बनारस। पूर्वांचल में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की करारी हार के पीछे संगठन की कमजोरी नहीं, बल्कि वो क्षेत्रीय दल रहे, जिन्हें पार्टी ने बेवजह अपने गले में बेमतलब के पट्टे की तरह डाल लिया था। वोटरों ने बीजेपी के सहयोगी दलों के बड़बोले नेताओं को न सिर्फ करारा तमाचा मारा, बल्कि उन्हें उठाकर राजनीति के कूड़ेदान में फेंक दिया। चाहे वो सुभासपा के मुखिया ओमप्रकाश राजभर रहे हों, या फिर अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल अथवा निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद। लोकसभा के आम चुनाव में इनके न सिर्फ पांव उखड़े, बल्कि जनता के बीच वह दगे कारतूस साबित हुए।
बीजेपी ने लोकसभा चुनाव जीतने के लिए सुभासपा के मुखिया ओमप्रकाश राजभर को अपने साथ जोड़ा था। अपना दल की अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी के संजय निषाद पहले से ही इस दल के साथ पाजामे के नाड़े की तरह बंधे थे। बीजेपी ने अनुप्रिया के लिए मिर्जापुर व राबर्ट्सगंज की सीट छोड़ी, तो ओमप्रकाश के पुत्र अरविंद राजभर के लिए घोसी संसदीय सीट। कबीरनगर लोकसभा सीट पर बीजेपी ने अपने सिंबल पर संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को मैदान में उतारा। वोटरों ने तीनों नेताओं को सिरे से खारिज कर दिया।
मिर्जापुर सीट पर कड़े मुकाबले के बीच अनुप्रिया पटेल भले ही किसी तरह लोकसभा चुनाव जीत भी गईं, लेकिन वो राबर्ट्सगंज की दूसरी सीट नहीं बचा पाईं। वहां उनके प्रत्याशी रिंकी कोल को करारी हार का सामना करना पड़ा। पूर्वांचल की जनता ने ओमप्रकाश और संजय के बेटों को न सिर्फ सिरे से खारिज किया, बल्कि उनका पांव उखाड़ने में तनिक भी संकोच नहीं किया। सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर तो दगे कारतूस साबित हुए।
बीजेपी के नेता अब खुद दावा कर रहे हैं कि वो अपने समाज का एक भी वोट बीजेपी के फेवर में ट्रांसफर नहीं करा सके। उनके बेटे अरविंद राजभर घोसी सीट पर मैदान में थे, लेकिन वहां भी राजभर समुदाय का 60 फीसदी वोट इंडिया गठबंधन के पक्ष में चला गया। दूसरी ओर, दारा सिंह चौहान का भी वोट अरविंद राजभर को नहीं मिला। चौहान समुदाय के एक चौथाई वोटरों ने गठबंधन प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया।
बेआबरू हो गए बड़बोले नेता
पूर्वांचल में लोकसभा की छह सीटें ऐसी हैं जहां राजभर समुदाय ही हार-जीत का फैसला करता रहा है। बलिया, सलेमपुर, घोसी, गाजीपुर, चंदौली, आजमगढ़ लोकसभा सीटों पर राजभर समुदाय निर्णायक माना जाता रहा है। बड़बोलेपन के लिए चर्चित ओमप्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर घोसी सीट तो हारे ही, पड़ोस की सलेमपुर सीट पर वो राजभर समाज का वोट बीजेपी को नहीं दिला सके। सलेमपुर में सपा के रमाशंकर राजभर चुनाव जीते। वहां ओमप्रकाश राजभर कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। इस सीट पर दो बार के सांसद रहे रविंद्र कुशवाहा के पराजय की समीक्षा की जाए तो बीजेपी का हर कार्यकर्ता इसका ठीकरा ओमप्रकाश राजभर के माथे पर ही फोड़ता नजर आ रहा है।
निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय निषाद को भी वोटरों अब सिरे से खारिज कर दिया है। संतकबीर नगर सीट पर वह अपने बेटे प्रवीण निषाद को निषाद समुदाय का वोट भी नहीं दिला पाए। इस सीट पर बीजेपी की करारी हार हुई है। मजेदार बात यह है कि कबीरनगर में प्रवीण बीजेपी के सिंबल पर ही मैदान में उतरे थे। राजभर की तरह ही संजय भी अपने बेटे के मोह में फंसे रहे और उनके समुदाय ने उन्हें पूरी तरह खारिज कर दिया।
उधर, प्रतापगढ़ की जनसभा में अपना दल (एस) की मुखिया अनुप्रिया पटेल के बड़बोलेपन के चलते बीजेपी प्रत्याशी को भारी नुकसान उठाना पड़ा। वहां अनुप्रिया ने बीजेपी के पक्ष में हमेशा तनकर खड़ा रहने वाले राजा भैया के खिलाफ अनर्गल बयान दे डाला। इसके चलते सिर्फ प्रतापगढ़ ही नहीं, बीजेपी को कई सीटें गंवानी पड़ गईं। राजा भैया फैक्टर के चलते अकबरपुर, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। वो भले ही मिर्जापुर में चुनाव जीत गईं, लेकिन वह राबर्ट्सगंज सीट नहीं बचा सकीं।
राजनीतिक कार्यकर्ता प्रज्ञा सिंह कहती हैं कि, ” छोटे दलों के बड़बोले नेताओं के चलते पूर्वांचल में बीजेपी की दुर्गति ज्यादा हुई। पूर्वांचल की सियासत में ये उन परजीवी पौधों की तरह हैं जो खुद तो हरे-भरे हो सकते हैं, लेकिन जिसके साथ जाएंगे, उनके लिए बोझ जाएंगे। यही वजह है कि पूरी ताकत झोंकने के बावजूद कई सीटों पर बीजेपी बहुत पीछे छूट गई। चुनाव के दौरान बड़बोले नेताओं की ओछी हरकतों के चलते बीजेपी के कोर वोटर खफा थे। अकेले ओमप्रकाश राजभर के चलते गाजीपुर, आजमगढ़, चंदौली समेत आधा दर्जन सीटों पर बीजेपी को बड़ा डेंट लगा। इन सीटों पर बीजेपी के काडर वोटर उदासीन हो गए थे अथवा उनके खिलाफ जाकर वोट किया था।”
“पूर्वांचल की जनता क्षेत्रीय दलों की हकीकत जान गई है और लोगों को यकीन हो गया है कि ये क्षेत्रीय दल पुत्रवादी और परिवारवादी हैं। वो जिस समुदाय से आते हैं उन्हें वो सिर्फ जुमला पढ़ाते हैं और अंदरखाने सिर्फ गोटियां फिट करने की कोशिश में लगे रहते हैं। निषाद समुदाय के वोटर अगर डा.संजय पर भरोसा जता रहे होते तो गोरखपुर में बीजेपी के रवि किशन की जीत चार लाख से अधिक वोटों से होती।”
औंधे मुंह गिरे तीन छोटे दल
हिन्दुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हेमंत श्रीवास्तव अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं कि, “बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए का हिस्सा प्रदेश के तीन छोटे दल इस चुनाव में औंधे मुंह गिरे हैं। इन तीनों दलों के नेताओं का बड़बोलापन ही इन्हें भारी पड़ा है। पूर्वांचल, बुंदेलखंड और मध्य उत्तर प्रदेश में जातीय राजनीति के ठेकेदार के रूप में खुद को प्रचारित करने वाले सुभासपा, निषाद पार्टी और अपना दल (सोनेलाल) के नेताओं की मौकापरस्ती को मतदाताओं ने बेनकाब करने का काम किया है। इन दलों को समझौते में मिली चार सीटों में से महज मिर्जापुर सीट पर अद (एस) की अध्यक्ष केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ही लगातार तीसरी बार चुनाव जीतने में सफल रही हैं।”
“पूर्वांचल, बुंदेलखंड व मध्य उत्तर प्रदेश में बड़े जनाधार का दावा करने वाली भाजपा की सहयोगी इन तीनों छोटे दलों की राजनीतिक जमीन इस चुनाव में खिसकती नजर आई है। साल 2019 लोकसभा चुनाव में पूर्वांचल की दो सीटों से जीत दर्ज करने वाले अपना दल (सोनेलाल) राबर्ट्सगंज की सीट हार गई है। निषाद पार्टी के अध्यक्ष डा. संजय निषाद के पुत्र प्रवीण निषाद जो संतकबीरनगर से भाजपा के निवर्तमान सांसद हैं, चुनाव हार गए हैं। पूर्वांचल की तीन सीटें जो इन दोनों सहयोगी दलों के खाते में गिनी जाती थी, उसमें से महज मिर्जापुर की एक सीट ही इनके खाते में आई है।”
