और महबूबा दोनों मजबूत प्रत्याशी हैं। मियां अल्ताफ गुज्जर बकरवाल समुदाय में बेहद सम्मानित माने जाते हैं जो उन्हें एक आध्यात्मिक नेता के रूप में भी देखते हैं। दूसरे समुदायों में भी उनका सम्मान है। महबूबा अनंतनाग और पुलवामा (हालांकि 2019 में वह यहाँ से संसदीय चुनाव में हार गई थीं – जिसे उनके नेतृत्व में भाजपा-पीडीपी सरकार के खिलाफ आक्रोश से जोड़ा गया था) में बहुत मजबूत हैं। पीडीपी ने रजौरी– पुंछ में भी पैंठ बनाई है और पार्टी का बंजर और पहाड़ी आबादियों में भी कुछ प्रभाव है। 

लेकिन, बहुत कुछ कई कारकों पर निर्भर करेगा। अपनी पार्टी किसके वोट काटेगी और कितना वोट काटेगी? भाजपा कोई जोड़तोड़ करेगी? अनंतनाग में मतदान प्रतिशत क्या होगा जहां अतीत में चुनाव के बहिष्कार के आह्वान होते रहे हैं।  वर्तमान परिदृश्य में तो बहिष्कार की कोई बात नहीं कर रहा, लेकिन यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि यह राज्य का सर्वाधिक सैन्यीकृत क्षेत्र है।

क्या यह सच है कि जम्मू के हिन्दू भाजपा से नाखुश हैं? बाहरी लोगों और जमीन छीने जाने की आशंकाएं हैं? क्या यह सच है? 

हाँ, यह सच है। जब उन्होंने जमीन सम्बधी कानूनों के ढांचे को इस तरह से बदल दिया कि पिछली व्यवस्था में जो जमीन के मालिक थे वह अतिक्रमणकारी हो गए, कॉर्पोरेट की तरफ से ज़मीनें हड़पने और विकास परियोजनाओं के लिए जबरन कब्जों ने कई लोगों को विस्थापित किया है। राज्य के जमीन संबंधी कानून बिल्कुल अलग थे। ऐसी भी आशंकाएं हैं कि सरकारी नौकरियों और व्यवसायिक ठेके बाहरी लोगों को दिए जाने से जम्मू के लोग हाशिये पर चले जाएंगे। जम्मू में यह भय ज्यादा दर्शनीय है क्योंकि किसी भी तरह से यहाँ आने वाली आबादी का इस क्षेत्र में अधिक प्रभाव पड़ेगा क्योंकि यह क्षेत्र भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से बाकी देश के ज्यादा करीब है और यह शांतिपूर्ण भी है। 

प्रश्न: लद्दाख क्यों विरोध कर रहा है? क्या भाजपा लद्दाख में हारेगी? 

अनुराधा भसीन: आधे लद्दाख ने अनुच्छेद 370 हटाने का उत्सव मनाया था, लेकिन वहाँ आक्रोश और तीखा है। उन्हें 6ठीं अनुसूची के अनुसार सुविधाएं और सुरक्षा देने का वादा किया गया था लेकिन भाजपा पीछे हट गई। राज्य के बाकी हिस्से के मुकाबले वह ज्यादा मताधिकार वंचित हुए हैं। इसके अलावा इलाके का भौगोलिक क्षेत्र देखिए तीन लाख लोग 60 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले सब ज़ीरो तापमान में रह रहे हैं। लद्दाख में ज़िंदगी काफी मुश्किल है और छोटी-छोटी व बिखरी आबादी यह बात अच्छी तरह से जानती है कि उनकी ज़िंदगियाँ क्षेत्र के पर्यावरणीय संरक्षण पर निर्भर हैं। 

नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियाँ पूँजीपतियों का समर्थन करती हैं जो अपने अवैज्ञानिक विकास मॉडल से क्षेत्र के पर्यावरण को तबाह कर रहे हैं। और उन्होंने चीन को भी एकदम दरवाजे पर ला खड़ा कर दिया है। दोनों बातें लोगों के अस्तित्व के लिए खतरे के रूप में देखी जा रही हैं। इसलिए, हाल में लद्दाख में विरोध-प्रदर्शन हुए। गुस्सा इतना अभूतपूर्व है कि कारगिल (मुस्लिम) और लेह (बौद्ध बहुल), जिनके अतीत में गहन मतभेद रहे हैं, अब इस लड़ाई में मिलकर डटे हैं। 

दुर्भाग्य से, काँग्रेस गठजोड़ भी यहाँ काम नहीं कर रहा। तस्वीर अब तक स्पष्ट नहीं है, लेकिन एनसी कारगिल से प्रत्याशी खड़ा कर रही है और काँग्रेस ने भी लेह से अपने प्रत्याशी की घोषणा की है। ऐसा होता है तो, भाजपा भले हारेगी लेकिन वह कारगिल और लेह के बीच पुराने उप-क्षेत्रीय विभाजन को भुनाने की कोशिश करेगी। 

प्रश्न: कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने और घेराबंदी के बाद वास्तविक मुद्दे क्या हैं? क्या अलगाव की भावना तीव्र हुई है? 

