भाजपा में किसकी हिम्मत और हैसियत है जो मोदी सरकार की विफलताओं की समीक्षा कर सके

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2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित हुए दो हफ़्ते से ज़्यादा हो चुके हैं, लेकिन इंडिया शाईनिंग के दौर में वर्ष 2004 के चुनाव नतीजों की भाजपा द्वारा समीक्षा आज तक नहीं दिखी उसी तरह वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव की भाजपा वास्तविक समीक्षा करेगी या नहीं इस पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। तब अटल बिहारी वाजपेयी पीएम थे और आलोचना से परे थे। उसी तरह आज नरेंद्र मोदी पीएम हैं और पार्टी में किसी की हिम्मत और हैसियत नहीं है जो उनके कार्यकाल में सरकार के ऋणात्मक प्रदर्शन या असफलताओं अथवा कुशाशन की समीक्षा कर सके।

उत्तर प्रदेश के नतीजों ने भाजपा के कई मिथक तोड़ दिए। मोदी के ईश्वरत्व के दावे, उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता, सफल ‘सामाजिक इंजीनियरिंग’ करने वाली एकमात्र पार्टी के रूप में भाजपा की राजनीतिक प्रतिष्ठा, तथा वोट के लिए राम अभियान, सभी धराशायी हो गए।

उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के लिए केंद्रीय स्थान रहा है। 1996 में इसकी पहली सरकार इसकी ‘सबसे बड़ी’ स्थिति के कारण संभव हुई थी, जब इसे राज्य की 85 में से 52 सीटें मिली थीं। 2004 में यूपी में भाजपा 80 में से 10 सीटों पर सिमट गई और सत्ता से बाहर हो गई। 2009 में भी भाजपा 10 पर ही रही। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन फिर से सत्ता में आई।

2014 के बाद से, भाजपा ने यूपी में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में रिकॉर्ड सीटें हासिल की हैं – 2014 में 72 और फिर 2019 में 62। लेकिन 2024 आते-आते यह 33 सीटों पर सिमट कर रह जाएगी, जिसमें समाजवादी पार्टी ने अपने इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड बनाया है, जिसने 37 सीटें जीती हैं और शीर्ष पार्टी बनकर उभरी है। कांग्रेस को 6 सीटें मिली हैं।

2024 में बीजेपी को मिले वोटों की 2019 के वोट शेयर से तुलना करें तो पांच साल पहले उत्तर प्रदेश में बीजेपी का वोट शेयर 49.6% था. वहीं 2024 में ये 41.4 फीसदी रह गया। पिछली बार बीजेपी को यूपी में 4.3 करोड़ वोट मिले थे. लेकिन 2024 में वोटरों की संख्या बढ़ने के बावजूद बीजेपी को नुकसान हुआ। इस हिसाब से बीजेपी ने यूपी में अपने वोट शेयर में 2019 की तुलना में बड़ी गिरावट देखी।

80 में से 75 सीटों की बात करें बीजेपी के वोटों की संख्या में कुछ हजार वोटों से लेकर 2.2 लाख तक की गिरावट दर्ज हुई। यूपी में इस बार उसे करीब 65 लाख कम वोट मिले।जिन सीटों में इस बार भाजपा को कम वोट मिले उनमें पीएम मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी, योगी का गृह क्षेत्र गोरखपुर, राजनाथ सिंह का निर्वाचन क्षेत्र लखनऊ, हेमामालिनी का निर्वाचन क्षेत्र मथुरा और अयोध्या (फैजाबाद) सीट के अलावा मेरठ, अमेठी, सुल्तानपुर और रायबरेली का भी नाम है।

क्या भाजपा इस बात की समीक्षा करेगी कि बेरोजगारी, मंहगाई जैसी दिनप्रति दिन विकराल होती समस्या का समाधान करने के बजाय मोदी सरकार द्वारा इस दिशा में कोई सार्थक कदम न उठाने के कारण भाजपा अपने अकेले दम पर बहुमत से नीचे केवल 240 सीटें ही ला सकी।

