अभी छह महीने नहीं गुजरे जब रिलायंस जिओ और भारती एयरटेल ने इलॉन मस्क की कंपनी स्पेस-एक्स के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। मुद्दा भारत में उपग्रह इंटरनेट सेवा देने के लिए स्पेक्ट्रम हासिल करने का था। मस्क स्पेस-एक्स की स्टारलिंक उपग्रह इंटरनेट सेवा को भारत में लाने की तैयारी में रहे हैं। उनकी मांग थी कि इसके लिए भारत सरकार प्रशासनिक फैसले से स्पेक्ट्रम का आवंटन करे। उधर रिलायंस जियो की भारत में इस सेवा के क्षेत्र में भी वर्चस्व बनाने की महत्त्वाकांक्षा जग-जाहिर थी। जियो की मांग थी कि स्पेक्ट्रम की बिक्री नीलामी के जरिए की जाए। बीते अक्टूबर में भारती एयरटेल भी इस मांग के साथ हो गई। भारत में इंटरनेट सेवा प्रदाता दोनों बड़ी कंपनियों के साथ आ जाने को तब एक बड़ी घटना के रूप में देखा गया था।
तब समझा यह गया कि स्पेस-एक्स के भारत आने पर सैटेलाइट इंटरनेट के क्षेत्र में जोरदार प्रतिस्पर्धा होगी। पहली होड़ स्पेक्ट्रम खरीदने के लिए होगी और फिर बाजार में अपना हिस्सा पाने के लिए। एक समय था, जब पूंजीवाद के पैरोकार प्रतिस्पर्धा को इस आर्थिक व्यवस्था का खास गुण बताते थे। दलील दी जाती थी कि प्रतिस्पर्धा के कारण कंपनियां अपने उत्पाद या सेवा की गुणवत्ता में लगातार सुधार करने के लिए मजबूर बनी रहती हैं, जबकि उन्हें अपने उत्पाद या सेवा को कम-से-कम कीमत पर उपलब्ध कराने के लिए भी आपस में होड़ करनी पड़ती है। इन दोनों लिहाज से उपभोक्ता फायदे में रहता है।
भारत के दूरसंचार बाजार में एक समय (साल 2000 से 2011-12 तक) विभिन्न कंपनियों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा देखने को मिली थी। उपभोक्ताओं ने तब उसका खूब लाभ उठाया। मगर उसके बाद एक-एक कर कंपनियां बाजार से बाहर होने लगीं और आज मोटे तौर पर इस बाजार में द्वि-अधिकार (duopoly) कायम हो गया है। हालांकि वोडाफोन और बीएसएनएल भी मार्केट में हैं, मगर अधिक मुनाफा वाले उपभोग क्षेत्रों में रिलायंस जियो और भारती एयरटेल का लगभग पूरा कब्जा हो चुका है। अब चूंकि उपग्रह इंटरनेट सेवा उपलब्ध होने वाली है, तो अपेक्षा थी कि उसमें जियो और एटरटेल के बीच ही- मगर प्रतिस्पर्धा रहेगी। जब स्टारलिंक का आना पक्का दिखने लगा, तो तीन बड़ी कंपनियों के बीच होड़ की संभावना बनी। सीमित अर्थों में उपभोक्ताओं के लिए यह अच्छी खबर थी।

मीडिया में चर्चा यह भी थी कि स्पेक्ट्रम आवंटन के सवाल पर नरेंद्र मोदी सरकार के सामने निर्णय संबंधी कड़ी चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। कहा गया कि एक तरफ ‘नेशनल चैंपियन हैं’ (जिनके साथ सत्ताधारी भाजपा के निकट रिश्ते जग-जाहिर हैं)। वहीं विदेश नीति में मोदी सरकार की प्राथमिकता रहे अमेरिका की एक कंपनी- जिसके मालिक दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति हैं- के भी आ जाने से उसके लिए निर्णय प्रक्रिया तय करना कठिन हो गया है। स्पेक्ट्रम का प्रशासनिक आवंटन हो या नीलामी- यह सवाल उसके सामने खड़ा था।
मगर जनवरी में डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभालने और उनके प्रशासन में इलॉन मस्क को महत्त्वपूर्ण भूमिका मिलने के बाद तेजी से घटी घटनाओं ने मोदी सरकार को उस दुविधा से मुक्त कर दिया है! यह विडंबना है, लेकिन सच है। अब ये स्थिति लाने में खुद प्रधानमंत्री की क्या और कैसी भूमिका रही, इस बारे में कुछ कहने के लिए हमारे पास कोई ठोस संकेत नहीं हैं। मगर इस बारे में कयास जरूर लगाए जा सकते हैं। मगर इससे इतर, आइए, घटनाक्रम पर गौर करते हैं।
