आरएसएस-भाजपा सरकार ने भारत को बना दिया लेबर चौराहा! 

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धन-धान्य व उपजाऊ भूमि से भरपूर, अपार खनिज संपदाओं से युक्त और सबसे बढ़कर 70 करोड़ से अधिक की युवा आबादी वाले हमारे देश भारत को कॉरपोरेट लूट व मुनाफे के लिए “लेबर चौराहे” में तब्दील कर दिया गया है। जिस तरह प्रत्येक शहर में स्थित लेबर चौराहों पर दिहाड़ी मजदूर मिला करते हैं। आज ठीक उसी तरह देश में डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, अफसर, सरकारी दफ्तरों व कारखाने के लिए डाटा ऑपरेटर और कुशल श्रमिकों का भी बाजार लगने लगा है, जहां कॉरपोरेट कंपनियां मनमाफिक लोगों को कुछ समय के लिए कॉन्ट्रैक्ट अथवा अपने प्रोजेक्ट की जरूरत के मुताबिक हायर (भर्ती) करती हैं। 

और समय पूरा होने या प्रोजेक्ट समाप्त होने के बाद फायर कर देती हैं। पहले इन्हें साइबर कुली भी कहा गया था, लेकिन अब इसमें डॉक्टर, प्रोफेसर, साइंटिस्ट व इंजीनियर भी शामिल हो गए हैं। इन हायर स्किल्ड लेबर्स और कॉन्ट्रैक्ट करने वाली कॉरपोरेट कंपनियों व सरकारी संस्थानों के बीच कोई श्रम कानून किसी तरह की दखल नहीं दे सकता, उसी तरह जैसे लेबर चौराहों के दिहाड़ी मजदूरों का कोई श्रम अधिकार नहीं होता। इसमें एम्स और जेएनयू जैसे बड़े रिसर्च संस्थान, सरकारी अस्पताल और विश्वविद्यालय भी शामिल हैं। 

दरअसल भारत में बेरोजगारी के कई स्तर हैं। एक तो वह जो उच्च शिक्षित-शिक्षित और अति कुशल-कुशल बेरोजगारी है, जिसमें बच्चे पढ़ाई पूरी करते-करते प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस, सेना, क्लर्की और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं और किसी तरह नौकरी किए जा रहे हैं।

दूसरा वह शिक्षित तबका है, जिन्हें पढ़ाई पूरी करने और प्रोफेशनल कोर्स करने के बाद भी नौकरी नहीं मिलती और वह उम्र अधिक हो जाने के कारण हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं या कोई छोट-मोटा काम करके जीविकोपार्जन करते हैं। अति कुशल और कुशल में आईआईएम, बीटेक, एमटेक, और पीएचडी के अलावा पॉलिटेक्निक व आईटीआई डिग्री डिप्लोमा होल्डर लोग हैं। इसमें भी बड़े संस्थानों से कोर्स पूरा करने वालों को कैंपस सिलेक्शन मिल जाता है, लेकिन उनकी संख्या सीमित है। 

कुकुरमुत्तों की तरह हजारों की संख्या में उग आए उच्च तकनीकी शिक्षण संस्थाओं से भी प्रतिवर्ष निकल रहे लाखों बच्चे अति सामान्य वेतन पर कंपनियों में नौकरी करते हैं, जिसमें वह पढ़ाई के लिए, लिए गए लाखों रुपए के लोन की ईएमआई भी नहीं भर पा रहे हैं। शिक्षित-अशिक्षित और कुशल-अकुशल बेरोजगारी का संकट देशव्यापी और व्यापक है, जो भयावह सुप्त ज्वालामुखी जैसा है। युवाओं का आक्रोश रह-रह कर शहरों पर भड़क उठता है, जो ज्वालामुखी के भीषण विस्फोट का आगाज़ हो सकता है।

सबसे खराब स्थिति में वह अर्ध कुशल और अकुशल मजदूर हैं, जो निर्माण क्षेत्र से लेकर छोटी-छोटी कंपनियों में न्यूनतम वेतन के अभाव में काम कर रहे हैं। अथवा रेहड़ी- खोमचा लगाने और रिक्शा-ठेला खींचने का काम करते हैं। वर्ष 2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि भारत में लगभग 36.5 करोड़ मजदूर हैं, जिनमें से 61.5% कृषि, 20% उद्योग और 18.5% विभिन्न सेवाओं में कार्यरत हैं। ज्ञात हो कि कृषि कार्य बल में ऐसे भी किसान हैं, जिनके पास सीमांत से लेकर बड़ी जोत वाली भूमि है। 

