
यदि आज अचानक कोई भाजपा का शीर्ष नेता कांग्रेस के बड़े नेता की शान में कसीदे पढ़ने लगे तो आप क्या कहेंगे? यही न कि दाल में कुछ काला है। कुछ-कुछ यही हाल है सरदार पटेल की प्रतिमा का। कुछ इसी तरह की कहानी है। प्रतिमा से ज्यादा प्रतिमा बनवाने वाले राजनैतिक रणनीतिकार के छिपे मंसूबों के उजागर होने की कहानी।
और इसी लिए “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी” के स्वप्नद्रष्टा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब आजाद भारत के पहले उप प्रधानमंत्री लौह पुरुष के नाम से विख्यात, सरदार वल्लभ भाई पटेल की सादगी भरे जीवन के ठीक उलट उनकी बहुचर्चित 597 फुट ऊंची भव्य प्रतिमा का 31 अक्टूबर को अनावरण करेंगे, तो इसके साथ ही कई अनुत्तरित सवाल छोड़ कर जायेंगे गुजरात से ।
कमाल की बात तो ये है इन सवालों के जवाब बुतपरस्त भजपाइयों के सिवा हर कोई पहले से ही जानता है। कम से कम गुजरात में तो लोग जानने लगे हैं, पूरे देश की बात फिलहाल छोड़ भी दें तो। हां, कांग्रेसियों की बात अलग है- जान कर भी अनजान बनना शायद उनकी कोई राजनैतिक मज़बूरी होगी।
वैसे गुजरात में सब मानते हैं कि सरदार पटेल ही महात्मा गांधी के बाद सबसे बड़े आइकॉन हैं। सिर्फ पाटीदार कम्युनिटी के ही नहीं। मोदी के सरदार पटेल एक राजनैतिक औजार भर हैं। सरदार के विचारों से भले ही कोई वास्ता न हो, खुद को उनके विचारों का वंशज बनाने की जुगत में हैं। एक समय जब अपने को छोटे सरदार कहलाने का भूत सवार था।
मोदी के कभी करीबी रहे लोग कहते हैं कि प्रतिमा बना कर मोदी असल में सरदार के विचारों को ऊंचा नहीं दिखा रहे हैं। बल्कि लौह प्रतिमा स्थापित कर सरदार को एक ‘शो पीस’ बना रहे हैं।
प्रतिमा के स्वप्नद्रष्टा इस बहाने, खासकर विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा बना कर, अपना भी कद ऊंचा करना चाहते हैं। और फिर सबसे ऊंची प्रतिमा के निर्माता के तौर पर खुद को अमर कर देना चाहते हैं।
यानि सरदार पटेल के विचोरों की प्रासांगिकता से स्टैच्यू का कतई कोई लेना देना नहीं है। अगर होता तो शायद 3000 करोड़ की लागत से बनने वाली, चीन निर्मित प्रतिमा स्थापित ही नहीं की जाती। इलाके के ग़रीब आदिवासियों को विस्थापित कर, स्टैच्यू का प्रोजेक्ट नहीं बनता।
आदिवासियों के विरोध के बावजूद लौह पुरुष की लौह प्रतिमा का अनावरण करने वाले के इरादे भी जरूर फौलादी होंगे। वरना जनमत की परवाह करने वाला एक निर्वाचित नेता इतनी हिम्मत कैसे जुटा पाता।
सरदार पटेल को बारदोली सत्याग्रह के बाद महिलाओं ने ‘सरदार’ की उपाधि दी थी और 565 रियासतों का भारत में विलय कराने के लिए उन्हें लौह पुरुष का खिताब मिला ।
प्रधानमंत्री मोदी ने सरदार के प्रति अपनी आस्था और भक्ति को राजनैतिक रंग देकर लौह प्रतिमा के जरिये कांग्रेस से अपने वैचारिक युद्ध को एक नया आयाम दे दिया है। ये युद्ध उन्होंने मुख्यमंत्री रहते शुरू कर दिया था। अपनी पूरी शक्ति लगा कर कांग्रेस की खासकर नेहरू के वंशजों के खिलाफ सरदार पटेल को खड़ा कर, फजीहत करने की कोशिश की। कुछ हद तक कामयाबी मिली भी। पर सवाल अपनी जगह खड़े हैं जवाब पाने के लिए।
सवाल सरदार पटेल की प्रासंगिकता का बिल्कुल नहीं है। सरदार अन्य आइकॉन्स जितना ही रेलिवेंट हैं। अखंड भारत, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक समता, सामाजिक सद्भावना, गरीब-किसानों के प्रति विशेष लगाव- ये जीवन मूल्य उन्हें कॉर्पोरेट प्रेमी मोदी से अलग करते हैं । जब जातिवाद, साम्प्रदायिकता और प्रांतवाद रहेगा, सरदार पटेल इन सामाजिक बुराइयों के घटाटोप अंधेरे को चीरते हुए रोशनी की तरह चमकते रहेंगे। इस विवादास्पद प्रतिमा की जगमगाहट के बिना भी।