भाजपा के इस काल में बेरोजगारी 45 वर्षों में सबसे अधिक पहुंच गई है। 2012 में बेरोजगारी एक करोड़ थी, जो 2022 में बढ़कर लगभग 4 करोड़ हो गई है। 10 लाख स्वीकृत पद खाली पड़े हैं। ग्रेजुएट्स और पोस्ट ग्रेजुएट्स के मामलों में बेरोजगारी दर लभगत 33 फीसदी है। हर तीन में से एक युवा नौकरी की तलाश रहा है। हर घंटे दो बेरोजगार आत्महत्या कर रहे हैं। वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमत मई 2014 में 2024 के बीच 20 फीसदी तक गिर गई है। कीमतों में प्रति बैरल 100 डॉलर से 79 डॉलर की कमी आई है। इसके बावजूद मोदी सरकार एलपीजी, पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि करती रहती है, जिससे अन्य सभी वस्तुएं महंगी हुईं।

मोदी सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। लेकिन इसकी जगह एमएसपी में निराशाजनक वृद्धि हुई और पीएम के पूंजीपति मित्रों की समृद्ध करने के लिए संसद के माध्यम से तीन कृषि कानूनों को पारित किया गया। इन काले कानूनों के खिलाफ आवाज उठाते हुए 700 किसान शहीद हुए। पीएम फसल बीमा योजना के तहत बीमा कंपनियों ने 40 हजार करोड़ रुपये का मुनाफा किया है, जबकि हर घंटे एक किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

भारत में 2022 में कुल 31,516 बलाकात्कार के मामले दर्ज किए गए हैं। यह प्रतिदिन के हिसाब से औसतन 86 का आंकड़ा है। बलात्कार के मामले बढ़ते जा रहे हैं। जबकि सजा की दर बेहद कम 27.4 फीसदी है। आज चीन ने हमारी सैकड़ों किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया है, लेकिन मोदी सरकार चुप रही। साथ ही अग्निपथ जैसी योजना लाकर सेना को कमजोर कर दिया है। इससे युवा देशभक्तों का मनोबल गिरा है। 2013 की तुलना में 2022 में एससी-एसटी समुदायों के खिलाफ अपराध 48 फीसदी तक बढ़ गए हैं। ओबीसी की गणना के लिए सामाजिक आर्थिक-जाति जनगणना आयोजित करने से सरकार का इंकार उन लोगों का अपमान है, जिन्हें नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रतिनिधित्व से वंचित किया जा रहा है।क्या इन वजहों का चुनाव परिणामों पर देश व्यापी असर रहा इसकी समीक्षा भाजपा करेगी।

जहाँ तक यूपी का सवाल है भाजपा के पास वास्तव में यह बताने के लिए कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण नहीं है कि उसने 2019 की तुलना में 29 सीटें क्यों खो दीं और कागज पर कमजोर दिखने वाली विपक्षी ताकत के खिलाफ 7% से अधिक वोट क्यों खो दिए।

भाजपा अपने प्रदर्शन का मूल्यांकन करने और यह पता लगाने के लिए बैठकें कर रही है कि उसे इतनी सीटें क्यों खोनी पड़ी, वहीं कई नेताओं ने पार्टी में अंदरूनी कलह को जिम्मेदार ठहराया है और इस गिरावट के लिए ‘तोड़फोड़’ का आरोप लगाया है। भीतरघात (हिंदी शब्द जिसका मोटे तौर पर मतलब तोड़फोड़ होता है) भाजपा नेताओं के अपने नुकसान के आकलन के लिए एक आकर्षक शब्द के रूप में उभरा है।

