वैचारिक अवसरवादिता आज की राजनीति की सबसे बड़ी त्रासदी है और उससे भी अधिक भयावह स्थिति यह है कि समाज का एक बड़ा वर्ग राजनीतिक गिरोहों के प्रचारित संदेशों को वेदवाक्य की तरह स्वीकार करता है। इसके अलावा, यह वर्ग इतना संकीर्ण है कि कुछ मामलों में सब कुछ जानते हुए भी झूठ की पैरवी करता है, क्योंकि मामला उसकी जाति या धर्म से जुड़ा होता है। यही अवसरवादिता है। जो समर्थक अपने दोगलेपन को रणनीति के तहत देखते हैं, वे सामने वाले को ललकारते हैं।
विचारों का दोगलापन यह है कि एक तरफ सबका डीएनए एक बताओ और दूसरी तरफ दिनभर हिंदू-मुस्लिम करो और सबको बाबर की औलाद घोषित कर दो। एक तरफ खुद को दुनिया की सर्वाधिक उदार कौम की घोषणा करो और दूसरी तरफ घृणा के लिए नए-नए मौकों की तलाश करो।
एक तरफ घृणा को छिपाने के लिए कलाम, हमीद, और अशफाक उल्ला खाँ की तारीफ करो और दूसरी तरफ पूरी मुस्लिम कम्युनिटी को निशाने पर रखो।
एक तरफ गांधी के चरखे को लांछित करो, उसका मजाक उड़ाओ और दूसरी तरफ गोडसे का महिमामंडन भी करो। उसी गांधी के चरखे के सामने बैठकर फोटो खिंचाओ, गांधी की पूजा का दिखावा करो, उनकी समाधि पर शीश झुकाओ, उन्हें महामानव बताओ और फिर गांधी को हत्यारा कहने वालों पर कृपा भी बरसाओ। यह दोमुंहापन नहीं तो और क्या है? ये गोडसे को राष्ट्रभक्त बताने वाले कौन हैं!
अरे, गोडसे पूजकों, क्यों नहीं आप लोग गोडसे के सम्मान में उनके नाम पर अपने बच्चों का नाम रखने की परंपरा शुरू कर देते?
एक तरफ सुभाष और भगत सिंह की तस्वीरें अपने कार्यालयों में लगाओ और दूसरी तरफ उनके मूल सिद्धांतों के विपरीत घोर सांप्रदायिक राजनीति करो। दिखावे में सुभाष को मानो, लेकिन उनके द्वारा गांधी को दी गई राष्ट्रपिता की उपाधि के लिए गांधी की भर्त्सना करो। मानो कि खुद गांधी ने ही सुभाष से सिफारिश करवाकर खुद को राष्ट्रपिता कहलवाया हो।
एक तरफ गाय पर टिप्पणी करने वाले और शिवाजी के युद्धबंदी महिला को ससम्मान छोड़ने के निर्णय पर सवाल खड़े करने वाले हिंदू महासभा के सावरकर की भूले से भी आलोचना न करो, लेकिन दूसरे को बिना कारण हिंदूद्रोही साबित कर दो। एक तरफ द्विराष्ट्रवाद की खुलकर पैरवी करो और दूसरी तरफ बंटवारे के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराओ।
एक तरफ 1937 में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को हिंदू महासभा के अधिवेशन में पारित कराने वाले सावरकर को अपना राजनीतिक आराध्य बनाओ और दूसरी तरफ बंटवारे के लिए उतनी ही जोर से छाती पीटो। ध्यान रहे कि सावरकर ने पाकिस्तान प्रस्ताव के लिए जिन्ना को बधाई दी थी और इन्हीं सावरकर ने, जब नवस्वतंत्र भारत रियासतों को मिलाकर एक मजबूत राष्ट्र की ओर बढ़ रहा था, तब त्रावणकोर के शासक को भारत में विलय न करने के लिए पत्र लिखा था, ताकि वह स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र बन सके।
एक तरफ नेहरू को सत्तावादी और हिंदूद्रोही कहो, दूसरी तरफ खुद मुस्लिम लीग के साथ गलबहियाँ कर सत्ता में भागीदार बनने वाले अपने वैचारिक पुरखों पर चुप्पी साध जाओ।
एक तरफ अनुच्छेद 370 के लिए नेहरू को गरियाओ, लेकिन संसद में उसी अनुच्छेद को नेहरू की अनुपस्थिति में पास कराने वाले सरदार पटेल पर चुप्पी साध जाओ। और हाँ, मजे की बात यह कि इस अनुच्छेद के पास होने के समय आपके वैचारिक पुरखे श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी नेहरू सरकार में मंत्री थे। क्या उन्होंने इस मुद्दे पर मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया या उसका विरोध किया? नहीं न! फिर उनकी भूमिका पर सवाल क्यों नहीं?
एक तरफ नेहरू की जेल को जेल न बताकर उसे ऐशगाह बताओ, तो दूसरी तरफ उसी जेल में उनके साथ बंद सरदार पटेल और आचार्य नरेंद्रदेव के जेल जीवन को वास्तविक जेल बताओ।
एक तरफ मुगल शासन को पानी पी-पीकर कोसो और दूसरी तरफ आपके मुखिया उसी वंश के आखिरी शासक बहादुर शाह जफर की कब्र पर फूल चढ़ाएँ। आखिर एक राह पर रहो।
बता दूँ कि इन्हीं बहादुर शाह जफर को सावरकर ने अपनी पहली किताब में (जब वह अंग्रेजी शासन के समर्थक नहीं बने थे) सम्मान के साथ याद किया था और उनके प्रसिद्ध शेर के साथ अपनी किताब का समापन किया था।
एक तरफ औरंगजेब की कब्र खोदो, लेकिन उन्हीं औरंगजेब के सैन्य विस्तार और उनके शासन को निर्बाध बनाने वाले सेनानायकों जयसिंह और जसवंत सिंह पर दो बोल न बोलो। एक तरफ पाकिस्तान को ललकारने वाली बोली बोलो, तो दूसरी तरफ वहाँ बिन बुलाए पहुँचकर दोस्ती की नई इबारत लिखकर इतिहास में नाम दर्ज कराने की ललक भी रखो।
एक तरफ कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार बताकर उसे हिंदूद्रोही साबित करो, लेकिन जिस दौर में यह विस्थापन शुरू हुआ, उस समय इनके ही समर्थन पर टिकी वी.पी. सिंह की सरकार से इस मुद्दे पर कोई बात न करने की अपनी भूमिका पर चुप्पी साध जाओ। आखिर यह संदिग्ध व्यवहार क्यों?
अगर इतने हमदर्द थे, तो उस समय इस मुद्दे पर केंद्र सरकार से समर्थन वापस क्यों नहीं लिया? आखिर इतने दोमुंहेपन के साथ कैसे जी लेते हो, भाई?
(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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