भारतीय समाज का सच देखने और दिखाने के लिए तैयार नहीं है केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड

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फिल्म संतोष उस समय चर्चा में आई जब भारत में इसे रिलीज होने से रोक दिया गया। संध्या सूरी द्वारा निर्देशित इस फिल्म को कांस फिल्म फेस्टिवल में सराहा गया है, ऑस्कर अवॉर्ड के लिए इसे यूनाइटेड किंगडम की तरफ से नामित किया गया, इसके साथ ही इसे ब्रिटिश अकादमी फिल्म फेस्टिवल अवार्ड (बाफ्टा) 2025 से नवाजा गया है। इस फिल्म ने विदेशों में करीब 10 अवार्ड्स बटोरे है लेकिन विडंबना है कि भारत की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म को भारत में रिलीज़ होने से रोक दिया गया है और इन मुद्दों से रोज़ दो-चार होने वाली जनता इसे नहीं देख पायेगी।

इसके रिलीज़ को रोकते हुए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CFCB) की तरफ से कहा गया कि यह पुलिस की नकारात्मक छवि बनाती है और इसमें कई कट्स लगाने को कह दिया। हालांकि निर्देशक संध्या सूरी इसमें कट्स लगाने से मना कर दिया। उनका कहना था कि प्रस्तावित कट्स से फिल्म का मूल मैसेज ही खत्म हो जाएगा। अब सवाल है कि विदेशों में सराही जाने वाली फिल्म में ऐसा क्या दिखा दिया गया कि इसके रिलीज़ पर ही पाबंदी लगा दी गई है। 

फिल्म की बात करें तो यह संतोष सैनी (शाहाना गोस्वामी द्वारा निभाया गया किरदार) नाम की एक विधवा महिला के इर्द गिर्द घूमती है जो एक सामान्य घरेलू महिला से आगे बढ़ते हुए पुलिस कांस्टेबल की नौकरी ले लेती है। संतोष का पति पुलिस में कांस्टेबल होता है और दंगों में मारा जाता है। उन दोनों का प्रेम विवाह है लिहाजा पति की मौत का ठीकरा भी संतोष के ही माथे आना है, जैसा भारत में एक आम बात है।

फिल्म की शुरुआत में संतोष का किरदार एक विधवा महिला पर थोपे गए सामाजिक बंधनों से विरोध करता हुआ दिखता है। पति के मरने के बाद भी उसने कान और नाक में बालियां पहनी हुई है जिसके लिए उसे ताने भी सुनाए जा रहे हैं। ससुराल वाले एक विधवा बहू को अपने घर नहीं रखना चाहते इसलिए उसे वापस मायके भेजने की बात हो रही होती है।

उसकी सास सभी लोगों के सामने उस पर ताने मारते हुए कहती है कि इसे कोई बहू का तौर तरीका नहीं है, एक बार जो बर्तन बाहर निकल गई उसे हम दोबारा नहीं रखते हैं। कुल मिलाकर संतोष की जिंदगी एक आम भारतीय महिला की जिंदगी है जिसमें विधवा होने के बाद उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

उसकी जिंदगी में नया मोड़ तब आता है जब पति के पेंशन के काम के लिए थाने जाती है और अप्रत्याशित रूप से उसे कांस्टेबल की नौकरी ऑफर होती है। आंखों में चमक लिए संतोष पूछती है पैसे “क्या सीधे मेरे हाथ आएगी?” इस सीन में संतोष में ससुराल या मायके के लोगों पर निर्भर न रहने और स्वतंत्र आय की चाहत साफ झलकती है। आखिरकार नौकरी के ऑफर को न ठुकराते हुए वह कांस्टेबल के पद पर भर्ती होती है और यहीं से शुरू होती है संतोष की कहानी।

संतोष भर्ती के बाद पुलिस के काम करने के तरीके को परत दर परत देखती-सीखती जाती है और उसकी यह यात्रा कहां खत्म होती है यही फिल्म का मुख्य बिंदु है। कहानी आगे मोड़ लेती है और ‘चिराग प्रदेश’ में एक दलित नाबालिग लड़की घर से गायब हो जाती है। लड़की का पिता रिपोर्ट दर्ज करने जाता है थाने के बगल में एक मोची को पचास रुपए में रिपोर्ट लिखने का जिम्मा सौंपा गया है, उसके पास जाता है। वहां वह अपने जूते ठीक करवाने गई होती है। 