पश्चिम में मुजफ्फरनगर से लेकर पूर्व में सलेमपुर तक, हारने वाले भाजपा सांसदों ने अपने सहयोगियों पर उन्हें हराने की साजिश रचने का आरोप लगाया है। भाजपा की हार और इंडिया ब्लॉक की जीत – समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने 43 सीटें हासिल की – का अधिक वैज्ञानिक आकलन बूथ-वार और विधानसभा क्षेत्र के आंकड़ों की समीक्षा के बाद संभव होगा।लेकिन क्या यह वास्तविक समीक्षा है।

भाजपा यह क्यों नहीं बताती कि राजस्थान, हरियाणा, बिहार और बंगाल मे उसकी सीटें क्यों घट गयीं। राममन्दिर, मुसलमान मछली मंगल सूत्र जैसे साम्प्रदायिक मुद्दों पर मोदी सरकार का कुशासन कैसे भारी पड़ गया। क्या इसकी समीक्षा भाजपा करेगी।

अगर 2019 से वोट प्रतिशत की तुलना करें तो 2024 में एनडीए पूरे यूपी में अलोकप्रिय हो जाएगा। एनडीए ने 80 में से 79 सीटों पर वोट प्रतिशत गिरा दिया। गौतम बुद्ध नगर में भी, जहां इसने अपना वोट शेयर बढ़ाया, वह केवल 0.05% था।

आज लाख टके का सवाल है कि क्या भाजपा अपने निराशाजनक परिणामों से कई तात्कालिक सबक लेगी। सबसे पहले, भाजपा और उसकी टॉप लीडरशिप को अपने अहंकार को कम करना होगा या पूरी तरह से त्यागेगी।

भाजपा क्या आत्मचिंतन करेगी कि हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग उसके मुस्लिम विरोधी अभियान के प्रति उदासीन क्यों दिखाई दिया। भाजपा की ध्रुवीकरण रणनीति और मुसलमानों के खिलाफ़ भय फैलाने की कोशिश हिंदुओं को उसके पक्ष में वोट देने के लिए क्यों नहीं उकसा पाई?

भाजपा क्या यह समझेगी कि वह अब महंगाई और नौकरियों के इर्द-गिर्द आजीविका की ज्वलंत चिंताओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती। अगर वह ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में लोगों के जीवन में वास्तविक बदलाव चाहती है, तो उसे इन मोर्चों पर काम करना होगा। भाजपा क्या बेरोजगारी के मुद्दे पर अपनी नीतियों की समीक्षा करेगी।

पांचवां, 2014 से भाजपा जिस तरह से केंद्रीकृत तरीके से काम कर रही है और विधायकों और सांसदों की स्वायत्तता कम हो गई है, उसने जमीनी स्तर पर मुद्दों को समय पर समाधान के लिए उचित तंत्र के बिना ही उबलने दिया है। मोदी के पंथ पर अत्यधिक निर्भरता ने यह भी सुनिश्चित किया है कि निर्वाचित प्रतिनिधि अपना समर्थन आधार विकसित नहीं कर पाते हैं।

भाजपा एक दशक से अधिक समय से केंद्र में और सात साल से अधिक समय से राज्य में सत्ता में है। फिर भी इसके अभियान का एक बड़ा हिस्सा विपक्षी दलों के शासन की विफलताओं और गड़बड़ियों को याद करने में लगा रहता है। क्या भाजपा कभी अपनी उपलब्धियों को बताने की स्थिति में होगी।

भाजपा के प्रति मतदाताओं का आक्रोश इस कदर रहा कि यूपी में हार केवल भाजपा की नहीं बल्कि उसके सहयोगियों की भी हुई। भाजपा के सहयोगी दलों में सबसे शर्मनाक हार घोसी में हुई जहां सपा के राजीव राय ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर को 1.62 लाख मतों से हराया। सपा के नेतृत्व वाले गठबंधन के हिस्से के रूप में 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद एनडीए में वापस आए ओम प्रकाश राजभर को अपनी संदिग्ध निष्ठा, असंगत राजनीति और सत्ता के लिए अपने समुदाय के हितों की बलि देने की कीमत चुकानी पड़ी।

