फासीवाद हमेशा से लोकतंत्र का एक अनिवार्य घटक रहा है, क्योंकि लोकतंत्र का उपनिवेशवाद से गहरा संबंध है। चूंकि भारतीय लोकतंत्र उपनिवेशवाद से भारत को मिला एक “उपहार” है, इस कारण उपनिवेशवाद की अंतर्निहित हिंसा भी हमें विरासत में मिली है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 की सांप्रदायिक हिंसा में 3000 निर्दोष सिखों की हत्या हमारे लोकतंत्र में हुई। दिसंबर, 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस और उसके परिणामस्वरूप उस महीने और 1993 की जनवरी में मुंबई में, लोकतांत्रिक भारत में, सांप्रदायिक हिंसा हुई, जबकि उस समय धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस पार्टी का शासन था। फिर फरवरी, 2002 में लोकतांत्रिक भारत के गुजरात राज्य में, जहां तब वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, वहां मुसलमानों का नरसंहार हुआ। क्यों? क्योंकि घृणा पर आधारित फासीवाद औपनिवेशिक सत्ता/संस्कृति का अभिन्न अंग होता है, जो सदैव पूंजीवादी लोकतंत्र में छिपा रहता है।
फासीवाद हिटलर से पहले और उसके बाद के लोकतंत्रों के अंदर मौजूद था। फासीवाद, अगर लोकतंत्र के बाहर से आए, तो आसानी से पहचाना जा सकता है और उसका जोरदार विरोध हो सकता है। लेकिन वह लोकतंत्र के साथ जुड़कर, उसमें छिपकर जीवित रह सकता है और फल-फूल सकता है। भारत सहित, दुनिया के पूंजीवादी लोकतंत्रों में लिंग, धर्म, भाषा, नस्ल/जाति व संप्रदाय को लेकर जो हिंसा चलती रहती है, उसे इसके सबूत के तौर पर देखा जा सकता है। फासीवाद वास्तव में पूंजीवादी समाज में शोषण को जीवित रखने का, हिंसा पर आधारित, एक गुप्त, कारगर और भरोसेमंद औजार होता है।
दूसरे महायुद्ध के बाद एडॉल्फ हिटलर और बेनिटो मुसोलिनी के पतन के साथ, ज़ाहिर तौर पर, फासीवाद का लोकतंत्र से एक अलग इकाई के रूप में अस्तित्व ज़रूर समाप्त हो गया था। लेकिन वह तो लोकतंत्र के अंदर हिटलर, मुसोलिनी से बहुत पहले से मौजूद था। द्वितीय विश्व युद्ध में धुरी शक्तियों (जर्मनी, इटली और जापान) की पराजय के साथ फासीवादी शक्तियाँ अवश्य नष्ट हुईं, लेकिन फासीवाद नहीं। वह एक विचार के रूप में, एक वास्तविकता के रूप में अपने आवश्यक तत्वों-सैन्यवाद, नस्लवाद, साम्राज्यवाद और (भारत के संदर्भ में) जातिवाद-के रूप में कभी ख़त्म नहीं हुआ। वह शोषक शासक वर्गों के डीएनए में पहले की तरह आज भी मौजूद है। पिछले कुछ दशकों से वह हमारे देश में आर्थिक विकास के रूप में, फिर वैदिक हिंदू संस्कृति और छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर लगातार पैर पसारता रहा है।
लोकतांत्रिक भारत का संविधान अपने नागरिकों को समान अधिकार, समान व्यवहार और भाषाई, धार्मिक या सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के लिए विशेष सुरक्षा की बात करता है। यह भारतीय समाज की अन्यायपूर्ण जाति व्यवस्था को, जो कम से कम दो हजार वर्षों से मौजूद है, ख़त्म करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई की भी मांग करता है। यह वह दृष्टिकोण है जो भारत में – अपूर्ण रूप से, अक्सर पाखंडी रूप से समर्थित- इसकी संस्थाओं में अंतर्निहित था। यही वह संविधान था, जिसके तहत नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन सके। लेकिन उसके बाद जो हुआ, वह इस बात की मिसाल है कि कैसे एक संकीर्ण मानसिकता वाली विचाराधारा संविधान को दरकिनार कर उसकी भावना का त्याग कर सकती है।
