मोदी बनाम राहुल        

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क्या राहुल गांधी की अप्रेंटिसशिप ज़ारी  है, क्या चक्रव्यूह से बाहर निकल सकेंगे ? इन दिनों कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपने  चुनावी भाषणों में विभिन्न  लुभावने सार्थक शब्दों में ‘अप्रेंटिसशिप’ शब्द पर विशेष ज़ोर देते हुए  दिखाई देते हैं। आखिर इसकी वज़ह क्या है। बेशक़, युवा वर्ग, विशेषतः बेरोज़गार, में यह शब्द अपनी पैठ ज़माने लगा है। हिंदी में इस शब्द को प्रशिक्षण और प्रशिक्षु के बरक्स रखा जा सकता है।

इस शब्द पर विशेष आग्रह को देखते हुए मेरे दिमाग़ में यह सवाल भी कौंधने लग जाता है कि  क्या राहुल गांधी की राजनैतिक अप्रेंटिसशिप या प्रशिक्षण काल समाप्त हो चुका है ? क्या वे राजनैतिक तीरंदाज़ी में माहिर हो चुके हैं ? क्या उनकी ‘पप्पू छवि’ विलुप्त हो चुकी है ? क्या वे संघ परिवार की सांस्कृतिक -आर्थिक राजनैतिक संस्कृति के सिकंदर व प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी और उनके शागिर्दों को सियासी अखाड़े में शिकस्त दे सकेंगे ? इन सवालों का ज़वाब इसलिए भी ज़रूरी हैं कि जनता अब प्रधानमंत्री मोदी के उपयुक्त उत्तराधिकारी के रूप में सोचने लगी है।

जनता यह  भी सोचती है कि  क्या  राहुल गांधी ने मोदी का उत्तराधिकारी बनने की पात्रता को अर्जित कर लिया  है ?  इस सवाल के मद्देनज़र  इतना तो स्पष्ट  हो गया है कि  राहुल – प्रदर्शन के प्रति आम जनता उदासीन नहीं है, बल्कि गंभीरता का भाव रखती है। बहुत पहले पप्पू की छवि विलुप्त हो चुकी है। उन्हें युद्ध क्षेत्र के योद्धा के रूप में देखा जाने लगा है।   इसे राहुल गांधी की ठोस उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। 

बतौर प्रधानमंत्री मोदी  द्वारा प्रचारित तमगा  ‘शहज़ादा’ उर्फ़ राहुल गांधी ने अपनी राजनैतिक यात्रा को 2004 में अमेठी से निर्वाचित सांसद के तौर  पर शुरू की थी।  आज उन्हें इसे सफर को ज़ारी रखते हुए दो दशक पूरे होने जा रहे हैं।  इस बीस वर्षीय यात्रा में राहुल को प्रशिक्षण की कई कसौटियों का सामना करना पड़ा है। उनके राजनैतिक विरोधियों, विशेषतः विशाल संघ परिवार, ने उनकी यात्रा के  शुरूआती चरण में उनकी  ‘पप्पू’ की छवि को गढ़ना शुरू किया था।

2014 में मोदी-उदय के साथ इन कोशिशों में तेज़ी आ गई।  ज़ाहिर है, मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा  सत्ता ने अपनी शक्तियों का विस्तार किया और निशाने पर राहुल गांधी रहे। हक़ीक़त यह है कि भाजपा को कांग्रेस से कहीं ज़्यादा  नेहरू- गांधी परिवार से पुश्तैनी अदावत रहती रही है। जनसंघ से भाजपा तक यह माना जा रहा है कि  यह एकल परिवार ही  कांग्रेस को जीवित व एकजुट रखे हुए है। यदि यह परिवार राजनीतिक रूप से धवस्त हो जाता है तो कांग्रेस स्वतः इतिहास बन जाएगी। इसीलिए, मोदी-मंडली ने  गांधी  परिवार के विरुद्ध वंशवाद की सुनामी खोल दी। इसका आंशिक लाभ भी हुआ, और  कांग्रेस 2014 -19 के चुनावों में 50 से कम  सीटों में सिकुड़ गई, लेकिन इसे  देश के  सियासी मंच से विलुप्त नहीं किया जा सका।

