कर्पूरी ठाकुर यानि एक समाजवादी सियासी उस्ताद

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गणतंत्र दिवस की बेला में खांटी समाजवादी कर्पूरी ठाकुर को देश के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण भारत रत्न से सुशोभित करने का ऐलान किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने कर्पूरी ठाकुर के 17 फरवरी 1988 को गुजर जाने के एक चौथाई सदी के बाद यह सम्मान उन्हें देने की घोषणा की है। वह भारत के स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं बल्कि शिक्षक और बिहार के दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप-मुख्यमंत्री रहे थे। उन्हें जननायक भी कहा जाता है। भारत सरकार ने उन्हें नेता जी सुभाषचंद्र बोस की जयंती के दिन 23 जनवरी 2024 को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करने की घोषणा की। मोदी जी ने ट्वीट किया : कर्पूरी ठाकुर सच्चे जननायक थे, उनकी दृष्टि से ही प्रेरित है हमारे शासन का मॉडल। पता नहीं मोदी जी का यह कथन कितना सत्य है और कितना असत्य।

बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव में नाई जाति के गोकुल ठाकुर और रामदुलारी देवी के घर 24 जनवरी 1924 को पैदा कर्पूरी ठाकुर की इस बरस जन्मशती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आह्वान पर वह भी भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े थे। कर्पूरी को गिरफ्तार कर भागलपुर ‘ कैंप जेल’ भेज दिया जहां से वह 26 माह बाद ही 1945 में रिहा हुए।

प्रखर समाजवादी आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण (जेपी), डॉक्टर राममनोहर लोहिया और मधु लिमए न होते तो कर्पूरी जी शायद ही सियासत में आए होते। उनका जन्म जिस गांव में हुआ था उसका नाम अब ‘कर्पूरीग्राम’ कर दिया है और इसी नाम से पूर्व उत्तर रेलवे का छोटा स्टेशन भी है। समाजवादी पार्टी 1948 में बनी तो वह जेपी के कहने पर इसके प्रांतीय मंत्री बने। लोकसभा के 1967 के चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) बिहार में बड़ी सियासी ताकत बनी थी।

हम तब बिहार के सहरसा शहर में अमेरिकी ईसाई मिशनरियों के स्कूल में तीसरी क्लास पास कर पापा के पटना तबादला पर गंगा नदी तट पर बसे रानीघाट इलाके के कॉन्वेंट में पढ़ने चले आए थे। कर्पूरी जी को पहली बार 1970 में बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया तब हम पटना में ही थे। उसके बाद ही हमने भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध के समय पापा के पूर्णिया जिला में मुस्लिम बहुल किशनगंज सब डिवीजन के बहादुरगंज ब्लॉक चले आने पर मैट्रिक की परीक्षा पास की।

सहरसा के मिशनरी स्कूल और पटना के कॉन्वेंट में पढ़े होने से हमारी अंग्रेजी खराब नहीं थी पर गणित गड़बड़ था। भला हो उन परीक्षक का जिहोंने गणित के सवालों पर 29 नंबर के ही जवाब देने पर भी उसके पर्चे में पास कर दिया वरना हम मैट्रिक में ही फेल हो जाते, बहादुरगंज से आगे दरभंगा के चन्द्रधारी मिथिला विज्ञान कॉलेज में बॉटनी पढ़ने और फिर वहां से नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में चीनी भाषा और साहित्य की एमए की पढ़ाई करने नहीं जा पाते। बहादुरगंज समाजवादियों का गढ़ रहा था। वहां के दिलीप नारायण झा कुछेक बार विधानसभा चुनाव जीते थे। उनके चुनाव प्रचार में कर्पूरी जी आया करते थे और हमने उनको पहली बार करीब से वहीं देखा था।


पिछड़े तबकों के लिए हमेशा लड़ते रहे कर्पूरी ठाकुर का जीवन सदा सीधा और ग्रामीण रहा। उन्होंने 1978 में बतौर मुख्यमंत्री ‘मुंगेरी लाल आयोग’ की सिफारिश लागू कर पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 12 फीसद और अति पिछड़ा वर्ग के लिए 8 फीसद आरक्षण की व्यवस्था की थी।