रात में प्रतिमा पर पड़ने वाली रोशनी की जगमगाहट से केवड़िया, नर्मदा डैम के निचले भाग में, वन्य प्राणियों को त्रास तो झेलना ही पड़ेगा, आस-पास के दर्जनों आदिवासी गांव भी बेहद खफा हैं। नहीं, सरदार पटेल से नहीं, उनकी प्रतिमा की वजह से, सेंसटिव इको जोन की परवाह किये बिना। उन्हें बेदखल होना पड़ा, इस लिये। एक विस्थापित का जीवन जीने के लिये मजबूर होने के कारण।
यही एक बजह है कि आदिवासी विरोध कर रहे हैं स्टैच्यू का। उन्होंने ऐलान किया है कि 31 अक्टूबर को खाना नही पकाएंगे। काला दिवस मनाएंगे।
सरदार पटेल जो कि गरीब और हासिये पर खड़े लोगों के बेपनाह हिमायती थे, वे शायद अपनी इतनी बड़ी प्रतिमा बनाने की कभी इज़ाजत नहीं देते जिससे इतने आदिवासियों को प्रभावित होना पड़े।
खैर, आदिवासियों के लिये सरकार के पास विकास का झुनझुना है। पर्यटन, रोजगार के अवसर जैसे रंगीन सपने हैं। कुछ विकास के आंकड़े भी दिए जांएंगे चबाने और पचाने के लिये। शायद उस दिन से कोई नया जुमला भी तैरने लगे फ़िजाओ में। बहिष्कार को सुअवसर में बदलने की मनमोहक बात भी की जा सकती है, हमेशा की तरह।
और एक स्वाभाविक प्रश्न भी पूछा जा सकता है मोदी जी से कि आखिर वे सरदार पटेल को, जो कि एक कांग्रेसी थे, इतना महिमा मंडित क्यों कर रहे हैं? सरदार पटेल ने तो मोदी की मातृ संस्था आरअसएस पर गांधी जी की हत्या के बाद प्रतिबंध तक लगाया था।
सवाल और भी हैं। मसलन जिस कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना के चलते मोदी जी ने कांग्रेस मुक्त भारत का क्रांतिकारी नारा दिया, सरदार पटेल उस पार्टी के रास्ट्रीय अध्यक्ष थे और 26 सालों तक वो गुजरात कांग्रेस के प्रेसिडेंट रहे।
तो फिर अपने विचारधारा के आइकॉन का महिमा मंडन के बजाय एक प्रखर कांग्रेसी नेता को क्यों चुना मोदी ने जो कि एक कमिटेड गांधीवादी थे जिनका संघ परिवार की विचारधारा से घोर विरोध था।
असल में मोदी का सरदार पटेल की विचारधारा से कोई लेना देना नहीं है। और न ही कोई लगाव है। उनका एक मात्र मकसद है पाटीदार कम्युनिटी के सबसे बड़े नेता को ग्लोरिफायी करना। यह मोदी की जातिवादी राजनीति के तहत एक सोची समझी रणनीति है। पाटीदार गुजरात में एक पावरफुल कम्युनिटी। साम्प्रदायिक राजनीति से आगे जाकर जातीय सिम्बोलिज्म की राजनीति के तहत सरदार की प्रतिमा। असली मुद्दों से हटकर, नेहरू के सामने एक गुजराती प्राइड से जोड़ते हुए देखना।
प्रोफेसर गौरांग जानी का मानना है कि सरदार भले ही एक कद्दावर पाटीदार नेता थे, मूलतः स्वभाव से वे एक सादगी पसंद किसान थे जिनका जन्म नाडियाड में हुआ था। अब सवाल ये है नडियाद, खेड़ा और चरोतर पाटीदार बेल्ट में सरदार की प्रतिमा को स्थापित न कर नर्मदा जिले में क्यों किया ?
कारण साफ है वह किसानों की जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकते थे। पाटीदार अपनी उपजाऊ जमीन कभी नहीं देते। हर सूरत में गरीब आदिवासी को ही तथाकथित विकास लक्ष्यी प्रोजेक्ट के लिये कुर्बानी देनी पड़ती है जो कि एक तरह से सरदार के उसूलों की बिल्कुल विरुद्ध है।
इस लिहाज से विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा का अनावरण करना मोदी की चिर परिचित चकाचौंध की राजनीति का एक नमूना भर है। इसे इसी तरह देखा जाना चाहिए। सेलिब्रेशन, लाइट एंड साउंड एंड इवेंट मैनेजमेंट की राजनीति। सरदार के आदर्शों, विचारों से मूर्ति का कतई कोई वास्ता नहीं। प्रतिमा का अगर किसी से वास्ता है तो स्वयं मोदी से है जिसने दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा बनवाई, लगवाई। और इस तरह कांग्रेस के नेता का कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल कर मोदी कांग्रेस की राजनैतिक विरासत को छल से हड़पने की कोशिश करते दिखते हैं। चौदह प्रतिशत पाटीदारों को रिझाने के चक्कर में 15 प्रतिशत आदिवासियों और 30 फीसदी सवर्णों को खफा कर दिया। प्रतिमा के अनावरण से पहले गुजरात में बीजेपी द्वारा प्रायोजित एकता यात्रा की विफलता इसका सबूत है।
(बसंत रावत टेलीग्राफ के अहमदाबाद के ब्यूरो चीफ रहे हैं।)