मोदी की वापसी मजदूरों की आधुनिक गुलामी की गारंटी

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पिछले तकरीबन डेढ़ महीने से उत्तर प्रदेश की रॉबर्ट्सगंज लोकसभा क्षेत्र में एजेंडा लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर भाजपा हराओ अभियान चलाया जा रहा है। यह लोकसभा क्षेत्र बिजली, कोयला, अल्युमिनियम, पत्थर व बालू खनन, सीमेंट, केमिकल व कार्बन प्लांट जैसे बड़े उद्योगों का केंद्र है। यहां लाखों की संख्या में मजदूर फैक्ट्री में काम कर रहे हैं और इनमें 97 प्रतिशत ठेका व संविदा श्रमिक है। इन मजदूरों व कर्मचारियों में इस अभियान के दौरान जो बातचीत की गई उसमें साफ तौर पर महंगाई में परिवार चलाने की समस्या, बेहद कम मजदूरी और बेरोजगारी, सामाजिक सुरक्षा जैसे सवालों पर मोदी सरकार से गहरी निराशा दिखाई दी और मजदूरों में बड़े पैमाने पर आक्रोश भी है। मजदूर आने वाले समय में बने नए लेबर कोडो और उसके कारण पैदा होने वाले संकटों से भयभीत भी हैं। आइए देखे कि इन लेबर कोड में दरअसल है क्या?

देश के करोड़ों-करोड़ मजदूरों के हितों को रौंदने के लिए अटल बिहारी सरकार में शुरू की गई आरएसएस की श्रम कानूनों को खत्म कर लेबर कोड बनाने की प्रक्रिया को मोदी सरकार ने अपनी दूसरी पारी में अमली जामा पहनाया और इसके लिए सबसे मुफीद समय उसने कोरोना महामारी के वैश्विक संकट काल को चुना। संसद में जब विपक्ष नहीं था तब बिना किसी चर्चा के उसने तीन लेबर कोड औद्योगिक सम्बंध, सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं पास करा लिए और एक कोड जो मजदूरी के सम्बंध में है उसे सरकार ने इससे पहले ही 8 अगस्त 2019 को पास करा लिया। इन सभी कोडो की नियमावली भी सरकार ने जारी कर दी है। सरकार ने मौजूदा 27 श्रम कानूनों और इसके साथ ही राज्यों द्वारा बनाए श्रम कानूनों को समाप्त कर इन चार लेबर कोडो को बनाया है। सरकार का दावा है कि सरकार के इस श्रम सुधार कार्यक्रम से देश की आर्थिक रैकिंग दुनिया में बेहतर हुई है। प्रधानमंत्री मोदी तो यहां तक कहते रहे हैं कि देश की तरक्की के लिए पुराने पड़ चुके कई कानूनों को खत्म करना बेहद जरूरी है और उनकी सरकार यह कर रही है।

देखना यह होगा कि सरकार जिन कानूनों को खत्म कर रही है वह वास्तव में देश की और उसमें रहने वाले आम जन की तरक्की के लिए जरूरी है या उनकी बर्बादी की दास्तां को नए सिरे से लिखा जा रहा है। वास्तव में तो सैकड़ों वर्षों में किसानों, मजदूरों व आम नागरिकों ने अपने संघर्षो के बदौलत जो अधिकार हासिल किए थे उन्हें ही छीना जा रहा है। क्योंकि सरकार ने आज तक यूएपीए, पीएमएलए, राजद्रोह जैसे काले कानूनों को तो खत्म नहीं किया उलटे इनमें जनता की आवाज उठाने वालों को जेल भेजना इस सरकार का स्थायी चरित्र बना हुआ है। न्यूज क्लिक के संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ, वरिष्ठ पत्रकार गौतम नवलखा, डा. अम्बेडकर के परिवार के सुविख्यात अर्थशास्त्री आनंद तेलतुम्बड़े, सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज समेत सैकड़ों की यूएपीए के फर्जी मुकदमें में गिरफ्तारी की गई और सरकार से असहमति रखने वाले राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न आज भी जारी है।