नेहरू -गांधी परिवार भी विलुप्त नहीं हुआ, मैदान में कांग्रेस जनों के लिए  एकता का स्तब्ध बन कर  अब भी खड़ा हुआ है। यही बात मोदी ब्रांड भाजपा को ‘नागवार’ गुज़री  है. अब तो यह परिवार और भी सक्रिय हो गया है। वंशवाद का नारा बुरी तरह से पिट चुका  है। क्योंकि भाजपा स्वयं भी वंशवाद के दलदल में फंसती चली गई है। इसका लाभ कांग्रेस और गांधी परिवार को भी मिला। यदि ऐसा नहीं रहता तो राहुल गांधी  की यात्रा जारी नहीं रहती। 2019 के चुनावों में अमेठी से  भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी से हारने के बावजूद राहुल ने अपनी यात्रा को छोड़ा नहीं। सुदूर दक्षिण राज्य केरल की वायनाड सीट से चुनाव जीत  कर अपनी यात्रा को ज़ारी रखे हुए हैं। 

मुख्य सवाल है कि क्या  पचास पार राहुल गांधी अब भी प्रशिक्षु या अप्रेंटिस या ट्रेनी बने हुए हैं ? वैसे मनुष्य को अंतिम सांस तक नवीनतम सीखने और गढ़ने के लिए तत्पर रहना चाहिए। यदि राहुल इस सिद्धांत पर चल रहे हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है। वे कुछ संस्थाओं और नेताओं के समान जड़ और ठस  तो नहीं बने हुए  हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक संस्थाएं और सियासीकर्मी ‘पोखर’ बन चुके हैं। विगत दो दशकों में तिरस्कारपूर्ण तमगों से जड़े जाने के बावज़ूद इसी शहज़ादे उर्फ़ पप्पू  उर्फ़ राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा से भारत जोड़ो न्याय यात्रा’  निकाली है। आख़िर, वह कौन सी शक्ति है जो इस प्रशिक्षु नेता को चलायमान रखे हुए है ? क्या इस सवाल पर विचार की ज़रुरत नहीं है ?

चुनाव के दौर में घटनाओं की रफ़्तार अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है। वैसे 2014 में मोदी सत्ता के उदय के साथ ही रफ़्तार बढ़ चुकी थी। लेकिन, मोदी +  शाह नेतृत्व में भाजपा 2024  का आम चुनाव ‘करो या मरो’ की शैली में लड़ रही है। चुनाव जीतने  के लिए वह ‘साम+ दाम+दंड + भेद’ के हर सम्भव शस्त्रों  का इस्तेमाल कर रही है; कर्णाटक में भाजपा समर्थित जेडी( एस ) के फरार  प्रत्याशी प्रज्वल रेवन्ना के सैंकड़ों सेक्स वीडियो;  सूरत और इंदौर में मतदान पूर्व ही कांग्रेस प्रत्याशियों का भाजपा को समर्पण ( या अपहरण ?)  चुनाव विजय -डकैती सीरियल के ताज़ातरीन ऐपिसोड  हैं।

इससे पहले भी  खजुराहो का ऐपिसोड सामने आ चुका  था। कांग्रेस समर्थित समाजवादी पार्टी की  प्रत्याशी के नामांकन पत्र  को रद्द कर दिया गया था।  बतलाया गया कि उक्त पत्र  पर उम्मीदवार के हस्ताक्षर नहीं थे। इसके बाद भाजपा के प्रत्याशी की सम्भावी जीत का रास्ता साफ़ हो गया है। वास्तव में  विजय -डकैती के  अभियान की शुरुआत चंडीगढ़ के महापौर के चुनाव से शुरू हुई थी। लेकिन, देश की आला अदालत के हस्तक्षेप की वज़ह से वह ऐपीसोड अधूरा रहा। मगर, भाजपा ने खजुराहो, सूरत और इंदौर में इन तीनों  ऐपिसोडों का सफलतापूर्वक निर्माण करके दिखला दिया है।

इन घटनाओं  का उल्लेख इसलिए किया गया ताकि इनके सन्दर्भ में  विकृत राजनीति के बेजोड़  उस्ताद मोदी जी  और वैकल्पिक नेतृत्व शैली के उभरते किरदार  राहुल गांधी  को समझा जा सके। वैसे इन घटनाओं के संबंध में  प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं दी  है। वे अनजान बने हुए हैं। उनका यह व्यवहार सुपरिचित है; इसकी जीवंत मिसाल मणिपुर का घटनाचक्र है। 

मोदी और राहुल गांधी,दोनों ही अपने अपने दलों या गठबंधन के  सुपर स्टार  प्रचारक हैं। दोनों ने ही एक दूसरे  को शिकस्त देने के लिए कमर कस रखी हैं;