पिछड़े तबकों के लिए हमेशा संघर्ष करते रहे कर्पूरी ठाकुर का निजी जीवन सादा और उनके नारे भी सरल थे जैसे: सौ में नब्बे शोषित हैं शोषितों ने ललकारा है धन धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है। अधिकार चाहो तो लड़ना सीखो, पग-पग पर अड़ना सीखो, जीना है तो मरना सीखो। वह खुद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, दिवंगत पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान और अभी भाजपा के राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी के सियासी लीडर रहे थे।

उन्होंने 1967 में पहली बार शिक्षा और उपमुख्यमन्त्री बनने पर बिहार में मैट्रिक परीक्षा पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी। तब अंग्रेजी के कारण अधिकतर लड़कियां मैट्रिक पास नहीं कर पाती थीं। कर्पूरी ठाकुर के काराये अध्ययन से पता चला कि अधिकतर छात्र अंग्रेजी में फेल हो जाते हैं। तब आठवीं क्लास से अंग्रेजी की पढ़ाई होती थी। उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था।

वह देश की आजादी बाद 1952 में पहली बार विधानसभा के लिए निर्वाचित होने के बाद कभी चुनाव नहीं हारे। वह जब मरे तो उनके नाम कोई मकान नहीं था। कर्पूरी ठाकुर ने पहली बार मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने बेटे रामनाथ ठाकुर को चिट्ठी में जो लिखा उसके बारे में वह खुद रामनाथ कहते हैं: चिट्ठी में उनको लालच से बचने मुख्यमंत्री का बेटा होने का फायदा नहीं उठाने की ताकीद थी। रामनाथ ठाकुर अब सियासत में उतर गए हैं। पर वंश की सियासत के विरोधी रहे कर्पूरी जी ने उनको कभी आगे नहीं बढ़ाया।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा है : कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी देखकर देवीलाल ने पटना में हरियाणवी मित्र से कहा था कि कर्पूरी जी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप दे देना। वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा। बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा: भई कर्पूरी जी ने कुछ मांगा क्या, तो उन मित्र का जवाब होता: नहीं साहब वे कुछ मांगते ही नहीं। कर्पूरी जी अपनी सीमित आय के कारण अक्सर साइकिल रिक्शे से ही आया जाया करते थे। किसी विधायक ने पटना में सरकारी योजना में जमीन ले लेने का सुझाव देकर पूछा आप नहीं रहिएगा तो आपका बाल-बच्चा कहां रहेगा। कर्पूरी जी ने कहा कि वह अपने गांव में रहेगा।

कर्पूरी जी को अपनी बेटी की शादी के लिए तब 1970-71 में बतौर मुख्यमंत्री रांची के एक गांव में वर देखने जाना था जब बिहार के विभाजन से पृथक झारखंड राज्य नहीं बना था। कर्पूरी ठाकुर वहां सरकारी कार के बजाय टैक्सी से गये थे। कर्पूरी जी चाहते थे कि विवाह देवघर मंदिर में हो पर उनकी पत्नी की जिद पर शादी उनके गांव में हुई। कर्पूरी जी ने अपने किसी मंत्री और बड़े अफसरों को बेटी की शादी में नहीं बुलाया।

पटना में कदम कुआं स्थित चरखा समिति भवन में जेपी के निजी आवास पर 1977 में उनका जन्म दिन मनाया जाना था। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, आरएसएस के प्रचारक नानाजी देशमुख जैसे बड़े नेता आए तो कर्पूरी जी मुख्यमंत्री होने पर भी फटा कुर्ता, टूटी चप्पल में वहां गए थे। चंद्रशेखर जी अपनी कुर्सी से उठे और उन्होंने अपने लंबे कुर्ते को सामने फैला कर्पूरी जी के कुर्ता फंड में दान देने का आग्रह किया। इस पर जमा कुछ सौ रुपए चंद्रशेखर जी ने कर्पूरी जी को थमा कर कहा इससे अपना कुर्ता-धोती ही खरीदिए, दूसरा काम मत कीजिएगा। हाजिरजवाब कर्पूरी जी कहा: इसे मैं मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दूंगा। लोकसभा के 1967 के चुनाव में डॉ. लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया तो कांग्रेस परास्त हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेस सरकार बनी जिसके कर्पूरी जी उपमुख्यमंत्री बने।

(सीपी झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस समय बिहार में रह रहे हैं।)

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