सरकार द्वारा लाए गए नए लेबर कोड में सरकार ने काम के घंटे 12 करने का प्रावधान है। व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं लेबर कोड के लिए बनाई नियमावली का नियम 25 के उपनियम 2 के अनुसार किसी भी कर्मकार के कार्य की अवधि इस प्रकार निर्धारित की जाएगी कि उसमें विश्राम अंतरालों को शामिल करते हुए काम के घंटे किसी एक दिन में 12 घंटे से अधिक न हो। जबकि यह पहले कारखाना अधिनियम 1948 में 9 घंटे था। मजदूरी कोड की नियमावली के नियम 6 में भी यही बात कहीं गई है। व्यवसायिक सुरक्षा कोड की नियमावली के नियम 35 के अनुसार दो पालियों के बीच 12 घंटे का अंतर होना चाहिए। नियम 56 के अनुसार तो कुछ परिस्थितियों, जिसमें तकनीकी कारणों से सतत रूप से चलने वाले कार्य भी शामिल है मजदूर 12 घंटे से भी ज्यादा कार्य कर सकता है और उसे 12 घंटे के कार्य के बाद ही अतिकाल यानी दुगने दर पर मजदूरी का भुगतान किया जायेगा।

साफ है कि 1886 के शिकागो के हे मार्केट स्कावयर में मजदूर आंदोलन और शहादत से जो नारा उठा कि 8 घंटे काम के, 8 घंटे आराम के और 8 घंटे मनोरंजन के जरिए काम के घंटे आठ का अधिकार मजदूरों ने हासिल किया था उसे भी एक झटके में सरकार छीन लेने में लगी है। इससे देश के करीब 33 प्रतिशत मजदूर अनिवार्य छटंनी के शिकार होंगे जो पहले से ही मौजूद भयावह बेरोजगारी को और भी बढ़ाने का काम करेगा।

अभियान में हमने देखा कि राबर्ट्सगंज लोकसभा क्षेत्र जहां से 90 प्रतिशत लोग बाहर काम के लिए पलायन करते है यहां तक कि लड़किया बंगलौर जैसे शहरों में रेडिमेड गारमेन्टस में काम करने जा रही है, ने बताया कि कोरोना महामारी के बाद आए रोजगार संकट में देश के विभिन्न राज्यों में काम के घंटे 12 कर दिए गए हैं। इसके जरिए 8 घंटे काम के बाद मिलने वाले ओवर टाइम की दुगनी मजदूरी को हड़पा जा रहा है। काम के घंटे 12 करने से मजदूरों को व्यक्तिगत दैनिक कार्यो के लिए 17-18 घंटे काम करना पड़ता है और यह उनके शरीर पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। बेहद कम उम्र में ही उन्हें तमाम बीमारियों का शिकार होना पड़ रहा है।   

व्यावसायिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए बने इन लेबर कोडों में ठेका मजदूर को, जो इस समय सभी कार्यों में मुख्य रूप से लगाए जा रहे है, शामिल किया गया है। पहले ही निजीकरण और डाउनसाइजिंग के कारण हो रही छंटनी की मार से इनका जीवन बर्बाद हो रहा है अब इन लेबर कोड ने तो उन्हें बुरी तरह असुरक्षित कर दिया है। इस कोड के अनुसार 49 मजदूर रखने वाले किसी भी ठेकेदार को श्रम विभाग में अपना पंजीकरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं है अर्थात उसकी जबाबदेही के लिए लगने वाला न्यूनतम अंकुश भी सरकार ने समाप्त कर दिया। व्यावसायिक सुरक्षा कोड के नियम 70 के अनुसार यदि ठेकेदार किसी मजदूर को न्यूनतम मजदूरी देने में विफल रहता है तो श्रम विभाग के अधिकारी नियम 76 में जमा ठेकेदार के सुरक्षा जमा से मजदूरी का भुगतान करायेंगे।