पहले के पास अभेद्य  सत्ता और अपार संसाधन हैं, जबकि दूसरा लगभग निहत्था है और पथरीले मैदान में खड़ा हुआ है; दोनों के बीच समतल भूमि दूर-दूर तक नहीं है; पहला वाला दो दशकों से अधिक शासन के हथकंडों से लैस और खांटी सियासती कीड़ा है, जबकि दूसरा अनुभवहीन व दांव पेंच से अपरिचित है और समाज व सियासी जटिलताओं व कुटिलताओं से अनभिज्ञ है; पहले के पास ऐतिहासिक पारिवारिक विरासत का अकाल है, जबकि दूसरा विरासतों के भार से दबा हुआ है; पहले का कम्पास मातृ संस्था  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का एक सदी पुराना एजेंडा है, दूसरे के मार्ग दर्शक स्वतंत्रता आंदोलन के योद्धा और मानवता के दार्शनिक हैं;  पहला मुक्त अर्थव्यवस्था और मध्ययुगीन मानसिकता का पोषक व संरक्षक है, जबकि दूसरा कॉर्पोरेट पूंजी युग में जन कल्याणकारी राज्य की पुनर्वापसी के लिए संघर्षरत है ; पहला चरम आत्ममुग्धता के पठार पर पहुंच चुका  है, जबकि दूसरा जन ज़मीनी यथार्थ से जुड़ा हुआ है और कोर्स करेक्शन के लिए तत्पर है और अंत में, पहले के समक्ष है  ‘सिकुड़ता आकाश’’, जबकि दूसरे के लिए  खुला हुआ है ‘सम्पूर्ण आकाश’। इन दो  परस्पर विपरीत  ध्रुव -कक्षाओं  में  खड़े हैं नरेंद्र दामोदरदास मोदी और राहुल गांधी उर्फ़ नेहरू+इंदिरा +राजीव गांधी के वारिस।  

बेशक़, प्रधानमंत्री मोदी की वक्तृत्वकला आरम्भ से ही प्रभावशाली रही है। वे जनता के साथ स्वयं को ‘कनेक्ट’ करने में अभूतपूर्व वक्ता  हैं। अपनी भाषण कलाकारी के दम पर उन्होंने  गुजरात विकास  मॉडल को आनन-फानन में  अखिल भारतीय बनाने के अथक प्रयास किये। अपने प्रथम चरण में वे काफी सफल भी रहे हैं। हिंदी पट्टी के उभरते उपभोक्ता वर्ग ने इस मॉडल को हाथों हाथ लिया। मुझे याद है, प्रधानमंत्री बनने से पहले उन्होंने अपने प्रथम सम्बोधन में  दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज के विद्यार्थियों को सम्मोहित कर दिया था।

इसके बाद उनके मोहक तूफानी भाषणों का कारवां चल पड़ा। इस सफलता की सबसे बड़ी वज़ह थी उनके पूर्वाधिकारी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की गंभीर व बौद्धिक भाषण शैली। जनता उनकी इस एक दशकीय अकादमिक शैली से उक्ता  चुकी थी। वह बेस्वाद -बेलजीज़ थी। पूर्व  प्रधानमंत्री डॉ. सिंह के अन्य साथी नेता ( प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह, सोनिया गांधी आदि ) भी  मोदी जी के समान ‘धांसू भाषणबाज’ नहीं थे। एक प्रकार का अभिजातीय या विशिष्ट वर्गीय रंग डॉ. सिंह और उनके सहयोगी मंत्रियों में झलकता था।  नतीज़तन, सत्तातंत्र के वाहकों और जन समाज के बीच फासला बढ़ता चला गया।

दूसरी तरफ उभरते मध्यवर्ग या मुखर वर्ग की महत्वाकांक्षाएं कुलांचे मारने लगी थीं। इस नई वर्गीय गतिशीलता को ठीक प्रकार से समझने में  सिंह -सत्ता तंत्र बिल्कुल ही नाकाम  साबित हुआ। मोदी की कार्य  शैली ने इस स्थिति को समझा और अपने भाषणों के माध्यम से लोकचितेरा बन बैठे। उनके कांग्रेस विरोधी ही नहीं, भाजपा के आंतरिक प्रतिद्वंद्वी भी हाशिये पर आ गए। प्रधान  मंत्री मोदी ने जनता के विभिन्न वर्गों  के साथ स्वयं और अपने शासन को कनेक्ट करने की बहु-आयामी शैली को  विकसित किया। उन्होंने सार्वजनिक भाषण मंचों पर ‘पारसी थिएटर या नौटंकी अभिनय’ की शैली को अपनाया जिसमें मुद्राएं और काया भाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उनका यह मंचीय अभिनय बेजोड़ साबित हुआ।