इनमें बड़ी संख्या भूमिहीन मजदूरों की है। वर्ष 2011 की जनगणना में यह आंकड़ा 14 करोड़ था। निश्चित रूप से यह संख्या काफी बढ़ चुकी है। इसके बाद मोदी सरकार ने कोई जनगणना नहीं कराई। करोड़ों भूमिहीन कृषि मजदूर गांव के अलावा शहरों में भी मौसमी काम के लिए आते हैं।

मनरेगा में औसतन 50% कार्य दिवस का काम ही उनको मिलता है और शहरों में भी उन्हें सरकार द्वारा घोषित वेज नहीं मिलता। एनएसएसओ सर्वे के अनुसार 2015-16 से वर्ष 2020-21 में नीचे से 50% की आबादी की आमदनी 14.4% से घटकर 9.8% हो गई। प्राइवेट सेक्टर में वेतन वृद्धि या तो एकदम नहीं हुई या महंगाई की तुलना में दो-चार प्रतिशत ही बढ़ी है। एक अनुमान के अनुसार ग्रामीण कार्य बल के 24.6% आबादी को एक दिन में 100 रुपए से भी कम की आमदनी हो रही है और शहरी कार्यबल के 10% लोगों की आमदनी ₹100 से कुछ ही अधिक है।

देश आजादी के बाद पहली बार पूर्ण और अर्ध बेरोजगारी के भयावह संकटों से जूझ रहा है, लेकिन आरएसएस-बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार के पास इससे संबंधित कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है। सरकार ने बीते एक दशक में जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं और जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया है और सांप्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय उन्माद को भड़काया है। उससे देश की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो रहा है। गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, जनसंख्या और विकास दर संबंधी आंकड़े जारी करने वाली संस्थाओं और संस्थानों को नष्ट कर दिया गया है या उनके कामकाज को निष्प्रभावी बना दिया गया है। 

अब सरकार को गोएबल्स फार्मूले के तहत प्रत्येक विषय पर देश को भ्रमित करने और प्रोपेगेंडा करने का मौका मिल गया है। अब केंद्र सरकार भाषणों में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी समाप्त करने के दावे कर रही है। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री ने नीति आयोग के हवाले से (सरकार का एचएमवी संस्थान) दावा किया कि 25 करोड़ लोग बीते 9 वर्षों में गरीबी की रेखा से बाहर आ गए हैं। लोकसभा के चुनाव में विपक्ष बेरोजगारी और महंगाई को प्रमुख मुद्दा बना रहा है और अपने घोषणा पत्र में नौकरियां देने का वायदा कर रहा है। वहीं भाजपा के संकल्प पत्र में बेरोजगारी शब्द का भी उल्लेख नहीं है। 

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने वर्ष 2017-18 में भारत की बेरोजगारी दर 45 वर्ष के उच्चतम स्तर 6.01% पर पहुंचने संबंधी रिपोर्ट अनाधिकारिक तौर पर जारी की थी, जिसे केंद्र सरकार ने यह कह कर खारिज कर दिया कि उसके आंकड़े वास्तविकता के आधार पर नहीं जुटाए गए हैं। उसी एनएसएसओ ने पिछले माह मार्च 2024 में बेरोजगारी पर रिपोर्ट जारी की जिसके अनुसार वर्ष 2023 में भारत में बेरोजगारी दर घटकर 3.1 प्रतिशत हो गई है।

इस रिपोर्ट पर सरकार प्रोपेगेंडा कर रही है। वहीं दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और मानव विकास संस्थान (आईएचडी) ने 26 मार्च 2024 को जारी रिपोर्ट में कहा है कि भारत के बेरोजगारों में 83% युवा हैं और कुल बेरोजगार युवाओं में माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं की हिस्सेदारी में भारी बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2000 के मुकाबले पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है। 2000 में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या कुल युवा बेरोजगारों में 35.02% थी, जो 2022 में बढ़कर 65.7% हो गई है। इसमें दसवीं या समकक्ष शिक्षित युवाओं की संख्या शामिल नहीं है। 