रिपोर्ट के मुताबिक, “निषाद पार्टी अध्यक्ष डा. संजय निषाद के सांसद पुत्र जो इस बार भी संतकबीरनगर से भाजपा के सिबल पर चुनाव मैदान में थे, वह सपा प्रत्याशी पप्पू निषाद से 92,170 मतों से चुनाव हार गए हैं। इस चुनाव में डा। संजय निषाद लगातार भाजपा से अपने सिंबल पर कोई सीट मांग रहे थे जो नहीं मिली थी। सपा ने निषाद बिरादरी से ही पप्पू निषाद को प्रत्याशी बनाकर निषाद वोट बैंक में सेंधमारी की। डा. निषाद से निषाद बिरादरी की नाराजगी को भी इस सीट से हार के कारणों के रूप में तब्दील हो गई।
यूपी में बीजेपी की करारी हार के बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को 6 जून 2024 को दिल्ली बुलाया था। बातचीत के बीच योगी ने उत्तर प्रदेश में उन सभी छोटे दलों को बाहर का रास्ता दिखाने का सुझाव दिया, जिन्होंने इस चुनाव में बीजेपी को तगड़ी चपत लगाई है। योगी का कहना था कि बाहरी लोगों को अहमियत दिए जाने से बीजेपी के कार्यकर्ता खासे नाराज थे। इन दलों को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया गया तो आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी का भला होने वाला नहीं है और दुर्गति से इनकार नहीं किया जा सकता है।
कैसे बढ़ा ओमप्रकाश का क़द
बनारस के सारनाथ स्थित महाराजा सुहेलदेव राजभर पार्क में करीब 22 साल पहले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन किया गया था। इससे पहले साल 1981 में ओमप्रकाश राजभर कांशीराम से जुड़े और वहीं से उन्होंने सियासत का ककहरा सीखा। सियासत में आने से पहले वह बनारस में सिंधोरा से फूलपुर तक भाड़े की जीप चलाया करते थे। राजभर को कांशीराम के पास पहुंचाने का श्रेय बसपा के वरिष्ठ नेता जगन्नाथ कुशवाहा को जाता है। कुशवाहा ने उन्हें गाड़ी चलाने व पार्टी का प्रचार करने के लिए अपने साथ जोड़ा और बाद में कांशीराम एवं मायावती के करीब पहुंचाया।
साल 1996 में बसपा ने उन्हें वाराणसी का जिलाध्यक्ष बनाया। बाद में भदोही जिले का नाम संत रविदास नगर किए जाने पर ओमप्रकाश और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के बीच वैचारिक मतभेद उभरे। साल 2001 में उन्होंने बसपा को अलविदा कह दिया और वह सोनेलाल पटेल की पार्टी अपना दल के साथ जुड़ गए। सोनेलाल से भी उनके वैचारिक मतभेद उभरे और वो वहां भी नहीं टिक पाए। फिर उन्होंने सुभासपा बनाई और खुद उसके मुखिया बन बैठे।
बड़बोलापन और पुत्रमोह की सियासत के चलते ओमप्रकाश राजभर का साथ उनके समुदाय के लोगों ने छोड़ना शुरू कर दिया। अंततः वो जनता का भरोसा खो बैठे। राजभर वह समुदाय है जो घोसी, बलिया, चंदौली, सलेमपुर, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, लालगंज, अंबेडकरनगर, मछलीशहर, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, भदोही सीटों को प्रभावित करते है। नेपथ्य में देखें तो राजभर समाज पहले बसपा के ज्यादा करीब था। सुखदेव राजभर, राम अचल राजभर, रमाशंकर राजभर सरीखे नेताओं को बसपा पहली पांत में बैठाया करती थी। इससे बसपा को काफी मजबूती मिली और राजभर समुदाय के लोग मायावती के साथ तनकर खड़े हो गए।