आइए देखते चले कि ठेकेदार के जमा का सैलाब कैसा है – 50 से 100 मजदूर नियोजित करने वाले को मात्र 1000 रूपया, 101 से 300 नियोजित करने वाले को 2000 रूपया और 301 से 500 मजदूर नियोजित करने वाले ठेकेदार को 3000 रूपया सुरक्षा जमा की पंजीकरण राशि जमा करना है। अब आप सोच सकते है कि इतनी अल्प राशि में कौन सी बकाया या न्यूनतम मजदूरी का भुगतान होगा। यही नहीं कोड और उसके नियमावली मजदूरी भुगतान में मुख्य नियोजक की पूर्व में तय जिम्मेदारी तक से उसे बरी कर देती है और स्थायी कार्य में ठेका मजदूरी के कार्य को प्रतिबंधित करने के प्रावधानों को ही खत्म कर लूट की खुली छूट दी गई है।

इन कोडो में 44 व 45 इंडियन लेबर कांग्रेस की संस्तुतियों के बावजूद स्कीम मजदूरों जैसे आगंनबाडी, आशा, रोजगार सेवक, मनरेगा कर्मचारी, हेल्पलाइन वर्कर आदि को शामिल नहीं किया गया। लेकिन कुछ नए श्रमिक लाए गए है जैसे फिक्स टर्म श्रमिक, गिग श्रमिक और प्लेटफार्म श्रमिक आदि। इनमें से प्लेटफार्म श्रमिक वह जो इंटरनेट आनलाइन सेवा प्लेटफार्म पर काम करते है और गिग कर्मचारी वह है जो बाजार अर्थव्यवस्था में अंशकालिक स्वरोजगार या अस्थाई संविदा पर काम करते है। देश में अभी जो अमेजन, फिलिप कार्ड आदि विदेशी कम्पनियों का आनलाइन व्यापार बढ़ रहा है और जिस तरह से अम्बानी ग्रुप्स में फेसबुक ने बड़ा निवेश किया है और वाट्सएप, फेसबुक द्वारा भारत के खुदरा व्यापार को हडपने की कोशिश हो रही है।

इसी दिशा में ‘वाई-फाई क्रांति’ या पीएम वाणी कार्यक्रम की घोषणाएं की गई है। उसमें इस तरह के रोजगार में बड़े पैमाने पर श्रमिक नियोजित किए जायेंगे। लेकिन इन श्रमिकों का उल्लेख औद्योगिक सम्बंध और मजदूरी कोड में नहीं है। क्योंकि इनकी परिभाषा में ही लिख दिया गया कि इनके मालिक और इन श्रमिकों के बीच परम्परागत मजदूर-मालिक सम्बंध नहीं है। बात बहुत साफ है इन मजदूरों के मालिक भारत की सरहदों से बहुत दूर अमेरिका, यूरोप या किसी अन्य देश में हो सकते है। इनमें से ज्यादातर फिक्स टर्म इम्पलाइमेंट में ही लगाए जायेंगे। दिखाने के लिए कोड में कहा तो यह गया है कि फिक्स टर्म इम्पालाइज को एक साल कार्य करने पर ही ग्रेच्युटी भुगतान हो जायेगी यानी उसे नौकरी से निकालते वक्त 15 दिन का वेतन और मिल जायेगा।

लेकिन हकीकत बड़ी कड़वी होती है, सच यह है कि कोई भी मालिक किसी भी मजदूर को बारह महीने काम पर ही नहीं रखेगा। जैसा कि ठेका मजदूरों के मामले में उत्तर प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक केन्द्र सोनभद्र में हमने देखा है। यहां उद्योगों में ठेका मजदूर एक ही स्थान पर पूरी जिदंगी काम करते है लेकिन सेवानिवृत्ति के समय उन्हें कानूनी ग्रेच्युटी तक नहीं मिलती क्योंकि उनके ठेकेदार हर साल या चार साल में बदल दिए जाते है और वह कभी भी पांच साल एक ठेकेदार में कार्य की पूरी नहीं कर पाते जो ग्रेच्युटी पाने की अनिवार्य शर्त है।