आईएलओ की रिपोर्ट पर सरकार खामोश है। इस तरह बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई संबंधी आंकड़ों को सार्वजनिक करने से रोक दिया गया है और मनमाने ढंग से आंकड़ों को तैयार कर प्रोपेगेंडा किया जा रहा है। दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले एक अनुमान के अनुसार भारत में केवल 20% सैलरी वाली नौकरियां दी जा रही हैं। शेष नौकरियों में जितने दिन काम उतने दिन के ही वेतन का प्रावधान है, जिन्हें साप्ताहिक अवकाश तक उपलब्ध नहीं है। अवकाश लेने पर दिहाड़ी मजदूर की तरह वेतन काटे जाने का प्रावधान है।

गोएबल्स प्रोपेगेंडा के तहत आरएसएस- बीजेपी की सरकार दावा कर रही है कि भारत दुनिया में पांचवीं अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है और चंद वर्षों में तीसरी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा। वैश्विक रेटिंग एजेंसियां बता रही हैं कि भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति रहते हैं। यहां एक सवाल उठता है कि सर्वाधिक अरबपतियों वाले देश में प्रति व्यक्ति आय कितनी है और उनका जीवन स्तर कैसा है? वास्तविकता यह है कि भारत में प्रति व्यक्ति आय बांग्लादेश के नागरिकों से भी कम है।

भारत को तीसरी अर्थव्यवस्था बनने के लिए जिन देशों को पीछे छोड़ना है उनके नागरिकों की आय और जीडीपी में जमीन आसमान का अंतर है। कोई भी लोक कल्याणकारी राज्य अपने नागरिकों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए रोजगार से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी सुविधा और कुपोषण से निपटने के लिए काम करती है। आरएसएस-भाजपा सरकार के सत्ता में आने से पहले शासक वर्गों की दूसरी पार्टियां कम से कम यह सब करने का दिखावा करती थीं, लेकिन मोदी सरकार सिर्फ और सिर्फ कॉर्पोरेट के मुनाफे और गोएबल्स के प्रोपेगेंडा पर काम कर रही है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में केंद्र और राज्य सरकारों सहित रेलवे, सेना, चिकित्सा, शिक्षा, अर्धसैनिक बलों, राज्य पुलिस बलों और अनेक सरकारी कार्यालयों में रिक्त पदों की संख्या 60 लाख से अधिक है। फिर इन पदों को कई वर्षों से नहीं भरा जा रहा है। इसकी बड़ी वजह यह है कि सरकार उपरोक्त सभी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निजीकरण कर चुकी है या कर रही है और जो बाकी हैं उन्हें भी तेजी से निजी क्षेत्र को सौंपा जाना है। सेवा में अग्नि वीर मॉडल को इसी रूप में देखना चाहिए। यह सेना, सुरक्षा बलों और पुलिस बलों में आने वाले वर्षों में ठेका नौकरी की शुरुआत का संकेत है। 

एशिया भर में प्रतिष्ठित एम्स जैसे चिकित्सा संस्थान में भी फैकेल्टी और डॉक्टरों को कॉन्ट्रैक्ट पर रखा जाने लगा है। दिल्ली सहित देश के अधिकांश हॉस्पिटल और मेडिकल कॉलेजों में मेडिकल और पैरामेडिकल स्टाफ ठेके पर रखे जाने लगे हैं। नई शिक्षा नीति के प्रावधानों के तहत देश के बड़े शिक्षण संस्थानों, उच्च प्रशिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों कॉलेजों और स्कूलों को देसी-विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों को सौंपा जाना है। रेलवे में अधिकांश नौकरियां पहले ही ठेके पर दी जा चुकी हैं। दर्जनों महत्वपूर्ण ट्रेनों का संचालन निजी क्षेत्रों को सौंपा जा चुका है। आरएसएस-भाजपा सरकार की तीसरी बार सत्ता में वापसी के बाद यह प्रक्रिया और तेज हो जाएगी। 

दरअसल मोदी सरकार कॉरपोरेट को सब कुछ देने के लिए तैयार है, क्योंकि वह किसी भी कीमत पर देश को ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ओर ले जाने पर आमादा है। इसके लिए वह अपने एक दशक के शासन काल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करती रही है और कॉरपोरेट को उसके फासिस्ट एजेंडे से कोई मतलब नहीं है। बल्कि भाजपा आज सत्ता के जिस केंद्र में पहुंची है उसके लिए कॉरपोरेट ने डेढ़ दशक से प्रयास किया है।

