जंगल में आग की रोकथाम के बजाय बुझाने पर फोकस क्यों?

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देहरादून। उत्तराखंड के पहाड़ इन दिनों धुएं के आगोश में हैं। दिन दुपहरी जब मैदानी हिस्सों में सूरज अपनी पूरी प्रचंडता के साथ मौजूद होता है तो धुएं से धूसरित पहाड़ों में सूरज चांद जैसा नजर आता है। इससे सूरज की तपन बेशक कम महसूस होती हो, लेकिन इस धुएं का कारण बनी जंगलों की आग की तपिश पूरे पहाड़ में महसूस की जा रही है।

वन विभाग ने जंगलों की इस आग से निपटने का सबसे बेहतर तरीका यह निकाला है कि आग की रोज की घटनाएं जो पहले वन विभाग की वेबसाइट पर दर्ज होती थी और कोई भी उन्हें देख सकता था, उन्हें अब वेबसाइट पर अदृश्य कर दिया गया है। फायर सीजन से पहले आग बुझाने के लिए बनाए गये सभी फायर प्लान पूरी तरह से फेल हो गये हैं। अब उम्मीद सिर्फ बारिश पर है। जंगलों की आग को रोकने और बुझाने में नाकाम वन महकमा अब मौसम विभाग के पूर्वानुमानों पर नजर गड़ाए हुए है। बारिश होने तक कितने जंगल जलकर खाक हो जाएंगे, कौन जाने?

वन महकमे के अधिकारी वनाग्नि की घटनाओं की जो आधी-अधूरी जानकारी दे रहे हैं, उनके अनुसार इस फायर सीजन में यानी 15 फरवरी से 6 मई तक राज्य में जंगलों में आग की 910 घटनाएं हो चुकी थी। इन घटनाओं में 1144 हेक्टेयर वन क्षेत्र जल चुका था। जंगलों की आग के कारण 5 लोगों की मौत हो जाने की भी सूचना है। इतनी आग के बाद भी एक भी पेड़ आग में नहीं जला, ऐसा मीडिया रिपोर्टों में वन विभाग के एक अधिकारी के हवाले से कहा गया है। इससे साफ है कि वेबसाइट पर आग लगने की घटनाओं को छिपाने के बाद सूचना के नाम पर अधूरी जानकारी परोसी जा रही हैं। फिलहाल राहत की बात यह है कि मौसम विभाग ने अगले कुछ दिनों में राज्य के ज्यादातर हिस्सों में आंधी और बारिश का पूर्वानुमान जारी किया है। लेकिन, मौसम विभाग का पूर्वानुमान गलत साबित हुआ तो राज्य के जंगल तब तक सुलगते रहेंगे, जब तक कि बारिश न हो जाए। वन विभाग एक तरह से आग बुझाने को लेकर हाथ खड़े कर चुका है।

उत्तराखंड में जंगलों में आग लगना कोई नई बात नहीं है। 72 प्रतिशत वन क्षेत्र वाले इस राज्य में जंगलों में आग पहले से लगती रही है। लेकिन, हाल के वर्षों में एक तरफ जहां आग लगने की घटनाओं में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है, वहीं दूसरी ओर आम नागरिकों से जंगलों की आग बुझाने में सामूहिक रूप से भागीदारी करना बंद कर दिया है। दरअसल पहाड़ के लोगों का जंगलों के साथ एक स्वाभाविक नाता रहा है।

लोगों की तमाम जरूरतें जंगलों से पूरी होती थी। ऐसे में जंगल में आग लग जाने की स्थिति में आसपास के गांवों के लोग सामूहिक रूप से आग बुझाने में जुट जाते थे। उस समय आग बुझाने के दो तरीके इस्तेमाल किये जाते थे। छोटी आग बुझाने के लिए जंगली झाड़ियों की झाडू बनाकर आग बुझाई जाती थी। लेकिन, आग बड़ी होने की स्थिति में आग से कुछ दूरी पर जमीन से सूखी पत्तियां हटाकर और फावड़े आदि से जमीन को खोद दिया जाता था। आग के हर संभव रास्ते पर ऐसा किया जाता था। ऐसे में इस जगह पहुंचने के बाद आग खुद ही बुझ जाती थी।

लेकिन, नया वन अधिनियम आने के बाद जंगलों पर ग्रामीणों के हक-हकूक खत्म कर दिये गये। हरे चारे और सूखी लकड़ी बीनने तक की मनाही कर दी गई। नतीजा यह हुआ कि ग्रामीणों ने जंगलों की आग बुझाने से हाथ खींच लिये।

जंगलों में आग लगती क्यों है? इसके कई कारण गिनाये जाते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण है आग रोकने के बजाय आग बुझाने का प्लान। हर वर्ष फायर सीजन शुरू होने से पहले वन विभाग आग बुझाने के लिए फायर प्लान तैयार करता है। इस प्लान के तहत आग बुझाने के लिए राज्य सरकार से करोड़ों रुपये का बजट मांगा जाता है, लेकिन आम तौर पर इस राशि का एक छोटा सा हिस्सा ही मंजूर हो पाता है।