मोदी सरकार ने ट्रंप प्रशासन के दुनिया भर के देशों पर चल रहे डंडे से बचे रहने के लिए, क्रिकेट की भाषा में कहें, तो बाउंसर के आगे डक करने (झुक जाने) का तरीका अपनाया है।
(गौर करेः https://janchowk.com/zaruri-khabar/in-changing-position-of-usa-india-wants-to-fit-in-it/
पहले इसे मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर की सोच का नतीजा माना गया। लेकिन पिछले हफ्ते जो हुआ, उसका संकेत यही है कि अपने हितों पर समझौता करते हुए भी सैनिक शक्ति एवं वित्तीय पूंजी के गढ़ अमेरिका से ना टकराने की रणनीति उस पूरे सत्ता ढांचे (अथवा पॉलिटिकल इकॉनमी) की है, जिसके नरेंद्र मोदी प्रतीक भर हैं।
मोदी सरकार के कार्यकाल को भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में नीतिगत रूप से मोनोपॉली कायम करने के दौर में याद किया जाएगा। मोदी समर्थक अर्थशास्त्री इसे नेशनल चैंपियन्स को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय विकास का माध्यम तैयार करने का मॉडल बताते रहे हैं। यह असल में दक्षिण कोरिया के ‘चायेबॉल’ मॉडल का अनुकरण है, जिसमें सरकार ने कुछ बड़ी कंपनियों के हक में नीतियां बना कर निर्यात उन्मुख अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत किया था। सैमसंग, ह्यूंदै, एलजी आदि कंपनियां इसी मॉडल की प्रतीक रही हैं।
तो संभवतः उसी मॉडल के अनुरूप सरकार के सहयोग से रिलायंस, अडानी ग्रुप, टाटा, आदित्य बिड़ला ग्रुप, भारती एयरटेल, जिंदल समूह आदि की मोनोपॉली या duopoly अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों में कायम होने दी गई है। प्रधानमंत्री खुद इन “धन सृजकों” (wealth creators) की तारीफ करते रहे हैं। उन्होंने इन घरानों को “विकसित भारत” का माध्यम बताया है। ये दीगर बात है कि जहां दक्षिण कोरिया के चायेबोल अपने देश को निर्यात का केंद्र बनाते हुए अपने ब्रांड को दुनिया भर में फैलाने में सफल रहे, वहीं भारत के राष्ट्रीय चैंपियनों ने देश के भीतर अपने प्रतिस्पर्धियों को बाजार से बाहर करने या नए प्रतिस्पर्धी के उभार को रोकने के प्रयास में ही अब तक अपनी अधिक ऊर्जा लगाई है।
अब हमारे सामने विचारणीय सवाल यह उठा खड़ा हुआ है कि सरकारी सहयोग से आगे बढ़े ये कारोबारी घराने असल में अपने चरित्र में कितने ‘राष्ट्रीय’ हैं। राष्ट्रीय पूंजीवाद/ पूंजीपति शब्द का एक विशेष अर्थ है। यह वो तबका होता है, जो अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में किसी राष्ट्र विशेष के आर्थिक हितों का वाहक होता है। सिद्धांत यह है कि ये तबका अपनी सफलता के साथ जो धन पैदा करता है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसका लाभ उस राष्ट्र के पूरे आवाम तक पहुंचता है। जब तक दुनिया में साम्राज्यवाद है- यानी ऐतिहासिक कारणों से धनी हुए देशों के ऐसे कारोबारी हैं, जो सारी दुनिया के संसाधनों और बाजार को हासिल करने की महत्त्वाकांक्षा रखते हैं, समझा जाता है कि राष्ट्रीय पूंजीपतियों का उन बहुराष्ट्रीय कारोबारियों से टकराव होना अपरिहार्य है।