बीजेपी, सपा, बसपा ने जब ओमप्रकाश राजभर को तवज्जो नहीं दी तो उन्होंने राजभर समुदाय को सुभासपा के पीले झंडे के नीचे लामबंद करने के लिए पृथक पूर्वांचल राज्य, पिछड़ों को अति पिछड़ों को अनुसूचित जाति में शामिल करने और अनुसूचित जाति का कोटा बढ़ाने की डिमांड शुरू कर दी। साथ ही यह भी कहना शुरू कर दिया, “ओबीसी आरक्षण का लाभ सिर्फ यादव और कुर्मी समुदाय को ही मिल पाया है।
मौर्या, कुशवाहा, राजभर, चौहान, प्रजापति, पाल, नाई, गोंड, केवट, मल्लाह, गुप्ता, चौरसिया, लोहार, अंसारी, जुलाहा, धनिया की सभी दलों ने अनदेखी की। इसी तरह एससी आरक्षण का लाभ चमार, धुसिया, जाटव को मिला, लेकिन मुसहर, बांसफोर, धोबी, सोनकर, दुसाध, कोल, पासी, खटिक, नट को हमेशा हाशिए पर रखा गया है।
सुभासपा नेता ओमप्रकाश राजभर पिछले विधानसभा चुनाव में सपा के साथ थे। उन्होंने अपने बेटे अरविंद राजभर के लिए सपा से शिवपुर की सीट मांगी। वहां हारे तो बीजेपी के खेमें में चले गए और लोकसभा की घोसी सीट पर चुनाव लड़े तो मुंह की खानी पड़ी। यही हाल संजय निषाद का भी रहा। कुछ वजहों से अनुप्रिया जरूर बच गईं, लेकिन पटेल समुदाय में भी यह बात चली गई कि इनकी समूची राजनीति इनके और इनके पति के लिए है। वोटरों ने इसी वजह से इन्हें भी सबक सिखा दिया। इस समुदाय ने भी अब ओमप्रकाश को बाय-बाय कह दिया है।
क्यों छीज रही ओपी की ताक़त
सुभासपा मुखिया ओमप्रकाश राजभर के साथ पिछले 17 सालों तक उनके सबसे करीबी और सलाहकार रहे शशि प्रकाश सिंह (चार सालों तक सुभासपा के प्रवक्ता भी रहे) अब उनका साथ छोड़ चुके हैं। वह कहते हैं, “ओमप्रकाश नहीं चाहते कि राजभर समुदाय का कोई दूसरा नेता उनके मुकाबले सियासत में उभरे। उन्हें सबसे ज्यादा छटपटाहट अपने बेटे अरविंद राजभर और अरुण राजभर को सियासत में जमाने की है। कड़वा सच यह है कि ओमप्रकाश के पास अब वोट बैंक नहीं रह गया है। राजभर समुदाय के लोगों का उनसे मोहभंग हो गया है, क्योंकि उन्हें यह पता चल गया है कि वो उनके वोटों के सौदागर हैं। वो खुद चार-पांच गाड़ियों के काफिले के साथ चलते हैं और खुद को गरीबों का मसीहा बताते हैं। यूपी की सियासत में जो हश्र बसपा की मायवाती का होने वाला है, वैसा ही ओमप्रकाश का भी होगा।”
“लोकसभा चुनाव में हुई करारी हार के बाद राजभर को अब कोई भी पार्टी अपने साथ जोड़ने के लिए तैयार नहीं होना चाहेगी। सभी दलों को मालूम है कि वो जिसकी थाली में खाते हैं उसमें छेद जरूर करते हैं। वह भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा और अपना दल (सोनेलाल) के साथ जुड़े तो इन दलों के साथ दग़ाबाजी करने से बाज नहीं आए। बड़े दलों का साथ पकड़ना और फिर उन्हें गाली देना इनकी पुरानी फितरत है। साल 2017 से पहले इन्होंने कांग्रेस से टिकट मांगा और पैसा भी। पैसा नहीं मिला तो साथ छोड़ दिया। फिर कई छोटे दलों को मिलाकर एकता मंच बनाया और ऐन वक्त पर उन्हें भी छोड़ दिया। साल 2017 में बीजेपी से गठबंधन हुआ तो तय हुआ कि वो मुख्तार के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे, मौका आया तो खुद जहूराबाद चुनाव लड़ने चले गए और बाहुबली मुख्तार अंसारी से अंदरूनी तालमेल बनाकर अपने ही प्रत्याशी महेंद्र को चुनाव हरवा दिया।”