रुद्रप्रयाग के सामाजिक कार्यकर्ता और सीपीआई एमएल से जुड़े मदन मोहन चमोली वनों की आग मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाओं पर बारीकी से नजर रखते रहे हैं। वे कहते हैं कि जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण वह पैसा है जो आग बुझाने के लिए हर साल मिलता है। सरकार आग बुझाने के बजाए आग रोकने के लिए बजट देना शुरू कर दे तो काफी हद तक जंगलों की आग काबू में आ जाएगी। चमोली के अनुसार वन विभाग हर साल आग बुझाने के लिए करोड़ों की योजना बनाता है। इसके ऐवज में जो पैसा मंजूर होता है, उसे ठिकाने लगाना जरूरी हो जाता है। आग रोकने के लिए कोई प्लान तैयार नहीं किया जाता और न हीे कोई बजट दिया जाता है। यदि ऐसा होता भी है तो बहुत छोटे आकार का होता है। पैसा आग बुझाने के लिए मिलता है तो जाहिर है आग तो लगनी ही है।

उत्तराखंड के जंगलों में फैलती आग

कुछ वर्ष पहले के मुकाबले अब वन विभाग के पास ज्यादा कारगर उपकरण उपलब्ध हैं। इसके अलावा फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के पास सेटेलाइट सुविधा है, जिससे राज्य के किसी भी हिस्से में आग लगने की सूचना तुरंत मिल जाती है और इसका अलर्ट वन विभाग को भेज दिया जाता है। इसके बावजूद हाल के वर्षों में जंगलों में आग लगने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। वन विभाग मानकर चलता है कि जंगलों में आग लगने की ज्यादातर घटनाओं में आम लोगों का हाथ होता है। लेकिन, जानकार बताते हैं कि इसकी शुरूआत तो इसी विभाग के कर्मचारी करते हैं। हर साल पौधारोपण के लिए करोड़ों का बजट होता है, जिसका वारा-न्यारा किया जाता है, इसे छिपाने का सबसे आसान तरीका आग ही है। हाल के वर्षों में ठंड के दिनों में जंगलों में लगने वाली आग का सबसे बड़ा कारण पौधारोपण का बजट ही बताया जाता है।

मदन मोहन चमोली भी मानते हैं कि बरसात के दिनों में पौधारोपण का जो बजट ठिकाने लगाया जाता है, सर्दियों के दिनों में उसी को छिपाने के लिए जंगलों में आग लगा दी जाती है। हालांकि गर्मियों के सीजन में लगने वाली आग के अलग-अलग कारण बताये जाते हैं। इनमें कुछ कारण प्राकृतिक होते हैं और कुछ मानवजन्य।

प्राकृतिक कारणों में पहाड़ी से पत्थर गिरने के कारण निकलने वाली चिंगारी प्रमुख है। मानवजन्य कारण कई तरह के होते हैं। ये लापरवाही भी हो सकती है, जानबूझकर की गई शरारत भी और अनजाने में होने वाली गलती। धूम्रपान इसका बड़ा कारण माना जाता है। जंगल से गुजरते हुए धूम्रपान करना और लापरवाही से जलती तीली या जलती बीड़ी-सिगरेट फेंक देना जंगल में बड़ी आग का कारण बन जाता है। कुछ लोग मस्ती के लिए भी जंगलों को आग के हवाले कर देते हैं। इसके अलावा अक्सर जंगलों के आसपास के खेतों में ओण या आड़ा जलाने के कारण भी आग भी चिंगारी जंगल तक पहुंच सकती है और बड़ी आग की वजह बन सकती है। जनचौक पर इस बारे में हाल ही में जंगलों को आग से बचाने के शीतलाखेत मॉडल पर लेख प्रकाशित हुआ था।

इस बार लोकसभा चुनाव को भी जंगलों में आग की एक वजह माना जा रहा है। आमतौर पर सर्दियों में कम बारिश होने की स्थिति में गर्मियों में जंगलों में आग लगने की ज्यादा घटनाएं होने की आशंका रहती है। इसे देखते हुए इस वर्ष वन विभाग के कर्मचारियों की चुनाव में ड्यूटी न लगाने के आदेश दिये गये थे। दरअसल उत्तराखंड में ठीक उस दौर में चुनाव प्रक्रिया शुरू हो गई थी, जब जंगलों में आग लगने की शुरुआत होती है और वन महकमा कंट्रोल फायर जैसी गतिविधियां करता है। लेकिन चुनाव आयोग ने वन विभाग के 90 प्रतिशत कर्मचारियों की ड्यूटी चुनाव में लगा दी। ऐसे में फायर सीजन की शुरुआत में किया जाने वाले कंट्रोल फायर जैसा महत्वपूर्ण काम नहीं किया जा सका। 21 अप्रैल को जब कर्मचारी चुनाव ड्यूटी से निपटकर अपने वन क्षेत्र में पहुंचे तब तक जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ चुकी थी, जो अब बेकाबू हो चुकी हैं।

आग बुझाने के तमाम परम्परागत और आधुनिक तरीकों के साथ ही वायुसेना के हेलीकॉप्टरों से पानी के छिड़काव के बाद भी आग बुझाने में वन विभाग नाकाम हो गया है। विभाग के अधिकारियों की उम्मीदें अब बारिश पर ही टिकी हुई है। मौसम विभाग ने आने वाले दिनों में उत्तराखंड के सभी हिस्सों में बारिश होने की संभावना जताई है। इस बीच उत्तराखंड के कुछ पर्वतीय हिस्सों में आंधी आने और हल्की बौछारें पड़ने की सूचना मिली है, हालांकि अब तक इतनी बारिश नहीं हुई है कि जंगलों की आग बुझ सके। 

(वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

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