पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की जमानत जब्त, सुखबीर बादल के नेतृत्व और कार्यशैली पर सवाल ?

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पंजाब के लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ हो गया है कि शिरोमणि अकाली दल ने पंजाब में अपना आधार खो दिया है। अकाली दल के 13 सीटों पर चुनाव लड़े उम्मीदवारों में से 10 की जमानत जब्त हो गई है। अकाली दल पंजाब में केवल एक सीट पर जीत दर्ज कर सकी है और 11 सीटों पर चौथे स्थान पर रही। जबकि संगरूर की सीट पर अकाली दल 5 वें स्थान पर पहुंच गई।  

एक समय शिरोमणि अकाली दल एक बड़ी क्षेत्रीय राजनितिक ताकत के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में भी अपना दखल रखती थी। लेकिन पार्टी प्रमुख प्रकाश सिंह बादल का पुत्रमोह शिरोमणि अकाली दल को भारी पड़ा। सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व में कई वरिष्ठ नेताओं ने अपनी उपेक्षा के चलते पार्टी से किनारा कर लिया, तो कुछ नेताओं को पार्टी से निकाल दिया गया। सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व में शिरोमणि अकाली दल की आज जो हालत हो गई है वो अपने आप में सुखबीर सिंह बादल की राजनितिक समझ पर सवाल है।  

सुखबीर सिंह बदाल द्वारा पिछले कुछ महीनों से पूरे पंजाब में की गई की ‘पंजाब बचाओ यात्रा’ दरअसल परिवार बचाओ यात्रा ही साबित हुई है। केवल बठिंडा की सीट पर सुखबीर बादल की धर्मपत्नी बीबी हरसिमरत कौर कड़े मुकाबले में बामुश्किल जीत सकी हैं। हरसिमरत कौर अपने निकटतम प्रतिद्वंदी आम आदमी पार्टी के गुरमीत सिंह खुड्डियां से 49656 वोटों से जीती हैं। ये बीबी हरसिमरत कौर की चौथी जीत लोकसभा चुनावों में है। सुखबीर सिंह बादल ने अबकी बार लोकसभा चुनाव ही नहीं लड़ा। अकाली दल को इस सीट पर 32.7 % वोट प्राप्त हुए जबकि आम आदमी पार्टी को 28.4 %  व  कांग्रेस को 17.5 % वोट मिले। अन्य सभी सीटों पर अकाली दल को मिले वोट से साफ जाहिर हो गया है कि अब अकाली दल से पंजाब में उसका परंपरागत मतदाता भी घोर निराशा में विमुख हो गया है।  2019 लोकसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल ने जहां 27.45 % मत हासिल किये थे वो अब घटकर केवल 13. 24 % पर आ गए हैं। 

शिरोमणि अकाली दल की ऐसी हार के पीछे मुख्य कारकों में सुखबीर  सिंह बादल की नीतियां को जिम्मेदार माना जाता है। किसान आंदोलन के समय सुखबीर सिंह बादल की भूमिका पर अकाली दल के कट्टर समर्थक मतदाताओं ने गंभीर सवाल खड़े किये थे। 2022 के विधान सभा चुनाव में अकाली दल को शर्मनाक हार हुई थी, 117 सदस्यों की पंजाब विधानसभा में अकाली दल केवल 3 सीट ही जीत सकी थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में हार 117 में 15 सीट से शुरू हुआ ये सिलसिला अब कितना लंबा चलेगा कहना मुश्किल है। 2002 के विधान सभा चुनावों में हार की समीक्षा करने के लिए 13 सदस्यीय एक समिति अकाली  दल द्वारा बलविन्दर  सिंह भुंदर की अगुवाई में बनाई गयी थी जिसकी पड़ताल में सामने आइये बिंदुओं पर काम करने के लिए इक़बाल सिंह झुन्डा को जिमेदारी दी गई थी ताकि अकाली दल को आनेवाले समय में आवश्यक सुधार करके और  संगठित किया जा सके। इक़बाल सिंह झुन्डा को अकाली दल ने अब लोक सभा चुनाव में संगरूर से अपना प्रत्याशी बनाया था लेकिन वो केवल 6.5 % वोट ले कर 5 वें स्थान पर रहे। फिरोजपुर से चुनाव लड़े नरदेव सिंह बॉबी मान और अमृतसर से अनिल जोशी ही अपनी जमानत बचा पाए। 

