क्या इंडिया गठबंधन के 11 मुख्यमंत्री गोदी मीडिया को एक और झटका देने पर विचार कर रहे हैं?

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अभी 14 न्यूज़ चैनलों के एंकरों के प्रोग्राम का बहिष्कार करने की घोषणा के बाद जारी विवाद शांत भी नहीं हो पाया है कि एक नया बम फूटने की संभावना की खबर आ रही है। एंकर्स के प्रोग्राम का यदि बहिष्कार किया जाता है तो इससे उन पत्रकारों की प्रतिष्ठा पर असर पड़ता है, और उनके कार्यक्रमों में यदि सिर्फ भाजपा के प्रवक्ता या समर्थकों की ही मौजूदगी होती है तो यह पहल संबंधित एंकरों की रेटिंग को गिरा सकती है। लेकिन चैनल मालिकों और उनके मुनाफे पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ने जा रहा है।

लेकिन 11 राज्य सरकारों की ओर से यदि एक राय से इस बात का फैसला लिया जाता है कि अब वे उन गोदी चैनलों को राज्यों से विज्ञापन नहीं देंगे, तो इसका सीधा असर चैनलों की माली हालत और मालिकान के बैंक बैलेंस पर निश्चित रूप से पड़ सकता है। इससे संबंधित बातें विभिन्न पक्षों से की जाने लगी हैं।

वे चैनल कौन से होंगे, और इसे कब से लागू किया जा सकता है, इसको लेकर अभी से कयास लगना शुरू हो चुका है। इंडिया गठबंधन से जुड़े तमाम नेताओं पर उनके समर्थकों ने दबाव भी बनाना शुरू कर दिया है। इसी तरह से एक एक्स हैडल से इस तरह का ट्वीट किया गया है जिसमें कहा गया है कि आज एक विशाल गठबंधन के रूप में विपक्षी दल एकजुट होकर देख पा रहे हैं कि वे न सिर्फ शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता से दो-दो हाथ कर सकते हैं, बल्कि जीएसटी, केंद्र राज्य संबंधों सहित तमाम ज्वलंत मुद्दों पर अपनी क्षेत्रीय और एकांगी सोच के साथ चलते हुए उन्होंने स्वंय का और देश का कितना अहित किया है। एकजुट होकर विपक्षी दलों ने न सिर्फ खुद को नई ताकत और ऊर्जा से भर दिया है, बल्कि देश के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को भी इससे मजबूती हासिल हुई है। गोदी मीडिया के खिलाफ 11 राज्यों के मुख्यमंत्रियों की यह पहल न्यूज़ मीडिया को ही अधिक पारदर्शी और लोकतांत्रिक बनाने के लिए बाध्य कर सकती है, जिसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए।

विवादित तीन कृषि कानूनों को भाजपा सरकार द्वारा संसद में एन-केन-प्रकारेण पारित कराने का जिस प्रकार से किसानों द्वारा अभूतपूर्व विरोध पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित देशभर में हुआ, और दिल्ली के बॉर्डर्स पर एक साल से भी लंबे समय तक चले विरोध प्रदर्शन के दौरान मोदी सरकार के साथ-साथ गोदी मीडिया के चैनलों और एंकर्स का पहली बार मुखर बायकाट किसान संगठनों द्वारा ही किया गया था। 

संयुक्त किसान मोर्चे के तहत चले इस ऐतिहासिक आंदोलन को ही इसका श्रेय जाता है, जिसने भारतीय मीडिया में सत्ता और बड़ी पूंजी के स्वार्थपूर्ण गठबंधन की न सिर्फ शिनाख्त करने का काम किया, बल्कि यह जानते हुए भी कि उनके आंदोलन को पहले से ही विभिन्न चैनलों के दरबारी पत्रकार और भी बदनाम करने में दिन रात एक कर सकते हैं, किसान नेताओं की ओर से उन्हें बाइट देने के बजाय भारत में स्वतंत्र मीडिया और यूट्यूब चैनलों की एक समानांतर मीडिया नेटवर्क को खड़ा करने में अपना बेहद अहम योगदान दिया है।

आज के दिन, स्थापित मीडिया चैनलों के पास अपने पारंपरिक दर्शक वर्ग को आधा घंटा भी बांधकर न रख पाने के पीछे इन्हीं सोशल मीडिया साइटों और यूट्यूब न्यूज़ चैनल का कमाल है, जिस पर कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी ही नहीं बल्कि अब स्वयं भाजपा की ओर से भी बड़ी पहल ली जा रही है। अंग्रेजी अखबार द इकॉनोमिक टाइम्स ने 15 सितंबर को इसे अपनी एक्स्क्लूसिव खबर बनाया है, जिसमें उसकी ओर से खुलासा किया गया है कि आगामी विधानसभा चुनावों और 2024 लोकसभा चुनावों के मद्देनजर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के द्वारा सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की रिक्रूटमेंट की जा रही है। अकेले 5 राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए रिजनल प्रोफेशनल कालेजों से लेकर आईआईटी और आईआईएम तक से फ्रेशर्स की नियुक्ति की जा रही है। आने वाले महीनों में 20,000 से भी अधिक युवाओं के लिए 2024 का चुनाव रोजगार के अवसर खोलने जा रहा है। 

सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और कथित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों के लगातार घटते प्रभाव को संसद के मानसून सत्र में राहुल गांधी और पीएम मोदी के भाषणों को ऑनलाइन कितने लोगों ने देखा था, से देखा जा सकता है। ऐसे में जो लोग देश की दशा-दिशा तय करते हैं और अपने आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों में भारी निवेश करते हैं, उनके लिए जरुरी हो जाता है कि अपने निवेश की पाई-पाई वसूलने के लिए इन राजनीतिक दलों को आवश्यक सलाह और निर्देश मुहैया कराएं।

जैसे-जैसे समय चक्र तेजी से आगे बढ़ रहा है, प्रिंट मीडिया के बाद अब टीवी न्यूज़ के दिन भी ढल रहे हैं। महानगरों में आज के दिन टेलीविजन के सामने परिवार के सदस्य बैठकर समाचार, सीरियल, फिल्में और यहाँ तक कि क्रिकेट मैच तक नहीं देखते। हाँ, नोएडा मीडिया के लिए अभी भी ग्रामीण भारत और दूर-दराज के कस्बे प्रमुख उपभोक्ताओं के रूप में बने हुए हैं, जहां इंटरनेट की सहज उपलब्धता अभी भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भारत जोड़ो आंदोलन के दौरान राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से श्रीनगर तक की यात्रा के दौरान एक भी न्यूज़ चैनल के साथ बातचीत नहीं की थी।

राहुल के सभी साक्षात्कार सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स और यूट्यूब चैनलों को चलाने वाले युवाओं से हुई थी। राजनीतिक पार्टियों के द्वारा अपना खुद का भी आईटी सेल और मीडिया नेटवर्क तैयार किया जा रहा है, जिसके पास अपने प्रमुख नेता की छवि को गढ़ने और जन-आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर उनकी भाषा में बोलने और उनके साथ दिखने पर पूरा जोर दिया जा रहा है। ऐसे में इंडिया गठबंधन के 11 राज्यों में सरकार होने और प्रत्यक्ष रूप से अपने राज्यों की समस्याओं और जनसंपर्क केंद्र से अधिक रहता है, के लिए भी कथित नोएडा मीडिया के बजाय नए विकल्पों की तलाश का समय है। देखना होगा कि 28 दलों के इस विशाल जमावड़े को इस बारे में एकमत करने में कितना वक्त लगता है।  

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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