मजदूरों की रूसी क्रांति से प्रभावित भारतीय मजदूरों द्वारा 1920 में की गई व्यापक हड़ताल और देश में पहले राष्ट्रीय मजदूर केन्द्र के निर्माण के दौर में अंग्रेज ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाए थे जिसमें हड़ताल को प्रतिबंधित कर दिया गया और हर हड़ताल करने वाले को बिना कारण बताए जेल भेजने का प्रावधान किया गया था। इस बिल के खिलाफ भगत सिंह और उनके साथी फांसी चढ़े थे। बाद में 1942 से 1946 तक भारत में वायसराय की कार्यकारणी के श्रम सदस्य रहते डॉ. अम्बेडकर ने औद्योगिक विवाद अधिनियम का निर्माण किया जो 1947 से लागू है। इस महत्वपूर्ण कानून की आत्मा को ही सरकार ने लागू किए जा रहे लेबर कोडों में निकाल दिया है।

अब श्रम विभाग के अधिकारी श्रम कानून के उल्लंधन पर उसे लागू कराने मतलब प्रर्वतन (इनफोर्समेंट) का काम नहीं करेंगे बल्कि उनकी भूमिका सुगमकर्ता (फैसीलेटर) की होगी यानी अब उन्हें मालिकों के लिए सलाहकार या सुविधाकर्ता बनकर काम करना होगा। हड़ताल करना इस नई संहिता के प्रावधानों के अनुसार असम्भव हो गया है। इतना ही नहीं हड़ताल के लिए मजदूरों से अपील करना भी गुनाह हो गया है जिसके लिए जुर्माना और जेल दोनों होगा। औद्योगिक सम्बंध कोड की धारा 77 के अनुसार 300 से कम मजदूरों वाली औद्योगिक ईकाईयों को कामबंदी, छंटनी या उनकी बंदी के लिए सरकार की अनुमति लेना जरूरी नहीं है। साथ ही घरेलू सेवा के कार्य करने वाले मजदूरों जिनमें ज्यादातर महिलाएं हैं, को औद्योगिक सम्बंध कोड से ही बाहर कर दिया गया है।

देश कोरोना महामारी में लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा का गवाह बना और इन मजदूरों की हालात राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनी थी। इसलिए इनके आवास, आने जाने की सुविधा, सुरक्षा जैसे सवाल महत्वपूर्ण सवालों पर पहल वक्त की जरूरत थी। उसे भी इन कोड में कमजोर कर दिया गया, व्यावसायिक सुरक्षा कोड की धारा 61 के अनुपालन के लिए बने नियम 85 के अनुसार प्रवासी मजदूर को साल में 180 दिन काम करने पर ही मालिक या ठेकेदार द्वारा आवगमन का किराया दिया जायेगा। अमानवीयता की हद यह है कि कोड में लोक आपात की स्थिति में बदलाव करने के दायरे को बढाते हुए अब उसमें वैश्विक व राष्ट्रीय महामारी को भी शामिल कर लिया गया है। ऐसी महामारी की स्थिति में मजदूरों को भविष्य निधि, बोनस व श्रमिकों के मुफ्त इलाज के लिए चलने वाली कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) पर सरकार रोक लगा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में बने सातवें वेतन आयोग द्वारा तय न्यूनतम वेतन 18000 रुपए को मानने की कौन कहे सरकार ने तो लाए नए मजदूरी कोड में मजदूरों की विशिष्ट श्रेणी पर ही बड़ा हमला कर दिया है। अभी अधिसूचित उद्योगों के अलावा इंजीनियरिंग, होटल, चूड़ी, बीड़ी व सिगरेट, चीनी, सेल्स एवं मेडिकल रिप्रेंसजेटेटिव, खनन कार्य आदि तमाम उद्योगों के श्रमिकों की विशिष्ट स्थितियों के अनुसार उनके लिए पृथक वेज बोर्ड बने हुए है, जिसे नया कोड समाप्त कर देता है।

