यह नवम्बर के अंतिम हफ्ते की घटना है। आईआईटी-दिल्ली की एक छात्रा सुरभि वर्मा, जो वायुमंडलीय विज्ञान में शोध कर रही थीं, हड़प्पा काल की लोथल की एक साइट पर काम कर रही थीं। इस स्थल का अध्ययन परिस्थितिकी, भू-संरचना और समय के साथ इसमें आये बदलावों के संदर्भ में किया जा रहा था।
लोथल एक बहुउद्देशीय और बहुदेसी स्थल है और इन कारणों से एक महत्वपूर्ण पुरास्थल है। इस कार्य में उनके साथ उनके शोध-निर्देशक प्रो. यम दीक्षित भी थे। उन्होंने शोध के उद्देश्य से चुने हुए साइट पर 13 फीट लंबा, 4 फीट चौड़ा और 10 फीट गहरा उत्खनन किया। उनके साथ आईआईटी-गांधीनगर से प्रो. प्रभाकर और शिखा राय भी थे।
यह बताया जाता है कि यह दो आईआईटी संस्थानों के बीच तय हुआ कोई कार्य-संबंध नहीं था। यह प्रो. प्रभाकर और शिखा राय द्वारा स्थानीय स्तर पर दिया गया सहयोग था। यह खुदाई जैसा कि एफआईआर में कहा गया है, मशीन से, कई अखबारों के अनुसार जेसीबी जैसी मशीन से की गई थी।
आमतौर पर पुरातत्व की खुदाई में ऐसी मशीनों का प्रयोग अपवाद स्वरूप ही होता है। इस खुदी हुई जगह में अध्ययन के दौरान, जैसा कि लिखा गया है, मिट्टी दरकने लगी और उसमें प्रो. यम दीक्षित और सुरभि वर्मा दब गये। वह उनके सहयोगी प्रो. प्रभाकर ने किसी तरह से प्रो. दीक्षित को निकाल लिया लेकिन सुरभि को निकालने तक उनकी मौत हो चुकी थी।
इस घटना को लेकर प्रो. यम दीक्षित पर भारतीय न्याय संहिता के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी, जिसमें उन पर 106-1 और 125-ए जैसी धाराएं लगाई गई। सुरभि वर्मा की मौत को लेकर उस समय अध्ययन, तकनीक आदि को लेकर काफी बहसें सामने आईं, खासकर इस तरह के अध्ययन को लेकर तैयारियों के संदर्भ में भी काफी बातें हुई थीं। परिवार की ओर से आरोप लगाया गया था कि इस शोध से संबंधी प्रक्रिया में उपयुक्त कदम नहीं उठाये गये थे।
एक गहरे उत्खनन के लिए पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से अनुमति जरूरी होती है और साथ इसके लिए सुरक्षा संबंधी मानक और उपकरणों की भी अवहेलना की गई थी। इस उत्खनन में मिट्टी में 30 से 40 मिनट तक दबे रह जाना और उससे हुई मौत एक बड़ी खामी को दिखाता है। उस समय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के बयान में भी यह बात थी कि उपरोक्त खुदाई के लिए उनसे अनुमति नहीं ली गई थी।
इस घटना ने एक विवाद को जन्म दिया और इसे लेकर आईआईटी-दिल्ली ने एक जांच समिति का गठन किया। इस समिति के अध्यक्ष आईआईटी-कानपुर के जावेद एन मलिक थे, अन्ना विश्वविद्यालय से हेमा अच्युतन और आईआईटी-मुंबई से दीपांकर चौधरी। इस समिति को लोथल और इसी तरह के शोध संदर्भों में प्रक्रिया और प्रोटोकाॅल को लेकर सुझाव देने थे। इस कमेटी ने प्रक्रिया संबंधी मानक निर्धारण के लिए जो सुझाव दिया है, उसकी बड़ी जिम्मेदारी शोध-छात्र पर ही डाल दिया है और इतनी सारी शर्तों को उसके ऊपर थोप दिया गया है, जिसे पूरा करते हुए शोध करना एक लंबे बाधा-दौड़ से भी मुश्किल काम हो गया है।
इंडियन एक्सप्रेस ने इन सुझावों का एक संक्षिप्त हिस्सा पेश किया है। उसके कुछ हिस्से को हम पेश कर रहे हैं- शोध के लिए फिल्ड-कार्य में जाने के लिए उपयुक्त अनुमति के लिए नो ऑबजेक्शन सर्टिफिकेट मां-पिता, विभागाध्यक्ष और स्थानीय प्रशासन की जरूरत होगी। उत्खनन स्थल सड़क से दूर हो, जिससे उसके कंपन से बचा जा सके। उत्खनन हिस्सा 3.5 से 4 मीटर चौड़ा हो जिससे उसमें अंदर जाया और उससे बाहर आया जा सके। लगातार निगरानी हो जिससे कोई दरार बने तो उससे निपटा जा सके। उत्खनन से निकाली गई मिट्टी को लगातार निकालकर बाहर रखना जिससे उत्खनित स्थल पर दबाव न बने। उत्खनन स्थल में एक तिरछी दीवार बनाना जो ऊपर आने/नीचे जाने के रैम्प की तरह काम कर सके।