वैसे तो यह बिल्कुल पहला मौका नहीं है, मगर हालिया दौर में ये स्थिति इतने खुलेआम इसके पहले शायद नहीं बनी थी। स्पेस-एक्स के भारत में प्रवेश की कोशिश के साथ भारत के दो कथित राष्ट्रीय चैंपियनों- रिलायंस और भारती मित्तल ग्रुप के सामने 60 ज्यादा देशों में स्टारलिंक सेवा दे रही कंपनी से मुकाबला करने की चुनौती थी। प्रश्न था कि क्या भारतीय मूल की कंपनियां इलॉन मस्क की कंपनी को ऐसी होड़ के लिए मजबूर करेंगी, जिससे भारतीय उपभोक्ता फायदे में रहेंगे? मगर इन कंपनियों ने जो किया, उसे मुकाबला शुरू होने के पहले ही अपनी पराजय का एलान कर समर्पण करने के अलावा कुछ और नहीं कहा जा सकता।
इसीलिए पिछले हफ्ते जब खबर आई कि भारती एयरटेल ने स्पेस-एक्स से करार कर लिया है, तो अनेक लोग सकते में नजर आए। कहा गया कि भारती मित्तल ने पलटी खाते हुए स्पेस-एक्स का मुकाबला करने के लिए जियो को अकेले छोड़ दिया है। मगर 24 घंटों के अंदर उससे भी बड़ी सनसनीखेज खबर आई कि रिलायंस जियो ने भी वैसा ही करार स्पेस-एक्स से कर लिया है। दो बातें गौर करने की हैः
- एयरटेल और जियो ने स्टारलिंक सेवा देने के लिए स्पेस-एक्स के साथ कोई साझा उद्यम नहीं बनाया है।
- बल्कि वे स्पेस-एक्स की सहायक (subsidiary) बन गई हैँ। खुद इन कंपनियों के बयान के मुताबिक जो भूमिका उन्होंने स्वीकार की है, उसका अर्थ यह है कि वे स्टारलिंक का वेंडर बन गई हैँ। वे स्टारलिंक सेवा देने के लिए जरूरी उपकरण बेचेंगी और सेवा प्रदाता के एजेंट की भूमिका में होंगी।
मतलब यह कि हमारे नेशनल चैंपियन बहुराष्ट्रीय कंपनी के वेंडर और एजेंट बन गए हैं? भारतीय पूंजीवाद की इससे कैसी छवि सामने आई है? इस प्रश्न पर हम बाद में आएंगे, मगर इस घटनाक्रम से उजागर हुए कुछ अन्य हालात पर पहले ध्यान देते हैं।
इतने बड़ी घटना पर भारत के राजनीतिक हलकों में लगभग पूरी चुप्पी देखने को मिली। सिर्फ दो पार्टियों की प्रतिक्रिया सामने आई, जिन्होंने ध्यान खींचा। इनमें कांग्रेस ने तो सिर्फ सुरक्षा का सवाल उठाया। पूछा कि स्टारलिंक सेवा कहां से चलेगी? अगर यह विदेश से चलेगी और किसी सुरक्षा जरूरत के तहत सेवा बंद या नियंत्रित करने की जरूरत हुई, तो भारत सरकार ऐसा कैसे करेगी? मगर सरकार ने कांग्रेस को तुरंत निरुत्तर कर दिया। सरकारी सूत्रों ने मीडिया को ब्रीफ किया कि स्टारलिंक के आने की स्थिति में (हालांकि अभी तक सरकार ने इसकी मंजूरी नहीं दी है) संचालन केंद्र भारत में ही होगा। कांग्रेस की समझ में कोई और सवाल नहीं था, तो यह पार्टी के अभिजात्यवर्गीय चरित्र का संकेत है। यह बताता है कि उसके और सत्ताधारी भाजपा के आम आर्थिक नजरिए में कोई फर्क नहीं है।
बहरहाल, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ महत्त्वपूर्ण पहलुओं की ओर ध्यान खींचा और अहम सवाल उठाए। उसने भी सुरक्षा संबंधी सवाल उठाए, मगर अन्य प्रश्नों का भी जिक्र किया। उसके बयान में ध्यान दिलाया गयाः
- क्या सैटेलाइट इंटरनेट सेवा के लिए स्पेक्ट्रम का सरकार प्रशासनिक आवंटन करेगी? सीपीएम ने ध्यान दिलाया कि 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि स्पेक्ट्रम दुर्लभ सार्वजनिक संसाधन है, जिसका आवंटन सिर्फ खुली, पारदर्शी नीलामी के जरिए ही होना चाहिए। इसलिए किसी निजी कंपनी को इसका प्रशासनिक आवंटन देश के कानून का उल्लंघन होगा।
- पार्टी ने कहा कि सैलेटाइल इंटरनेट सेवा का इस्तेमाल सिर्फ रणनीतिक उद्देश्यों के लिए होना चाहिए, क्योंकि सवाल यह भी है कि सरकार के पास कितने उपग्रहीय कक्षाएं (orbital slots) उपलब्ध हैं। निजी कंपनी को उसके उपयोग की इजाजत देने का मतलब उसे मौसम, फसलों की स्थिति आदि जैसी अन्य उपग्रहीय सूचनाओं तथा सैनिक/ रक्षा सूचनाओं तक पहुंच बनाने की छूट देना होगा, जो राष्ट्रीय हितों के खिलाफ है।
- सीपीएम ने ध्यान दिलाया कि किस तरह अमेरिकी नीति में बदलाव आने पर यूक्रेन में स्टारलिंक सेवाएं रुकने की सूरत बन गई, जिससे रूस के साथ युद्ध में उसके सामने कठिन सैनिक चुनौतियां आ खड़ी हुईं।
इसके अलावा एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि एयरटेल और जियो के समर्पण करने के साथ सैटेलाइट इंटरनेट सेवा शुरू होने के पहले ही ऐसे संचार के भारतीय बाजार में स्टारलिंक की मोनोपॉली कायम होने की संभावना बन गई है। यानी प्रवेश के साथ ही स्टारलिंक की मोनोपॉली होगी, जिससे सेवा और मूल्य संबंधी अपनी शर्तों को वह उपभोक्ताओं पर थोप सकेगी।
वैसे भारत के लोगों के लिए मोनोपॉली के दुष्प्रभाव झेलना कोई नया अनुभव नहीं है। विशेषज्ञ अपने अध्ययनों से यह बता चुके हैं कि कोरोना काल के बाद लगातार पड़ती रही महंगाई की मार का प्रमुख कारण मोनोपॉली घरानों की मुनाफाखोरी रहा है। सरकार प्रेरित सार्वजनिक बहसों में इस परिघटना को राष्ट्रीय चैंपियन्स को प्रोत्साहित करने की नीति के आधार पर जायज ठहराया गया है। लेकिन ताजा घटनाक्रम में, जब नेशनल चैंपियन बहुराष्ट्रीय पूंजी के सेवक की भूमिका में आए दिखे हैं, तो यह सवाल उठना ही चाहिए कि ये चैंपियन- यानी सफल कारोबारी घराने अपने चरित्र में कितने ‘राष्ट्रीय’ हैं? और इनके भरोसे भारत में उद्योग-धंधों के विकास तथा इनके योगदान से राष्ट्रीय विकास की उम्मीद रखने का क्या आधार है?
कभी मार्क्सवादी विमर्श में comprador capitalism/ capitalist (दलाल पूंजीवाद/ पूंजीपति) शब्द खूब प्रचलित था। बहस यह थी कि भारतीय पूंजीवाद चरित्र का स्वतंत्र/ राष्ट्रीय है, या यह metropolitan- यानी साम्राज्यवादी देशों के पूंजीवाद का comprador (दलाल) है। प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद के खात्मे के बाद दरअसल पूंजीवाद का चरित्र ही किसी देश की अर्थव्यवस्था एवं राजसत्ता- अगर एक शब्द में कहें, तो political economy के स्वरूप का निर्धारक तत्व माना गया है। समझ यह है कि चूंकि मेट्रोपॉलिटन पूंजीवाद दुनिया में कहीं भी स्वतंत्र पूंजीवाद के उदय के रास्ते में बाधक है, इसलिए उभर रहे पूंजीपतियों का कम-से-कम एक हिस्सा उससे अपने अंतर्विरोध के कारण स्वतंत्र चरित्र हासिल करता है।
ताजा घटनाक्रम ने भारत में ऐसा होने की आशाओं पर जोरदार प्रहार किया है। भारत के कथित नेशनल चैंपियन मेट्रोपॉलिटन कारोबारियों के वेंडर बनने को सहज तैयार हो जाते हैं, तो फिर भारत में स्वतंत्र पूंजीवाद के अस्तित्व का संदिग्ध होना लाजिमी हो गया है। और अगर अर्थव्यवस्था (जो अनिवार्य रूप से आज पूंजीवादी रूप में ही है) स्वतंत्र अस्तित्व ना रखती हो, तो फिर उससे संचालित राज सत्ता का क्या चरित्र माना जाए, यह प्रश्न भी बहस के दायरे में आ जाता है।
इस पूरे घटनाक्रम पर मीडिया में जैसी नगण्य चर्चा हुई है, अधिकांश राजनीतिक दलों ने जिस तरह इसे नजरअंदाज किया है और बुद्धिवीजी वर्ग (काफी कुछ अपने वर्ग चरित्र के कारण) जिस तरह की सामुदायिक पहचान की बहसों में खोया हुआ है, उसके मद्देनजर फिलहाल ऐसी कोई गंभीर और सार्थक बहस होगी, इसकी संभावना कम ही है। मगर यह भी तय है कि भारत को अगर अपने संकटग्रस्त वर्तमान से बाहर निकलना है, तो इस बहस में उलझने के अलावा कोई और विकल्प देश के सामने नहीं है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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