शशि प्रताप ऐलानिया तौर पर कहते हैं कि पूर्वांचल की सियासत में ओमप्रकाश सबसे बड़े धोखेबाज और झूठे आदमी हैं। राजभर वोटरों का झूठा आंकड़ा गिनाकर वो बड़े दलों को अर्दब में लेने की कोशिश करते हैं। सच यह है कि सिर्फ घोसी, गाजीपुर, चंदौली और बलिया में क्रमशः 01 लाख, 65 हजार, 64 हजार, 50 हजार वोटर हैं। राजभर के गिना देने भर से उनकी बिरादरी के वोटर बढ़ जाएंगे, ऐसा नहीं है। पूर्वांचल के मिर्जापुर, इलाहाबाद, फैजाबाद और बस्ती मंडलों में राजभर वोटर नहीं के बराबर हैं, जबकि वहां वो अपना भारी जनाधार गिनाते रहे हैं।”
पूर्वांचल में इनसे ज्यादा तो प्रजापति समुदाय के वोटर हैं। इस समुदाय के वोटरों की तादाद 3.9 फीसदी है, जबकि राजभर 1.5 फीसदी से ज्यादा नहीं हैं। पूर्वांचल में बीजेपी के साथ ओबीसी की जातियों में सिर्फ पटेल ही नहीं, मौर्य-कुशवाहा, प्रजापति, मल्लाह, बिंद, केवट, सोनकर हैं तो सपा के साथ यादव, पाल, मुसलमान। मुफ्त आवास और राशन के चलते जाटव को छोड़कर मैक्सिमम दलित बीजेपी के पाले में खड़े दिखते हैं। इस बार राजभर का तिलिस्म टूट गया। कोई भी सियासी दल अब उनसे तालमेल करने से पहले दस बार सोचेगा।”
परिवारवादी नेताओं को मिली सीख
वरिष्ठ पत्रकार और चुनाव विश्लेषक प्रदीप कुमार कहते हैं, “मौजूदा लोकसभा चुनाव में जनता ने उन सभी नेताओं को सबक सिखा दिया जो बड़बोलेपन के शिकार थे। वो चाहे क्षेत्रीय दलों से जुड़े रहे हों या फिर सत्तारूढ़ दल से। ऊल-जलूल बयान देने वालों के खिलाफ वोटरों ने अपने गुस्से का इजहार किया। किसी के लिए कुछ भी बोल देने वालों को एक तरह से जनता ने न सिर्फ करारा तमाचा मारा, बल्कि उन्हें कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। अपने राजनीतिक मुनाफे के लिए वो स्वजातीय समूहों को इकट्ठा करके गोलबंदी करते थे, इसकी भी इस बार कलई खुल गई। इस चुनाव में यह भी साफ हो गया इन्हें स्वजातीय समूह से कोई लेना-देना नहीं हैं। वो सिर्फ अपने परिवार को सियासत में खड़ा करना चाहते हैं।”
“सामाजिक न्याय का जुमला उछालकर जातीय समूहों को गोलबंद करने वाले ओमप्रकाश राजभर का सामाजिक न्याय के दर्शन से दूर-दूर का कोई लेना नहीं है। इनकी समूची राजनीति सौदेबाज की तिकड़म पर आधारित है। एक ऐसी तिकड़म जिसमें वह अपने समाज के उत्थान के नाम पर खुद को लड़ते हुए दिखाते हैं, लेकिन सच्चाई इसके ठीक उलट है। सियासत में वो सिर्फ अपने परिवार की भलाई के लिए अपने समाज का इस्तेमाल करते हैं। इनकी राजनीति से न तो राजभर समाज में राजनीतिक चेतना पैदा हुई है और न ही वो अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए मजबूत संकल्प बना पाए है। इन्हें राजभर समाज का वोट तो चाहिए, लेकिन इस समाज का कोई दूसरा बड़ा नेता नहीं चाहिए। ये अवसरवादी लोग हैं जो सत्ता के गलियारों में पहुंचने के लिए अपने समाज का इस्तेमाल करते हैं। जब राजभर समाज मुश्किल में फंसता है तो वो कहीं नजर नहीं आते हैं।”
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप यह भी कहते हैं, “राजभर का सामाजिक न्याय का नारा अपने परिवार के लिए मलाई काटने के लिए है। कुछ जुमले ये एक सांस में उछालते हैं, ताकि उनकी बिरादरी के लोग उन पर लट्टू हो जाएं। लेकिन ऐसे नारे वक्त के साथ दफन हो जाया करते हैं। कुछ साल पहले इसी तरह के जुमले बसपा सुप्रीमो मायावती भी उछाला करती थी, जो वक्त के साथ अपनी चमक खो बैठे। जिन जुमलों और सोशल इंजीनियरिंग के दम पर मायावती सत्ता में आई उनकी आज क्या हैसियत है, हर किसी को पता है। राजभर बसपा से दांव-पेच सीखकर निकले हैं और उन्हें भी अब एहसास हो गया होगा कि उनकी सियासी स्थिति भी मायावती जैसी होने वाली है।”