भाजपा और नरेंद्र मोदी की धार्मिक/ सांप्रदायिक राजनीति वास्तव में फासीवाद का हिंदूवादी संस्करण है। इसमें मोदी ने संविधान के कुख्यात अनुच्छेद 356 का इंदिरा गांधी की तरह उपयोग न करके लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित किसी राज्य सरकार को निलंबित कर राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया। लेकिन उसकी जगह बड़ी चालाकी से ईडी, सीबीआई, आईटी, पुलिस और धन-बल का इस्तेमाल कर कई विपक्षी सरकारों को भाजपा सरकारों में बदल दिया है। वह खुद लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आए और फिर उन्होंने लोकतंत्र का ढांचा तोड़े बिना, उसका हिंदू फासीवाद के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
आज देश में संवैधानिक लोकतंत्र का मुखौटा बेशक बरकरार है। वह संस्थाएं भी, जिन से इसे बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है, वह अब भी काम कर रही हैं। लेकिन जिन मूल्यों को वे अपना रही हैं, वे संविधान से प्राप्त नहीं हुए हैं। जिन मूल्यों ने, कम से कम आदर्शों के रूप में, उस देश को कायम रखा था जिसमें मोदी जैसे लोग सत्ता में आ सकें, वे मूल्य आज देश को नहीं चला रहे। वे मूल्य कहीं और से आते हैं और उन महत्वपूर्ण बदलावों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने इस देश को 2014 वाला भारत नहीं रहने दिया है।
आज भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र दयनीय स्थिति में खड़ा है। मुस्लिम नागरिकों के अधिकारों को नकारने की मुहिम पूरे जोर से चल रही है। गोलवलकर का वादा विधायिका से लेकर दैनिक जीवन की हर लय में पूरा हो रहा है। उसके साथ ही भय का माहौल भी बढ़ रहा है। भारत में हिंदू-मुस्लिम संघर्ष पहले से होता रहा है, लेकिन वह सांप्रदायिक हिंसा स्थानीय होती थी। परन्तु 2014 के बाद से एक नया चलन शुरू हुआ है: सैंकड़ों मुसलमानों को आतंकी बताकर जेलों में डाला गया है और दर्जनों को पीट-पीट कर मार डाला गया है। उनकी लिंचिंग ऊपरी तौर पर बेतरतीब ढंग से होती प्रतीत होती है, लेकिन उसके पीछे सुनियोजित सांप्रदायिकता विचाराधारा काम करती है। वह ट्रेन में, सड़कों पर या मुस्लिम घरों के बाहर कहीं भी लिंचिंग का रूप धारण कर सकती है। जहां तक औसत मुसलमान का सवाल है, उन्हें कहीं भी ऐसे कारणों से पीट-पीट कर मार डाला जा सकता है, जो कथित तौर पर गाय के मांस के कब्जे से ज्यादा कुछ नहीं होता।
मुसलमानों के विरुद्ध हमलों का नेतृत्व करने वाले लोग प्रत्यक्ष या वैचारिक रूप से आरएसएस से जुड़े होते हैं। वह लिंचिंग को अंजाम देते हुए खुद को रिकॉर्ड करते हैं और वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं। स्थानीय स्तर पर उन्हें प्रसिद्धि मिलती है, लेकिन किसी कानूनी कार्रवाई से वह काफी हद तक बचे रहते हैं। कारण, पुलिस ऐसे मामलों को आमतौर पर आगे नहीं बढ़ाती, क्योंकि अब पुलिसिंग के संवैधानिक मूल्यों की जगह गोलवलकर द्वारा निर्धारित मूल्यों ने ले ली है। पुलिस ही नहीं, देश की अधिकांश संस्थाएं भी अब उसी दृष्टिकोण का अनुसरण कर रही हैं, जो संवैधानिक नहीं बल्कि आरएसएस का है। भारत का अगला आम चुनाव इसी वर्ष में होना तय है, लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण उसके बाद आने वाला वर्ष यानि 2025 है। कारण, वह आरएसएस के सौ साल पूरे होने का वर्ष है और उसमें वह भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में देखने की प्रबल इच्छा रखता है।