यह जो सुझाव हैं, इसमें शोध-छात्र के लिए अनमुति वाला हिस्सा निकाल दिया जाए, तब पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन संबंधी निर्देश और कक्षाओं में पढ़ाये जाने वाली शुरूआती पाठ से कहीं अधिक मेल खाते हुए दिखते हैं। पुरातत्व उत्खनन संबंधी कार्य करने के लिए प्राथमिक प्रशिक्षण में इन सुझावों से अधिक सतर्कता बरतने और पुरातत्व तथ्यों को सुरक्षित रखने के लिए निर्देश और उपाय बताये जाते हैं।
ऐसा लगता है कि लोथल में प्रो. यम दीक्षित द्वारा उत्खनन में की गई गलतियों से सीखने के नाम पर संस्थान सारा कार्यभार छात्र-छात्राओं पर डाल देना चाहता है, जिससे ‘दुर्घटना’ होने पर जिम्मेदारियों से बचा जा सके। ‘नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट’ को इस कदर दुरूह बना देने से शोध कार्य करना और भी मुश्किल हो जाएगा।
यहां मुख्य बात है कि सुरभि वर्मा के शोध निदेशक प्रो. यम दीक्षित ने उपयुक्त प्रक्रियाओं का पालन क्यों नहीं किया। क्या उन्होंने पुरातत्व उत्खनन से संबंधित प्रशिक्षण खुद लिया था और यह प्रशिक्षण सुरभि वर्मा को दिया था? क्या उन्होंने पुरातत्व विभाग से उत्खनन करने की अनुमति ली थी? यदि नहीं, तब क्या उन्होंने गैरजिम्मवारी का काम नहीं किया? उन्होंने एक पुरातत्व स्थल पर भारी-भरकम मशीन का प्रयोग क्यों किया? इन सवालों का उत्तर, इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबरों से नहीं मिलती है। उम्मीद है कि आने वाले समय में इस समिति की पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक होगी, जिससे शोध संबंधी कठिनाईयों से उबरते हुए शोध-कार्य करना और आसान होगा।
राहुल सांस्कृत्यायन की पुस्तक ‘पुरातत्व-निबंधावली’ में पुरातत्व-कार्यकर्ता बनाने को लेकर कुछ ठोस सुझाव देते हैं। इसमें वह मिट्टी के परतों, उसमें दबे तथ्यों, बर्तनों, ईंट और मूर्तियों को समझने और सुरक्षित रखने के उपाय बताते हैं। वह खुद पुरातत्व-विद् नहीं थे। लेकिन, वह आम ग्रामीण युवाओं को इस दिशा में प्रशिक्षित करने के लिए वर्कशाॅप आयोजित करने का आग्रह करते हैं।
पुरातत्व-स्थल आमतौर पर टीले के आकार में दिखते हैं। इसमें कई तथ्यों के दबे होने, मिट्टी की परतों के जमा होने और मौसम की मार का इन पर असर बने रहना आम सी बात है। इन स्थलों के अध्ययन में काफी सर्तकता निभानी होती है। इन स्थलों के ऊपरी सतहों पर सांप और बिच्छू आदि जीवों के होने से लेकर उत्खनन में इसके भुर-भुरे होने से कई तरह की समस्याएं आती हैं। ऐसे में उत्खनन के दौरान सिर्फ पुरातत्व तथ्यों को सुरक्षित करने की चुनौती ही नहीं होती, उत्खननकर्ता को भी सुरक्षित रखना होता है।
आईआईटी-दिल्ली द्वारा बनाई गई समिति के सुझावों पर जो खबर आई है, वह शोध-छात्रों के लिए निश्चित ही निराशाजनक माहौल बनाएगा। इस संदर्भ में, संस्थान का प्रशासन जरूर ही ‘नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट’ वाले हिस्से पर गौर करेगा और इसे दुरूस्त करेगा।
(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)