 क्योंकि संतोष अभी इस सिस्टम से वाकिफ नहीं तो वह आश्चर्य से देखते हुए उसे थाने के अन्दर ले जाती है और भरोसा दिलाती है उसकी रिपोर्ट थाने में ज़रूर लिखी जाएगी। हमारे ‘चिराग प्रदेश’ पुलिस का चेहरा इतना खुला है कि दर्शकों को पहले ही पता लग सकता है कि थाने के अंदर होना क्या है। और अंततः होता यही है कि पुलिस अपने महिला विरोधी मानसिकता के साथ पिता का मखौल उड़ाते हुए उसे बाहर वापस मोची के पास भेज देती है…एफआईआर का वादा करके अपने भरोसे पर उसे थाने के अंदर लाने वाली संतोष खुद ठगी रह जाती है।

फिल्म आगे बढ़ती है। एक दिन आखिरकार उस गायब दलित लड़की की लाश गांव के कुएं से मिलती है। दलितों द्वारा लड़की की बॉडी को थाने के बाहर रखकर प्रदर्शन किया जाता है और जन दबाव में पुलिस तफ्तीश करने को मजबूर होती है। क्योंकि लड़की दलित है इसलिए कोई पुलिस वाला उसकी मृत देह को छूना भी नहीं चाहता है, और इसे थाने में खुले में पड़े रहने दिया जाता है। अकेली संतोष उसे पोस्टमार्टम हाउस तक ले जाती है। अब दलितों ने थाने को घेरा है तो निश्चित ही ब्राह्मणवादी पुलिस के लिए थाना अशुद्ध हो चुका है इसलिए थाने में शुद्धिकरण के लिए हवन और पूजा की जाती है।

और SHO के महिला विरोधी बयान के कारण उनका ट्रांसफर कर दिया जाता है। खैर, पुलिस पर जल्दी कुछ करने का दबाव आता है, एक दूसरी महिला पुलिस अफसर गीता शर्मा  (सुनीता राजवार द्वारा निभाया गया किरदार) को इस केस की जिम्मेदारी मिलती है।

यह किरदार आगे चलकर फिल्म के एक महत्वपूर्ण किरदार के रूप में उभरता है। गीता शर्मा एक ऐसी अफसर है जिसे खुद की महिला अस्मिता की पहचान है। इसलिए पुलिस विभाग में एक महिला अफसर होने का दंभ भरने से नहीं चूकती है और ट्रांसफर होने के साथ ही अपने चेले बनाने में लग जाती है। 

अब पुलिस की टीम गांव जाती है और उन्हें दलितों के गुस्से का सामना करना पड़ता है। जांच टीम में संतोष भी है, उसे पता चलता है कि लड़की की लाश के साथ-साथ कुएं से एक बिल्ली की लाश भी मिली थी। धीरे-धीरे कुछ परत खुलते हैं कुछ उलझते हैं लेकिन आरोपी की खोज आगे बढ़ती रहती है। 

महिला अफसर के नेतृत्व में पुलिस की तफ्तीश खत्म होती है सलीम तक, जिसकी मृत लड़की से फोन पर चंद मैसेज की बातचीत मिलती है। इसके बाद पुलिस कैसे सलीम तक पहुंचती है, सलीम की परिणति क्या होती है, आखिर क्या सलीम ने ही लड़की की बलात्कार के बाद हत्या की थी, बिल्ली की लाश कुएं से मिलने का क्या संदर्भ है, यह फिल्म का मुख्य पार्ट है। इसे रिवील न किया जाना ही अच्छा है। 

फिल्म में ऐसा बहुत कुछ है जो आपको किरदारों के भाव से समझना होगा, हो सकता है कई बार फिल्म को रोककर आपको सोचना पड़े। यह फिल्म ‘स्पून फीडिंग’ नहीं करती बल्कि बहुत कुछ दर्शकों के ऊपर छोड़ती है। किरदारों के मनोभावों को दर्शकों को खुद ही ‘डिकोड ‘ करना है। यह फिल्म बहुत बारीक भावों के साथ बनाई गई है। 