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की न केवल बुरी हार हुई, बल्कि उसके अधिकांश सहयोगी दलों का प्रदर्शन भी उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा। भाजपा ने 2024 का लोकसभा चुनाव चार औपचारिक सहयोगियों के साथ लड़ा-पश्चिम में राष्ट्रीय लोक दल और पूर्वांचल में निषाद पार्टी, अपना दल (सोनीलाल) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी। इन चारों दलों का अन्य पिछड़ा वर्ग, यानी जाट, निषाद, कुर्मी और राजभर के बीच समर्थन आधार है। इनके समर्थन ने भाजपा की यादव विरोधी ओबीसी राजनीति को मजबूती दी।

यूपी की 80 सीटों में से पांच पर भाजपा के सहयोगी दलों ने चुनाव लड़ा था। चौधरी जयंत सिंह की आरएलडी, जो चुनाव से ठीक पहले विपक्ष से सत्ताधारी गठबंधन में शामिल हो गई थी, ने बागपत और बिजनौर दोनों सीटों पर जीत हासिल की। बागपत में आरएलडी के राजकुमार सांगवान ने 1.59 लाख वोटों से जीत दर्ज की, जबकि बिजनौर में पार्टी के मौजूदा विधायक चंदन चौहान ने सपा के दीपक सैनी को 37,508 वोटों से हराया।

पिछले दो लोकसभा चुनावों में आरएलडी को एक भी सीट नहीं मिली थी। 2019 में, जब उसने एसपी-बीएसपी महागठबंधन के हिस्से के रूप में तीन सीटों पर चुनाव लड़ा, तब भी उसे कोई फायदा नहीं हुआ। जबकि भाजपा आरएलडी के साथ अपने गठबंधन का पूरा लाभ नहीं उठा सकी, पश्चिमी यूपी की प्रमुख सीटों मुजफ्फरनगर और शामली में हार गई, लेकिन बाद में गठबंधन से आरएलडी को फायदा हुआ।

2014 से ही यूपी में बीजेपी की लगातार सहयोगी पार्टी अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल (एस) रही है। पटेल नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री हैं और उनके पति आशीष पटेल आदित्यनाथ सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं।

2014 और 2019 के चुनावों में दो-दो सीटें जीतने वाली अपना दल (एस) इस चुनाव में सिर्फ़ एक सीट जीत पाई। पार्टी नेता अनुप्रिया पटेल ने वाराणसी से सटी अपनी सीट मिर्जापुर में 37,810 वोटों के मामूली अंतर से जीत हासिल की और उन्हें सिर्फ़ 42.67% वोट मिले, जबकि 2019 में उन्हें 53.3% वोट मिले थे।

हालांकि, उनकी पार्टी, जो कृषि प्रधान कुर्मी समुदाय के समर्थन पर बहुत अधिक निर्भर है, अपने चुनाव चिह्न पर लड़ी गई दूसरी सीट, रॉबर्ट्सगंज की पिछड़ी सीट पर हार गई। सपा के उम्मीदवार छोटेलाल खरवार ने AD (S) की उम्मीदवार रिंकी कोल को 1.29 लाख वोटों के अंतर से हराया। 2019 में, AD (S) ने यह सीट 54,000 से अधिक मतों से जीती थी।

संत कबीर नगर में निषाद पार्टी के अध्यक्ष और कैबिनेट मंत्री संजय निषाद के बेटे और मौजूदा भाजपा सांसद प्रवीण निषाद हार गए। प्रवीण निषाद, हालांकि निषाद पार्टी से जुड़े थे, लेकिन सीट बंटवारे के तहत एक बार फिर भाजपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ रहे थे। उन्हें सपा के उम्मीदवार और पूर्व विधायक लक्ष्मीकांत निषाद ने 92,000 से अधिक मतों से हराया।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)

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