इतना ही नहीं न्यूनतम मजदूरी तय करने में श्रमिक संघों को मिलाकर बने समझौता बोर्डों की वर्तमान व्यवस्था को जिसमें श्रमिक संघ मजदूरों की हालत को सामने लाकर श्रमिक हितों में बदलाव लाते थे उसे भी खत्म कर दिया गया है। यह भी कि सरकार से न्यूनतम वेतन की जगह फ्लोर रेट वेज की बात लाई है जो न्यूनतम मजदूरी से भी बेहद कम है।

उत्तर प्रदेश में तो हालत ओर बुरी है। न्यूनतम मजदूरी कानून में 5 साल में वेज रिवीजन करने के स्पष्ट प्रावधान के बाद भी सात साल से राज कर रही योगी सरकार में 2019 से लम्बित वेज रिवीजन को 2024 तक नहीं किया गया। परिणामतः प्रदेश में मजदूरी दर बेहद कम है। बाजार दर से भी कम मात्र 410 रुपए अकुशल मजदूरों को दिया जा रहा है। अभियान में मजदूरों ने इस बेहद कम मजदूरी में अपने परिवार को चला पाने की कठिनाई को भी बताया।

देश में डंडे का लोकतंत्र चल रहा है। अपनी आवाज उठाने पर फर्जी मुकदमों में जेल भेजना, एनकाउंटर में हत्याएं करना, घर की कुर्की और उसे बुलडोजर से गिरा देना आम बात हो गई है। उत्तर प्रदेश में तो हालत और भी खराब है। योगी राज का जनांदोलन के प्रति बेहद निरंकुश रवैया है। पूरे प्रदेश में लगातार एस्मा, धारा 144 का इस्तेमाल किया जाता है और सभाओं, सम्मेलनों और यात्राओं तक की अनुमति नहीं दी जाती है।

पिछले वर्ष मार्च माह में बिजली के निजीकरण के खिलाफ और अपने अधिकारों के लिए कार्यबहिष्कार करने वाले बिजली कर्मियों पर बर्बर दमन किया गया। करीब 1800 संविदा श्रमिक कार्य से बर्खास्त कर दिए गए, सैकड़ों इंजिनियर व कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया गया, उनका वेतन और पेंशन काटा गया और उन पर एफआईआर दर्ज की गई है। इसी प्रकार सोनभद्र के हिन्डालकों रेनु सागर पावर डिवीजन में शांतिपूर्ण धरना दे रहे संविदा श्रमिकों पर लाठीचार्ज किया गया, उन पर मुकदमा कायम कर जेल भेजा गया और सैकड़ों को काम से निकाल दिया गया।      

वैसे तो 1991 से शुरू किए गए आर्थिक सुधारों, जिसमें पूंजी पर राज्य के नियंत्रण को खत्म कर दिया गया था, उसमें श्रम कानूनों को एक बाद एक बनी केन्द्र और राज्य सरकारों ने बेहद कमजोर कर दिया था अब ये हाथी के दिखाने वाले दांत ही रह गए थे जिसे भी मोदी सरकार उखाड़ फेकने में लगी है। दरअसल मोदी सरकार ने देश की आर्थिक सम्प्रभुता को बड़ी क्षति पहुंचाई है और इसे कुछ एक बड़े देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के हवाले कर दिया हैं। कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाली मोदी सरकार की सप्लाई साइड आर्थिक नीतियों ने देश में आर्थिक असमानता को बढ़ाने और सम्पत्ति का केन्द्रीयकरण करने का काम किया है।