इतना ही नहीं, उन्होंने खुरदुरी भाषा -मुहावरों -कहावतों -स्थानीय सन्दर्भों का खूब  इस्तेमाल किया। आमलोग उनसे जुड़ने लगे और नव मध्यवर्ग भी उन्हें अपना ‘ नायक’ मानने लगा। यहां तक कि मोदीजी में देवीय तत्व दिखाई देने लगे हैं और उन्हें ‘अवतार’ तक माना जाने लगा है. क्योंकि मोदी जी की अदायगी में विशिष्टवर्गीय छाप  नहीं थी।  उसमें एक फ़ुटपाथीपन, गंवईपन का आभास भी था, जिसके कर्णप्रिय मोहकजाल में ग्रामीण, क़स्बाई और शहरी वृत्त फंसता चला गया। इसके साथ-साथ मोदी जी ने दर्शक भीड़ के साथ संवाद शैली को अपनाया। वे लोगों से अपनी बात को मनवाने के लिए उनके साथ चलताऊ शब्दों में संवाद भी करने लगे। मनोवैज्ञानिक रूप से इसका अनुकूल प्रभाव पड़ता रहा है। वे परिवार के मुखिया की भांति बतियाते हैं जिसमें धर्म, छोटी छोटी मामूली बातों का तड़का लगता रहता है। मोदी जी के भाषणों में हिन्दू बनाम मुसलमान, श्मसान बनाम कब्रिस्तान , मंगलसूत्र जैसे शब्दों का ‘ज़ायकेदार मिश्रण’ रहता है। इससे पब्लिक खुश।

सार्वजनिक मंचों पर उनकी काया भाषा अत्यंत विनम्र रहती है। पूजास्थलों पर तो उनकी नाटकीयता अपने दर्शनीय चरम पर रहती है। वे मीडिया कवरेज के प्रति आश्चर्य ढंग से सतर्क रहते हैं। मोदी जी कैमरे के फ्रेम में समा जाने की कला में अभ्यस्त  हैं। अवसरानुकूल पोशाकों को धारण करने के पारखी भी है। राजनैतिक रैंप के ‘सफल मॉडल’ हैं. . इस दृष्टि से उन्होंने अपने  पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों को पछाड़ दिया है।  

लेकिन, इधर देख रहा हूं,अब लोगों को उनकी नाटकीय शैली से ऊब होने लगी है। वह लोगों में अपेक्षित प्रभाव पैदा नहीं कर पा रही है। चुनावी सभाओं में मौजूद लोगों के चेहरे भाव शून्य अधिक दिखाई देने लगे हैं। पहला जैसा उत्साह गायब रहता है। चेहरे ठंडे और फीके दिखाई देते हैं। इसके साथ ही मोदी जी का मुखमंडल आक्रोशित, तमतमाया और खीजभरा , अनुनयवाला बनता जा रहा है। बौखलाहट झलकने लगी है। झूठी बातों की पोल जल्दी-जल्दी खुलती जा रही है। मंगलसूत्र का पासा उल्टा पड़ गया है। मुसलमानों को ’घुसपैठिया’ बतलाना भी बेअसर दिखाई दे रहा है। समाज का  ध्रुवीकरण करने की चालें भी अब घिसी-पिटी लगने लगी हैं। गोदी मीडिया के असाधारण सहयोग के बावजूद, रामजन्म भूमि मंदिर का निर्माण भी देश में ‘मोदी लहर या भाजपा लहर या हिंदुत्व लहर’ पैदा नहीं कर सका है। 