हिंदू राष्ट्र के गठन पर गोलवलकर के विचार आज भी आरएसएस की विचारधारा का आधार हैं। नाज़ियों के बारे में एक जगह वह लिखते हैं, “नस्ल और इसकी संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने देश को सेमेटिक नस्लों-यहूदियों से मुक्त करके दुनिया को चौंका दिया।” “नस्लीय गौरव अपने उच्चतम स्तर पर यहां प्रकट हुआ है। जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि जिन नस्लों और संस्कृतियों के बीच जड़ तक मतभेद हैं, उनका एक एकजुट हो पाना कितना असंभव है, यह हिंदुस्तान में हमारे लिए सीखने और लाभ उठाने के लिए एक अच्छा सबक है।”
अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, से खतरे को परिभाषित करने के बाद, गोलवलकर उन परिस्थितियों की सूची बनाते हैं जिनके तहत वे एक हिंदू राष्ट्र में रह सकते हैं। वह लिखते हैं, “इन “विदेशी जातियों” को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाना चाहिए, हिंदू धर्म का सम्मान करना और आदर करना सीखना चाहिए, हिंदू जाति और संस्कृति के महिमामंडन के अलावा किसी और विचार को मन में नहीं लाना चाहिए। अर्थात हिंदू राष्ट्र और हिंदू जाति में विलय के लिए अपना अलग अस्तित्व खोना होगा, या देश में रहना होगा, पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के अधीन, कुछ भी दावा नहीं करना चाहिए, कोई विशेषाधिकार नहीं होना चाहिए, किसी भी तरह के विशेष व्यवहार की बात तो दूर – यहां तक कि नागरिक के अधिकार भी नहीं।’’
मोदी सरकार और भाजपा राज्यों द्वारा लाए गए सीएए, एनसीआर, एनआरपी, तीन तलाक और यूसीसी कानूनों को उसकी विचारधारा की रोशनी में देखा जा सकता है।
एम.एस गोलवलकर ने, हेडगेवार के बाद, 1940 में आरएसएस का नेतृत्व संभाला था और उसके मुख्य विचारक बनकर तीस वर्षों से अधिक समय तक इस संगठन का नेतृत्व किया था। संघ उन्हें गुरुजी के नाम से याद करता है। उसमें उनके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2007 में 16 लोगों पर आई मोदी की किताब में, जिन्होंने उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया, सबसे लंबा अध्याय गोलवलकर पर ही है।
आज़ादी के बाद से भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश रहा है, लेकिन मोदी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक नहीं हैं। वह आरएसएस के प्रचारक रहे हैं। भाजपा भी एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक पार्टी नहीं है। वह आरएसएस की राजनीतिक शाखा होने के कारण उसकी विचाराधारा से बंधी एक हिंदुत्ववादी पार्टी है। भारतीय राजनीति में उसका मकसद सत्ता हासिल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंतिम लक्ष्य (हिंदू राष्ट्र की स्थापना) को अमल में लाना है। यही कारण है कि वह आरएसएस के आदर्श की पूर्ति हेतु सत्ता में आने और उसमें बने रहने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद के साथ कुछ भी करने के लिए, किसी भी सीमा तक जाने को हमेशा तैयार दिखाई देती है।
(अवतार सिंह जसवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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