भारत में सरकारी नौकरियों को लेकर आम लोगों में हमेशा से एक ललक रही है। इसकी बड़ी वजह निश्चित वेतन, प्रतिवर्ष महंगाई भत्ता, वेतन बढ़ोतरी, स्वास्थ्य सुविधाएं, अवकाश और रिटायर होने के बाद पेंशन का प्रावधान था। इससे पूरे परिवार को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा मिलती थी। आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के पूर्व 8 वें दशक तक निजी क्षेत्र की कंपनियां भी श्रम कानूनों के तहत निश्चित वेतनमान, वेतन बढ़ोतरी और अन्य सुविधा देती थीं।

दरअसल एक निश्चित वेतन और नौकरी में स्थायित्व से जो आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा एक परिवार को मिलती थी। अब वह समाप्त हो गई है। सभी तरह की नौकरियां ठेके पर जा चुकी हैं या जाने वाली हैं। सैलरी वाली नौकरी से देश के सभी क्षेत्रों में आर्थिक प्रगति भी दिखाई देती है। 

अपने निश्चित वेतन में एक परिवार अच्छे भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य के बाद आवास की व्यवस्था करता है। वह उपभोक्ता वस्तुओं कपड़े, वाहन आदि उत्पादों की खरीद पर भी खर्च करता है। इससे देश की औद्योगिक और आर्थिक प्रगति का पूरा एक चक्र शुरू हो जाता है। कॉरपोरेट मीडिया बताता है कि नोट बंदी, कोरोना महामारी और आर्थिक मंदी के बावजूद मकान और गाड़ियां बिक रही हैं।

यह देखने की बात है कि वाहनों में महंगी और लग्जरी गाड़ियां बिक रही हैं और आवास भी करोड़ों रुपए से अधिक कीमत वाले बिक रहे हैं, जबकि गैर सरकारी क्षेत्र में नौकरी करने वालों की बड़ी संख्या का मासिक वेतन 25 से 50 हजार रुपए के बीच है। ऐसे में उनकी क्षमता लग्जरी वाहन और करोड़ों का घर खरीदने की नहीं है। 10 से 25 लाख रुपए की कीमत वाले मकान और चार-पांच लाख रुपए वाली गाड़ियां बाजार से नदारद हैं, जबकि रोजगार कर रहे लोगों में निम्न मध्य आय वर्ग की आबादी सबसे ज्यादा है।

केंद्र और राज्यों में दिसंबर 2022 में 80 लाख 50 हजार 977 और केंद्र सरकार के अधीनस्थ विभागों में 9 लाख 10 हजार 153 स्वीकृत पद रिक्त थे। आर्थिक उदारीकरण से पूर्व रेलवे में लगभग 16 लाख स्थाई और 3 लाख के आस-पास ठेके पर काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर होते थे। आज रेलवे में यह संख्या अनुमानित 11 लाख से कम है।

उसमें भी बड़ी संख्या ठेका वाले श्रमिक और कर्मचारी हैं। देश में रिक्त सरकारी पदों के आंकड़े समय-समय पर सरकार लोकसभा और राज्यसभा में सांसदों के सवालों के जवाब में देती रही है। दिसंबर 2021 में रेलवे में 3 लाख 62 हजार, थल सेना में एक लाख 75 हजार, वायु सेना में 8000, नौसेना में 12000, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 2 लाख, केंद्र सरकार के अस्पतालों में एक लाख 68 हजार, आंगनबाड़ी में एक लाख 76000, केंद्रीय विद्यालयों में 18000, नवोदय विद्यालयों में 16000, केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 20 हजार पद रिक्त थे। 

अन्य केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में 1662 आईटीआई, 7412 एनआईटी, 4662 आईआईएम, 946 सीबीआई, 1342 रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, 190 केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड, 1085 रक्षा क्षेत्र में अधिकारियों, 88 केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर शुल्क बोर्ड, 2127 आईबी, 123 भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक के दफ्तरों में, 1403 इंडियन ऑडिट एंड अकाउंट्स डिपार्टमेंट, 250 प्रवर्तन निदेशालय, 114 विदेश मंत्रालय और 190 केंद्रीय सचिवालय में पद रिक्त थे. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और जिला न्यायालय में जजों के लगभग 5000 पद रिक्त थे। 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों के 8 लाख 37 हजार पद रिक्त थे, तो 28 राज्यों के पुलिस कर्मियों के 5 लाख 31 हजार स्वीकृत पद रिक्त थे।