प्रधानमंत्री मोदी के विपरीत ध्रुव राहुल गांधी  ने अपनी भाषण शैली को उल्लेखनीय गति से विकसित किया है; राहुल की 2022 की भारत जोड़ो यात्रा से लेकर मार्च 2024 की भारत न्याय यात्रा तक की भाषण शैली और कथ्य वस्तु में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है। वज़ह है दोनों यात्राओं से उन्होंने काफी कुछ सीखा है; कन्याकुमारी +कश्मीर+ उत्तर-पूर्व भारत + केंद्रीय भारत+ पश्चिम भारत की सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक भूमि की पैमाईश की; हज़ारों लोगों से मुलाकातें हुईं और उनके मन -मस्तिष्क में उतरे; स्थानीय सन्दर्भों को बटोरा; भाषण शैली में संवादात्मकता, क्षेत्रीय स्थानीयता, कुछ खुरदुरापन, भावुकता  और आक्रामकता के पुट शामिल किये; भाषण के सभी तत्वों को वैचारिकता में पिरो कर रखा और अपने स्टार विरोधी मोदी जी के साथ विचारधारा आधारित मतभेदों को निरंतर उजागर किया; कॉर्पोरेटपतियों (अम्बानी-अडानी)  और आम जन के बीच मौज़ूद विषमता को सामने रखा; जनता को पूंजी के एकाधिकारीकरण की स्थिति से अवगत कराया; समाज की तलहटियों तक कांग्रेस और इंडिया महागठबंधन की योजनाओं को पहुंचाया; व्यक्तिगत हमलों  के बजाए सकारात्मक कार्यक्रमों पर ज़ोर बना रहा; जनता  से जुड़े बुनियादी मुद्दों (बेरोज़गारी, महंगाई, कृषि समस्या, महिला स्थिति, ग्रामीण रोज़गार योजना, अप्रेंटिसशिप, पेंशन आदि ) को भाषण के केंद्र में रखा; भाषण के स्वर और गति को गंभीर भी बनाये रखा।

राहुल गांधी ने अपनी भाषण कला को और अधिक सम्प्रेषणीय बनाने के लिए महालक्ष्मी योजना के सन्दर्भ में   ‘खटाखट… खटाखट…खटाखट ‘ जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया है। अब वे भीड़ में किसी युवक या महिला से सीधा संवाद करने लगते हैं। नाम पूछने लगते हैं और वस्तु पर अदा की गई जीएसटी को अदानी की जीएसटी से जोड़ते हैं। सुबोध भाषा में आर्थिकी को समझाने  लगते  हैं। लोक शिक्षण की दृष्टि से यह अच्छा प्रयोग है।  वे  समाज के सभी वर्गों, विशेषतः हाशिये  के लोग, का उल्लेख करने से चूकते नहीं हैं। संचार की यह शैली उनके और जनता के बीच अदृश्य रिश्ता बना देती है। 

इसके विपरीत, मोदी जी के भाषणों में व्यक्ति केंद्रित हमलों की भरमार रहती है। वे भाजपा के घोषणापत्र पर भूले-भटके  बात करते हैं। उनके निशाने पर प्रमुखता के साथ नेहरू-गांधी परिवार रहता है और ‘शहज़ादे’ जैसे शब्द से खिल्ली उड़ाने में मगन हो जाते हैं। मोदी जी अपने एक दशकीय शासन की उपलब्धियों को सकारात्मक ढंग से रेखांकित  करने से चूक जाते हैं।  जब  वे करते भी हैं तो उसमें अहंकार और हल्केपन की छौंक रहती है। किसी भी पार्टी का प्रधानमंत्री रहे, वह केवल वर्तमान को ही सम्बोधित नहीं करता है, बल्कि भविष्य का निर्माण भी करता चलता है। वह छोटा -बड़ा इतिहास निर्माता होता है। वह दोनों कालों के लिए  सकारात्मक दृश्यों को चित्रित करता है। इस कसौटी पर मोदी जी फिसलते हुए दिखाई देते हैं।

राहुल गांधी राजनीति के चक्रव्यूह के केंद्र में हैं। उन्होंने अपने प्रशिक्षण काल में चक्रव्यूह से बाहर निकलने की कला कितनी सीखी है, यह तो भविष्य बतलायेगा। लेकिन, इतना तय है कि राहुल अपने पिता राजीव गांधी के समान नहीं हैं। उन्हें चक्रव्यूह से बाहर निकलने की कला नहीं आती थी। लेकिन, राहुल गांधी ने चक्रव्यूह में युद्ध लड़ने के कुछ गुर ज़रूर सीख लिए हैं। और ये काम आएंगे मगर, मोदी+शाह जोड़ी ने राजनीतिक शतरंज के सभी नियम +नीयत + मर्यादा को बदल दिया है। उनकी शर्तों पर ‘शह और मात’ हो, ऐसी चालों को चलने में दोनों ही पारंगत हैं। अब राहुल गांधी इस बाज़ी को कैसे जीतते हैं, चक्रव्यूह से बाहर कैसे निकलते हैं, यह उनकी अप्रेंटीशिप में पारंगतता पर निर्भर करता है!

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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