फिल्म के मैसेज पर बात करें तो फिल्म इस बात को ठोस रूप में रखती है कि पुलिस ऐसी मशीनरी है जो सामाजिक-आर्थिक पूंजी वाले तबके के लिए काम करती है। यह एक सिस्टम में है, जो एक खींची रेखा की तरह काम करती और एक सामान्य व्यक्ति को अपने चाल चरित्र में ढाल लेती है। कुछ लोग इस सिस्टम से बगावत करते हुए अपने आप के इंसानियत को बचा लेते हैं बाकी 99 प्रतिशत को यह दावानल अपने आग में निगल ही लेती है।

संतोष फिल्म एक महिला के आम औरत होने से लेकर एक ‘सच्ची पुलिस वाली’ बनने के बीच की यात्रा है। पुलिस के रंग-ढंग में ढलते हुए गैर शादीशुदा कपल को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हुए पकड़ना, उठक-बैठक करवाना और अनायास ही मिल गए घूस के पैसे को पाकर खुश होना, अच्छे क्वार्टर के लिए सीनियर ऑफिसर के कुत्ते को टहलाना, अपने आप को ‘पुलिस’ साबित करने के लिए अपनी इंसानियत खो देना, उसी यात्रा का हिस्सा है। 

फिल्म की खासियत है कि पुलिस की जातीय मानसिकता के साथ-साथ इस्लामोफोबिक चरित्र को भी बेहद अच्छे रूप में दिखाती है। मुसलमानों के प्रति पुलिस का क्या रवैया है, कानून से इतर जाते हुए उनके साथ किस तरह जानवरों से भी बुरा सलूक होता है इसे दिखाने में फिल्म सफल जरूर हुई है। आज के फासीवादी दौर में जब सरकार की शह पर दलितों और मुसलमानों के कस्टोडियल मर्डर की घटनाएं लगातार हो रही हैं उस दौर में इस मुद्दे पर फिल्म बनाना एक जरूरी हस्तक्षेप है।

शायद इसी कारण इसे भारत में रिलीज़ नहीं होने दिया गया। एक दूसरा और जरूरी महत्वपूर्ण पहलू जो फिल्म में बार-बार उभर कर आता है वो है महिला अस्मिता और सिस्टम में महिला भागीदारी का सवाल। गीता शर्मा खुद महिला होने के नाते एक उत्पीड़ित समुदाय का हिस्सा है, इसलिए भी अपने आपको एक रिस्पॉन्सिबल और लीडर पुलिस की भूमिका में लाने के लिए हर कुछ काम को अंजाम देती है जो पुलिस संस्था कानून से इतर जाकर उससे करवाना चाहती है।

प्रोफेसर आनंद तेलतुंबडे अपनी किताब ‘परसिस्टेंस ऑफ कॉस्ट’  में इस बात का जिक्र करते हैं कि जब दलित पिछड़े या महिला सिस्टम में जाते हैं तो वो ज्यादा मजबूती से सिस्टम को लागू करते हैं ताकि उन्हें जो ऐतिहासिक रूप से सिस्टम चलाने के लिए अक्षम बताया गया है उस थ्योरी को सिस्टम के प्रति अपनी स्वामिभक्ति और ज्यादा जोरदार तरीके से लागू करते हुए खारिज कर सकें।

गीता शर्मा का किरदार जो खुद एक उत्पीड़ितों का शोषण करने वाला किरदार है, यह इस बात पर फिट बैठता है। वह फिल्म के अंत में कहती हैं कि “हम महिलाएं क्या कम बेइज़्जती की घूंट पीतीं हैं?….अभी तो बहुत कुछ करना है औरतों की प्रगति के लिए।” लेकिन दूसरी तरफ वह एक किरदार है जिससे आपको नफरत हो सकती है। 

कुल मिलाकर यह फिल्म देखने लायक है। शाहाना और सुनीता दोनों का ही काम देखने लायक है। दोनों का अभिनय जबरदस्त है। अगर सामाजिक राजनैतिक मुद्दे पर बनी फिल्म आपको आकर्षित करती है और आप चकाचौंध से दूर एक आर्ट फिल्म को देखना पसंद करते हैं तो इसे ज़रूर देखा जाना चाहिए।

(आकांक्षा आजाद छात्र नेता और स्वतंत्र लेखिका हैं।)

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