विश्व असमानता लैब की रिपोर्ट के अनुसार 2022-23 में देश की आबदी के ऊपरी 10 प्रतिशत लोगों के पास देश की सम्पत्ति का 65 प्रतिशत और आय का 57 प्रतिशत हिस्सा है। इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय 1922 के पहले की आर्थिक असमानता है। आक्सफैम की रपट के अनुसार आबादी के ऊपरी 1 प्रतिशत के पास देश की सम्पत्ति का 40 प्रतिशत है और देश की 60 प्रतिशत आबादी के पास देश की सम्पत्ति का महज 4.7 प्रतिशत हिस्सा है। देश की राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति औसत आय 1 लाख 70 हजार रुपए वार्षिक है लेकिन देश के 93 प्रतिशत परिवार 10 हजार रुपए कम की प्रति माह आमदनी पर अपनी जीविका चला रहे है। जब कि देश के खजाने को देश की 90 प्रतिशत आम आबादी भरने का काम करती है।

पीआईबी द्वारा 1 जनवरी 2023 को पेट्रोलियम प्लानिंग एवं एनालेसिस सेल द्वारा जारी आंकड़ो और आक्सफेम की 16 जनवरी 2024 को प्रकाशित रिपोर्ट के आकंड़ों पर आप गौर करें तो देखेंगे कि देश की 50 प्रतिशत निम्न वर्ग की आबादी जीएसटी में 64.3 प्रतिशत यानी 1286000 करोड़ रुपए का योगदान देती है, यही आबादी पेट्रोलियम उत्पाद कर में 481425.86 करोड़ रुपए देती है। इस दो मद में इस आबादी का कुल योगदान 1767425 करोड़ रुपए है।

इसी प्रकार देश की 40 प्रतिशत मध्य वर्गीय आबादी जीएसटी में 33.3 प्रतिशत यानी 666000 करोड़ रुपए का और पेट्रोलियम उत्पाद कर में 249323 करोड़ रुपए देती है कुल इस दो मद में इस आबादी का योगदान 915323 करोड़ रुपए है। वहीं देश के उच्च 10 प्रतिशत आबादी द्वारा जीएसटी में महज 2.4 प्रतिशत यानी 48000 करोड़ रुपए  का योगदान है और पेट्रोलियम उत्पाद कर में 17969 करोड़ रुपए है।

इन दो मदों में इस आबादी का कुल योगदान 65969 करोड़ रुपए है। यदि देखे तो पायेंगे कि सरकार को इन दो मदों से ही 2748718 करोड़ रुपए प्राप्त होते है इसमें दो तिहाई पैसा गरीबों और मध्य वर्ग से हासिल किया गया है। इनमें से मात्र पांच लाख करोड़ रुपया ही अधिकतम किसान सम्मान निधि, मनरेगा और मुफ्त राशन, छात्रवृत्ति, अनुसूचित जाति जनजाति के विकास, शिक्षा-स्वास्थ्य आदि के लिए खर्च किया जाता है। इसका महत्वपूर्ण भाग सरकार की मदद से कॉर्पोरेट घरानों द्वारा हड़प लिया जाता हैं। इसलिए आज मजदूरों समेत आम आदमी को सरकारों से राष्ट्रीय आय में अपना हिस्सा मांगने के लिए आगे आना होगा। जो पैसा आम आदमी का सरकार के खजाने में जा रहा है उसे रोजगार, बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य, कृषि व छोटे मझोले उद्योगों के विकास पर खर्च करना होगा।

साथ ही मोदी सरकार द्वारा लाए जा रहे लेबर कोड रोजगार को खत्म करने और लोगों की कार्यक्षमता व क्रय शक्ति को कम करने वाले और मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा को नष्ट करने वाले होंगे। यदि यह कोड लागू होते है तो पूंजी के आदिम संचय को बढ़ायेंगे और भारत जैसे श्रमशक्ति सम्पन्न देश में श्रमशक्ति की मध्ययुगीन लूट को अंजाम देंगे। मोदी सरकार की सत्ता में वापसी इन लेबर कोड को लागू करेगी जो मजदूरों की आधुनिक गुलामी की गारंटी होगी। इसलिए इस चुनाव में भाजपा को हराना मजदूरों का प्रमुख राजनीतिक दायित्व है।

(दिनकर कपूर यू.पी. वर्कर्स फ्रंट के प्रदेश अध्यक्ष हैं)

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