सरकारी नौकरियां के रिक्त पदों को देखते हुए अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा जारी “स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2023” रिपोर्ट का कहना है कि देश में युवा स्नातकों के बीच बेरोजगारी दर 42.3 प्रतिशत के स्तर पर है। सरकार की दलील रही है कि देश में रोजगार की जरूरत के मुताबिक लोग शिक्षित नहीं हैं। अथवा उनमें आवश्यक स्किल नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि स्नातक या उच्च योग्यता वाले युवा जिनकी उम्र 25 से 29 वर्ष के बीच है उनमें बेरोजगारी दर.8 प्रतिशत है। इसके बाद उच्च माध्यमिक स्तर की योग्यता वाले और 25 वर्ष से कम उम्र वाले लोगों में बेरोजगारी दर 21.4% है। 

बेरोजगारी पर केंद्रित “सीएमआई” की रिपोर्ट के अनुसार देश में 10 करोड़ स्नातक हैं। बड़ी संख्या बीटेक और आईटीआई, पॉलिटेक्निक डिग्री व डिप्लोमा होल्डर्स की है। सरकार अप्रशिक्षित और अन प्रोफेशनल डिग्री को बेरोजगारी का प्रमुख कारण बताती है और इसके लिए स्किल इंडिया जैसा फर्जी अभियान वर्षों से चलाया जा रहा है, लेकिन सरकारी दफ्तरों, पीएसयू और कॉरपोरेट कंपनियों में बीटेक, एमटेक, एमबीए डिग्री धारक युवा 20 से 50000 रुपए की ठेका नौकरी कर रहे हैं।

यह ठेका अवधि पूरी होने अथवा कंपनी का प्रोजेक्ट पूरा होने के बाद सेवा से निकाल दिए जाते हैं। कानून के बावजूद इनका कोई ग्रेच्युटी या प्रोविडेंट फंड नहीं होता। विश्वविद्यालयों, उच्च व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों और स्कूल व कॉलेज में तो अब एडहॉक और कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम को भी खत्म कर दिया गया है और वहां प्रति घंटा एक क्लास लेने के हिसाब से भुगतान किया जा रहा है। यह स्थिति दिल्ली विश्वविद्यालय सहित सभी केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों तथा व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों की है।

आरएसएस-भाजपा सरकार आजादी के 75 वर्ष पर अमृत काल मान रही है और भारत को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का ख्वाब देश को दिखा रही है। इसके विपरीत “विश्व असमानता डेटाबेस रिपोर्ट” के अनुसार भारत की 1 प्रतिशत आबादी के पास आय की हिस्सेदारी दुनिया में सबसे अधिक है। दक्षिण अफ्रीका, ब्राज़ील और अमेरिका भी भारत से पीछे है। दुनिया आश्चर्यचकित है कि जिस देश में 80 करोड़ लोग मुफ्त के भोजन पर आश्रित हैं। वहां दुनिया के सर्वाधिक अरबपति कैसे रहते हैं। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि देश में किसी भी मामले में वास्तविक डाटा उपलब्ध नहीं है। 

ऐसे में दुनिया भर की तमाम संस्थाएं जो सर्वे या रिपोर्ट जारी करती हैं। उन्हीं को पिछली सरकारी रिपोर्ट के साथ तुलनात्मक अध्ययन करके कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश राज में जो आर्थिक असमानता थी, स्थिति अब और खराब है। कोरोना महामारी के बाद जब देश और दुनिया में आर्थिक तंगहाली थी, तो भारत में 2022-23 में शीर्ष एक प्रतिशत आबादी के पास 22.6% आय और 40.01% संपत्ति थी। 

रिपोर्ट के अनुसार आजादी के बाद आठवें दशक की शुरुआत में आर्थिक असमानता में गिरावट आई थी। इसके बाद वर्ष 2000 से यह आसमान छूने लगी है। रिपोर्ट यह भी सवाल करती है कि इस असमानता के कारण कब तक देश बड़े स्तर पर सामाजिक व राजनीतिक उथल-पुथल के बिना बना रह सकता है ?

रिपोर्ट के आंकड़े अपनी जगह हैं, लेकिन महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी जैसे बुनियादी सवाल जो युवाओं, किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, महिलाओं से सीधे-सीधे संबद्ध हैं और वह सभी बीते वर्षों में आंदोलित होते रहे हैं। आज जरूरत उन सभी सवालों और प्रभावित तबकों को जोड़ने और साझा संघर्ष की है। ताकी आरएसएस-बीजेपी के फासिस्ट राज को उसके अंजाम तक पहुंचाया जा सके।

(अनिल द्विवेदी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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