“सिर्फ राजभर ही नहीं, अपना दल की अनुप्रिया पटेल की सियासत भी सिर्फ अपने परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती है। मिर्जापुर सीट जीने के बाद वो राज्यमंत्री बनीं और बाद में अपने पति आशीष पटेल को विधान परिषद भेजकर उन्हें भी यूपी मंत्रिमंडल में शामिल करा दिया। डा.संजय निषाद का हाल इन दोनों नेताओं जैसा ही है। पूर्वांचल की राजनीति में सिर्फ बाबू सिंह कुशवाहा ही एक ऐसे नेता रहे जो बेहद सौम्य दिखे। चुनाव से पहले भी और चुनाव के दौरान भी। उनके बयान और भाषणों में कहीं अतिरेक नहीं दिखा। सिर्फ मुद्दों पर चुनाव लड़े। संविधान और आरक्षण पर सवाल उठाते रहे। लोकतांत्रिक संस्थाओं की दुर्दशा पर चर्चा करते रहे। नतीजा यह निकला कि पीडीए का कोर वोटर इनके पीछे खड़ा हो गया। जाति और धर्म की दीवारें टूट गईं।”
कुशवाहा से सपा को मिली संजीवनी
इस मामले में अखिलेश यादव के समझ की तारीफ की जा सकती है कि उन्होंने राजपूतों के गढ़ जौनपुर में बाबू सिंह कुशवाहा को मैदान में उतारकर पूर्वांचल में यह मजबूत संदेश दिया कि सपा गैर-यादव और अति-पिछड़ों के साथ खड़ी है। बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, “पूर्वांचल की राजनीति में बाबू सिंह कुशवाहा फैक्टर सपा को मजबूती दे सकता है। सपा मुखिया को चाहिए कि वह सोशल इंजीनियरिंग को आगे बढ़ाते हुए बाबू सिंह कुशवाहा को सपा में बड़ी जिम्मेदारी दें और एक नया आधारभूत वोटर ब्लाक तैयार करें। साथ ही कुशवाहा के तजुर्बे के साथ चुनाव लड़ेंगे तो साल 2027 के विधानसभा चुनाव में सपा को इसका बड़ा लाभ मिल सकता है।”
पूर्वांचल की राजनीति को गहराई से समझने वाले पत्रकार जौनपुर के पत्रकार कपिलदेव मौर्य कहते हैं कि यूपी के पूर्वी अंचल में मौर्य-कुशवाहा, पटेल-कुर्मी, यादव, निषाद, राजभर, प्रजापति आदि जातियों की बिसात पर ही सारे सियासी दांव खेले जाते हैं। बीजेपी को आगे बढ़ाने में जातिवादी पार्टियों का बड़ा हाथ है। अब से पहले ये पिछड़ों और दलितों को गोलबंद नहीं होने दे रहे थे। वह कहते है, “पूर्वांचल में सिर्फ जनअधिकार पार्टी के मुखिया बाबू सिंह कुशवाहा ऐसे नेता रहे, जिन्होंने कभी बड़बोलेपन का परिचय नहीं दिया। सपा ने उन्हें टिकट दिया तो प्रचार के दौरान सिर्फ मुद्दे ही उठाए। वो वोटरों को लगातार ताकीद करते रहे कि बीजेपी सत्ता में आई तो न संविधान बचेगा, न आरक्षण।”
कपिलदेव कहते हैं, “राजपूत बाहुल्य जौनपुर सीट पर बाबू सिंह कुशवाहा का एक लाख वोटों से चुनाव जीतना पत्थर पर दूब जमाने जैसा रहा। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने जब कुशवाहा पर भरोसा जताया तो पूर्वांचल के कोईरी, कुशवाहा-मौर्या वोटर सपा के साथ आ गए। खेती-किसानी करने वाला यह वो समुदाय है जो पिछले दो दशक से बीजेपी के पल्लू से बंधा हुआ था। यूपी में बीजेपी की करारी हार के पीछे कुशवाहा, मौर्य, कोईरी, शाक्य, सैनी का सबसे बड़ा रोल रहा। जौनपुर में अगर बाबू सिंह को टिकट नहीं मिला होता तो पूर्वांचल में सपा के साथ इस समुदाय का समर्थन नहीं दिखता। तब शायद लोकसभा चुनाव की तस्वीर कुछ और होती।”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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