चुनाव में अपनी जमानत न बचा पाने वालों में खडूर साहेब से विरसा सिंह  वल्टोहा  हैं जिनको 8.7 % वोट प्राप्त हुए। सुखबीर बादल ने अपने पारिवारिक सदस्य आदेश प्रताप सिंह जो पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के बेटे हैं, के सुझाव के विरुद्ध विरसा सिंह वल्टोहा को प्रत्याशी बनाया था। जिसके चलते  काफी नाराजगी के बाद चुनावी वक्त में सुखबीर बादल ने आदेश प्रताप सिंह कैरों को पार्टी से ही निकल दिया था।  जालंधर की सीट पर कांग्रेस से चुनाव  से पहले दल बदल कर आये  मोहिन्दर सिंह  केपी को चुनाव में उतारा था उनको 6.89 % ही वोट मिल सके। पार्टी के प्रवक्ता और अकाली दल के एक बड़े चेहरे दलजीत सिंह चीमा माझा की  गुरदास पुर सीट पर चुनाव लड़े और 7.95 % ही वोट ले सके। लुधियाना के उम्मीदवार रणजीत सिंह ढिल्लों 8.27 % और होशियारपुर से सोहन सिंह ठंडल 9.73 % तक ही रह गए। खालसा पंथ की स्थापना के स्थान आनंदपुर साहिब की सीट पर पूर्व सांसद  प्रेम सिंह चंदूमाजरा कोई करिश्मा नहीं कर सके और 11.01 % वोटों पर ही सिमट गए।

सिख इतिहास में फतेहगढ़ साहेब का बहुत अहम स्थान है। अकाली दल के उमीदवार विक्रमजीत सिंह खालसा वहां 13.13% मत अपने पक्ष में ला सके। पटियाला से अकाली  प्रत्याशी एनके शर्मा को 13. 44 % मत मिले। फरीदकोट से राजविंदर सिंह धर्मकोट 13. 68 % वोट हासिल कर सके।  

भारत की राजनीति में सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के बाद अकाली दल की साख कभी इतनी फीकी नहीं पड़ी जितनी आज के दौर में है। दुनिया भर में सिख समुदाय में अकाली दल के प्रति विशेष सम्मान व विश्वास की भावना हमेशा बहुत गहरी रही है।  एक लम्बी विरासत पार्टी की बड़े अकाली जत्थेदारों ने हमेशा से पूरी सिद्द्ता से बनाई है। मास्टर तारा सिंह, गोपाल सिंह कौमी से ले कर जगदेव सिंह तलवंडी, हरचंद सिंह लोंगोवाल, सुरजीत सिंह बरनाला, गुरचरण सिंह टोहड़ा, प्रकाश सिंह बादल और अब सुखबीर सिंह बादल तक आते-आते पार्टी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है।  सुखबीर सिंह बादल के 2008 में पार्टी प्रधान बनाये जाने के बाद अधिकतर वो बड़े बादल

यानि अपने पिता प्रकाश सिंह बादल की छाया में कार्य करते दिकाई देते रहे। बाद के समय में उनके स्वतंत्र  फैसलों से पार्टी की छवि कमजोर हुयी। किसान आंदोलन इसमें एक बहुत बड़ा कारण रहा। हालांकि अकाली दल सिखों के हकों के लिए शुरू से ही मोर्चे लगता रहा और उसकी भूमिका हर मोर्चा में महत्वपूर्ण रही और उसका सीधा और मजबूत लाभ अकाली दल को मिलता रहा लेकिन किसान आंदोलन के दौरान अकाली दल के विरोधाभास के कारण वह केवल एक दूर खड़े  होकर देखने वाले तक ही सीमित हो कर रह गया। उससे पहले पंजाब में अकाली दल की सरकार के रहते 2014 में हुए श्री गुरु  ग्रन्थ साहेब की बेअदबी मामला (बहबल कलां  कांड) में भी सुखबीर सिंह बादल की भूमिका ने अकाली दल को गहरी चोट पहुंचाई।  डेरा सच्चा सौदा के मुखिया द्वारा गुरु गोबिंद सिंह का रूप धारण कर आयोजित अमृत प्रसाद वितरण की घटना के दोषी को अकाल तख्त से माफीनामा दिलवाना भी अकाली दल की छवि को धूमिल कर गया जिसमें साफ तौर पर सिख समुदाय के विश्वास को गहरी ठेस लगी। सुखबीर सिंह बादल की सत्ता की लालसा और महत्वाकांक्षा ने अकाली दल में लोगों के विश्वास को एक हद तक कमजोर कर दिया।  

(जगदीप सिंह सिंधु वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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