अनुराधा भसीन: मैंने कुछ मुद्दों के बारे में पहले ही बता दिया है। संक्षेप में, यह राजनीतिक मताधिकार से वंचित करने, राजनीतिक रूप से अवनत करने, बेरोजगारी, न टिकने वाले विकास के नाम पर जम्मू एवं कश्मीर के प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट के बारे में है और यह सब हिमालयी क्षेत्र में हो रहा है जिसका पर्यावरण नाजुक है। मुख्य मुद्दा जमीन खोने और उससे जुड़े भय का है। इसके अलावा नागरिक स्वतंत्रताओं की स्थिति निम्न स्तर पर है। फिर, जैसे-जैसे लोग अनुच्छेद 370 हटाए जाने का उनकी ज़िंदगियों पर पड़ने वाले पूरे प्रभाव को समझने लगे हैं, अलगाव की भावना तीव्र और गहरी हो रही है। 

प्रश्न: एक पत्रकार और संपादक के रूप में आपको बहुत प्रताड़ित किया गया। कृपया इसके बारे में बताएं। आपने भारत क्यों छोड़ा? 

अनुराधा भसीन: निशाना बनाने के कई तरीके थे, जिनमें अक्तूबर 2020 में कश्मीर टाइम्स के श्रीनगर कार्यालय को जबरन बंद करवाया जाना, हमारे कार्यालय के समूचे इन्फ्रास्ट्रक्चर की जब्ती, सरकारी विज्ञापन बंद किया जाना आदि जो कि कश्मीर पर मोदी सरकार की नीतियों की हमारी आलोचनात्मक रिपोर्टिंग और इंटरनेट बंदी को लेकर मेरे उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल करने पर बदले की कार्रवाई थी। इसके अलावा, वह लगातार मुझे आयकर और श्रम न्यायालय से नोटिस भिजवा रहे हैं जो पूरी तरह से फर्जी मामले हैं और हमें लंबे कानूनी पचड़ों में फँसाये रखते हैं। इस सबने हमारे एक अखबार के रूप में बने रहने को बेहद मुश्किल बना दिया। 

2022 तक हमने जम्मू से प्रकाशन जारी रखा, हालांकि प्रकाशन नियमित नहीं था और हम कुछ ही दिनों पर स्टैन्ड पर पहुंचते थे। फिर यह भी असंभव हो गया। लेकिन, बाद में हमने वापसी की और नवंबर 2023 से हमने कश्मीर टाइम्स को डिजिटल स्वरूप में पुनर्जीवित किया। यह एक छोटा सा प्रयास है। 

मैंने भारत छोड़ा नहीं है। मैं अमेरिका 2022 में पत्रकारीय फेलोशिप पर आई और फेलोशिप के अंग के तौर पर मैं ‘कड़े सेंसरशिप में सूचना नखलिस्तान से मुकाबला’ पर कार्य कर रही हूँ। मैं सीखने के साथ प्रयोग कर रही हूँ और एक अलग जगह कश्मीर टाइम्स को पुनर्जीवित कर रही हूँ। एक बार यह फेलोशिप पूरी हो जाए, प्रयोग जारी रहेगा और मैं लौटूँगी, लेकिन वापस आने पर सरकारी दमन से जम्मू कश्मीर में पत्रकारिता को पूरी तरह समाप्त करने के माहौल के कारण पत्रकार के रूप में बचे रहने की चुनौतियों से जूझना मुश्किल होने वाला है।

प्रश्न: कश्मीर में प्रेस स्वतंत्रता और पत्रकारों के हालात के बारे में हमें कुछ बताएं। 

अनुराधा भसीन: नागरिक स्वतंत्रताएं तार-तार हो चुकी हैं और पत्रकार सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं क्योंकि सरकार नहीं चाहती कि कोई भी नॉर्मल्सी, प्रगति और तथाकथित लोकप्रियता के उनके फर्जी नैरेटिव पर कोई सवाल उठाए। वैसे, जम्मू एवं कश्मीर में पत्रकारिता हमेशा चुनौतीपूर्ण रही है लेकिन, 2019 के बाद से सरकार द्वारा प्रेस की आजादी पर सीधा हमला किया गया है।

अपना काम करने को लेकर पत्रकारों पर आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं, उन्हें जेल में डाला गया है, पूछताछ हुई है, धमकाया गया है और उनके डिवाइस छीने गए हैं। कइयों को “नो-फ्लाइ” सूची में डाला गया है। कुछ पत्रकारों के पासपोर्ट भी रद्द किए गए हैं। इसका नतीजा या तो चुप्पी में हुआ है, या फिर पूर्ण समर्पण में। 

(साक्षात्कार और तस्वीर काउन्टर करंट्स से साभार) 

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments