अँधेरनगरी आज अगर एक खुशहाल राज्य है, और अगर यहां के नागरिक अपने रोटी-कपड़ा-मकान-रोजगार-शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी तुच्छ भौतिक आवश्यकताओं के मकड़-जाल से ऊपर उठ चुके हैं, और अपने पूर्वजों जैसे अपरिग्रह और संतोष को अपने जीवन में उतार लाने के लिए बेचैन हैं, तो इसका सारा श्रेय आज के महाराज चौपट महान को जाता है।
वैसे तो अँधेरनगरी के सभी पूर्व शासको को अपने राज्य की प्राचीन महानता की गौरव गाथाएं गाने का चस्का था, किंतु चौपट महान ने तो इस विधा में चार चांद ही लगा दिए।
चौपट महान के जीवन में वह सब कुछ रहा है जिससे जनता का कोई न कोई हिस्सा प्रेरणा ग्रहण करता रहा है। कुछ लोग उनके ज्ञात इतिहास की क्रूरता और बर्बरता के कसीदे पढ़ने से सुख पाते, तो कुछ लोग उनके रहस्यमय अज्ञातवास में अलौकिकता और दैवी संदेश ढूँढ़ते। चौपट महान और उसके दरबारी बुद्धिजीवी सायास इस अज्ञातवास को तिलिस्मी जामा पहनाते रहते।
चौपट महान को अपने बचपन की कहानियों को समय-समय पर लॉन्च करते रहने का भी चस्का था। इससे प्रेरित होकर ‘बाल चौपट की वीर-गाथाएं’ बच्चों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दी गयीं। इन वीर-गाथाओं से प्रेरित होकर किसी समय तमाम बच्चे मगरमच्छों की खोज में नदियों की ओर भी निकल गए थे। लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी क्योंकि नदियां या तो सूख कर मरने लगी थीं, या नाले बनकर बजबजा रही थीं। हलांकि उन नदियों की पूजा-आरती और ज्यादा जोर-शोर से होने लगी थी।
चौपट महान को नाम बदलने का तो शगल ही था। उसने तमाम जगहों, भवनों, सड़कों और शहरों को नये नाम दे दिए। जनता भी अनुपालन में शीघ्र नए नाम की अभ्यस्त होने लगी।
लेकिन उसे अपने नाम और अपने राज्य के नाम से काफी लगाव था। इसलिए उसने शब्दकोशों में ही उजाले का नाम अँधेरा और विकास का नाम चौपटीकरण कर दिया। इससे धीरे-धीरे लोग अँधेरनगरी से ‘उजाले के देश’ और चौपट राजा से ‘विकास पुरुष’ का आशय ग्रहण करने के अभ्यस्त हो गये।
शब्दों के अर्थ बदलने और शब्दकोश बदलने का सर्वाधिक फायदा डिजिटल युग में कराह रहे प्रिंट उद्योग को हुआ। पुस्तकालयों में पड़ी सारी पुस्तकों और शब्दकोशों को बदल दिया गया। उनमें ‘उजाले’ की जगह ‘अँधेरा’ लिखा गया और ‘विकास’ की जगह ‘चौपाटीकरण’ लिखा गया। इसे विद्वानों ने ‘बदलाव की आँधी’ बताया।
महाराज चौपट आरंभ से ही हर विषय के विद्वान और हर विधा के विशारद थे। खुद कोई औपचारिक शिक्षा न पाने के बावजूद वह छात्रों को शिक्षा और परीक्षा पर उपदेश देते। वह वैज्ञानिकों को विज्ञान सिखाते और गणितज्ञों को गणित सिखाते। सबसे बड़ी बात, कि इन सभी विद्वानों को खुद भी धीरे-धीरे यह बोध होता गया कि वे महाराज चौपट से कम जानते हैं, और इस तरह अनुपालन युग का आरंभ हुआ।
साहित्य में बहस-मुबाहिसों के नए दौर का सूत्रपात हुआ। जो लोग हाल फिलहाल तक व्यवस्था परिवर्तन की कोशिशों में लगे थे, उनके भीतर द्वंद खड़ा हो गया। ‘अगर इसको परिवर्तन न कहें, तो और क्या कहें?!’
उनमें से कई लोगों के मन में ग्लानि अँखुआने लगी, ‘अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया?…. विकास को हम विनाश बताते रहे। जिस क्रांति का हम आह्वान कर रहे थे, वह तो कब की हुई पड़ी थी। हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसाये हुए इसे नकारते रहे थे। जिन्हें हम दुश्मन मानते रहे, वही क्रांति के देवता निकले। कितने मूर्ख थे वे लोग, जिन्होंने इस सत्य से आंखें मूँद रखी थीं। नाहक कितनी जन-धन की हानि हुई!’
‘हम अगर देख पाते, तो देखते, कि हर हाथ में मोबाइल है, हर हाथ को लाइक-डिसलाइक, फॉलो-अनफॉलो का काम मिला हुआ है। चाय-पान-गुटखा की किसी भी दुकान पर चर्चा का विषय रोजी-रोटी के सवाल रह ही नहीं गये हैं। उनकी जगह किसी खास धर्म के लोगों से नफरत ने ले लिया है, अपने धर्म और प्राचीन संस्कृति की महानता के गुणगान ने ले लिया है, दूसरे देशों में महाराज चौपट महान के प्रायोजित सम्मान के अतिरंजित क़िस्सों ने ले लिया है। “हमारे महाराज के सामने तो फलाने देश का राष्ट्रपति ससुरा साष्टांग लोट रहा था।”
इस टाइप की गप्पों में लोग भाव-विभोर रहते। इन्हीं विषयों पर गरमा-गरम चर्चाएं होतीं। आखिर एक भरे पेट और निरापद भविष्य वाले देश में ही तो ऐसी निश्चिन्तता आ सकती है! अगर उनके जीवन में कोई स्थानीय समस्या होती तो क्या वे उस पर बात नहीं करते ?
लोगों की सोच को इस ऊंचाई तक पहुंचाने का काम आखिर किसने किया? चौपट महान ने!
चौपट महान वास्तविक ‘मुद्दा महारथी’ हैं। उन्होंने एक पूरा इकोसिस्टम विकसित कर रखा है, जिसमें एक मुद्दे के ठंडा होने से पहले ही, एक बिल्कुल नया, ज्वलन्त, गरमागरम, लाल ठवर्रा मुद्दा उछाल दिया जाता है। कुछ लोग मुद्दे के पक्ष में हो जाते हैं, तो कुछ मुट्ठी भर लोग उसके विरोध में। मुद्दों के पक्षधरों का संख्याबल और आक्रामकता ज्यादा होने के कारण विरोधियों के हौसले पस्त होते जाते हैं, और प्रतिरोध के स्वर धीमे पड़ते जाते हैं। उनमें से कुछ लोग बहस को निरर्थक मानकर चुप्पी साधने लगते हैं, तो कुछ लोग मन ही मन नए मुद्दे का इंतजार करते हुए बनावटी ढिठाई के साथ डटे रहते हैं और नया मुद्दा आते ही उसे लपक लेते हैं। मुद्दा महारथी महाराज चौपट महान अपने मन की बात बनते देख मुस्कुराते हुए चैन की बंसी बजाने लगते हैं।
उन्होंने अतीत के गौरव और दुनिया का गुरु होने के गुमान का कॉकटेल बनाने में महारत हासिल कर ली है।
अँधेरनगरी दरअसल एक समय लोकतंत्र हुआ करता था। उसे राजतंत्र में तब्दील करने का श्रेय भी चौपट महान को ही जाता है।
सत्ता की सीढ़ियां चढ़ते हुए ही उन्होंने अपने तमाम विरोधियों को ठोंक दिया था। कालांतर में जब वह अपने तमाम पूर्ववर्ती शासको को अपना सीना ठोंक-ठोंक कर नाकारा साबित करने लगे, तो मीडिया को धीरे-धीरे लोकतंत्र को ठोंकतंत्र कहने में मजा आने लगा।
लेकिन कुछ लोग अब भी इसे जनतंत्र कहते थे। तो अँधेरनगरी के अँधेरवादी बुद्धिजीवियों ने एक नया विमर्श छेड़ दिया। उन्होंने पहले इसे गनतंत्र बताना शुरू किया, क्योंकि इसमें ‘गन’, यानि बंदूक की ताकत और पुराने गणतंत्र के ‘गण’ की भी ध्वनि आती थी।
धन-कुबेरों की तिजोरियों के मुंह तो चौपट महान के लिए आरंभ से ही खुले हुए थे। आखिर धन-कुबेर धन-कुबेर बनते भी तो इसीलिए हैं, कि उन्हें पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं। चौपट महान के अभूतपूर्व उभार और उत्थान के पीछे धन-कुबेरों के बेहिसाब निवेश के कारण कुछ लोग दबी ज़ुबान इसे धनतंत्र भी कहते थे।
धनतंत्र की मायावी तंत्र-विद्या का असर यह हुआ कि चारों दिशाओं से आवाज़ें आने लगीं कि इतना करामाती शासक बिरले सौभाग्यशाली लोगों को ही नसीब होता है। इसे बार-बार चुनाव के चक्कर में उलझा कर कहीं हम अपनी इस महान अँधेरनगरी को और इसके हम परम सौभाग्यशाली नागरिकों को विश्वगुरु बनने के मार्ग में बाधा तो नहीं डाल रहे हैं?!
लोकतंत्र के ठोंकतंत्र और जनतंत्र के बरास्ता गनतंत्र, धन-तंत्र बनने की इस यात्रा में मीडिया माया-रचित इतना सम्मोहन था कि बड़े-बड़े दुर्दांत और विक्रांत बुद्धिजीवियों की पकड़ से शब्द और उनके अर्थ फिसलने लगे। उन्हें जल में थल और थल में जल का भ्रम होने लगा। अंततः आक्रांत होकर उन्होंने नौकर की कमीज पहनकर सत्ता विमर्श के आगे साष्टांग समर्पण को स्वीकार कर लिया। कालांतर में उन्हें भांति-भांति के पुरस्कारों से नवाजा गया।
तो हमारी महान अँधेरनगरी के महान सौभाग्याली देवियों और सज्जनों, हमारे परम प्रतापी महाराज चौपट महान की असीम अनुकंपा की वजह से इस तरह यह महान अँधेरनगरी अंततः लोकतंत्र के शाप से मुक्त होकर राजतंत्र के उच्च आसन पर विराजमान हुई थी।
(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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