भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा सिंधु घाटी लिपि पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की घोषणा

इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्र में केंद्र की भाजपा सरकार भले ही एकतरफा निर्णय लेने में दो कदम आगे रही हो, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उस पर बाहरी दबाव भी प्रभाव डालने लगा है। हाल ही में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने सिंधु घाटी लिपि के पाठ को समझने के लिए तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने की घोषणा की है।

यह सम्मेलन संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से 20-22 अगस्त, 2025 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय पुरातत्व संस्थान, ग्रेटर नोएडा में आयोजित किया जाएगा। इसका उद्देश्य उन लोगों को मंच प्रदान करना है जो इस लिपि को समझना चाहते हैं, इसका अध्ययन कर रहे हैं, या इस पर शोध करके किसी निष्कर्ष तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें विद्वान, शोधकर्ता, और स्वतंत्र रूप से इस लिपि को समझने-पढ़ने की दिशा में कार्य करने वाले सभी व्यक्ति भाग ले सकते हैं।

यहां तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के जनवरी 2025 के उस बयान को याद करना उचित होगा, जिसमें उन्होंने सिंधु लिपि को पढ़ने वाले को दस लाख डॉलर का पुरस्कार देने की घोषणा की थी। यह घोषणा उन्होंने एक तीन दिवसीय आयोजन के दौरान की थी, जिसमें उन्होंने भारत के इतिहास में तमिलनाडु की उपस्थिति को उचित स्थान देने के संदर्भ में महत्वपूर्ण भाषण दिया था। साथ ही, उन्होंने कीलाडी में हुई पुरातात्विक खोजों को नजरअंदाज करने वाली केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना भी की थी।

कीलाडी से प्राप्त पुरातात्विक तथ्यों की ओर ध्यान देना भी प्रासंगिक है। मदुरै के निकट इस पुरातात्विक स्थल पर 2014 से निरंतर उत्खनन कार्य चल रहा है, और अब तक इसे 11 चरणों में पूरा किया गया है। इस उत्खनन का निर्देशन करने वाले पुरातत्वविद ने लगभग 900 पेज की ड्राफ्ट रिपोर्ट तैयार की है, जिस पर विवाद उत्पन्न हो गया है।

पिछले नौ महीनों में उत्खननकर्ता को तीन बार स्थानांतरित किया गया है, और इससे पहले उन्हें तमिलनाडु से हटाकर असम भेज दिया गया था। कीलाडी से प्राप्त तथ्य तमिलनाडु के इतिहास को वर्तमान समय से 300 वर्ष और पीछे ले जाते हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा आयोजित यह तीन दिवसीय सम्मेलन सिंधु घाटी सभ्यता की खोज के 100 वर्ष पूरे होने के अवसर पर हो रहा है। इस सभ्यता की खोज 1921 में हड़प्पा में रेलवे लाइन के लिए ईंटों की आवश्यकता पूरी करने हेतु एक विशाल खंडहर से सामग्री लेने के दौरान हुई थी। बाद में, जॉन मार्शल ने यहां सुनियोजित उत्खनन करवाया और प्राप्त तथ्यों का अध्ययन करके इसे इतिहास के पन्नों पर स्थान दिया। यह कार्य 1924 में हुआ।

हालांकि उनके उत्खनन और अध्ययन प्रारंभिक स्तर के थे, जिसके कारण कई तथ्यों का नुकसान हुआ, फिर भी उन्होंने विश्व और भारत की प्राचीनतम नगरीय सभ्यता को उचित मान्यता दिलाई। 1931 में मोहनजोदड़ो में हुई खुदाई के दौरान यहां से प्राप्त लिपि के विधिवत अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया गया।

जैसे-जैसे सिंधु घाटी के अन्य स्थलों पर खुदाई और तथ्यों का संग्रह बढ़ा, इस लिपि के ‘अक्षरों’ की संख्या में भी वृद्धि हुई। लेकिन, जहां विश्व की अन्य प्राचीन लिपियों को पढ़ने में सफलता मिली, वहीं सिंधु घाटी की लिपि आज भी एक रहस्य बनी हुई है।

समय-समय पर कई विद्वानों ने सिंधु लिपि को पढ़ने का दावा किया है, लेकिन ये दावे सिद्ध नहीं हो सके। इस संदर्भ में भारत में दो अन्य लिपियों-खरोष्टी और ब्राह्मी-के सामने आने और इनके सिंधु लिपि से संभावित संबंधों पर भी बहस हुई है। ब्राह्मी लिपि भारत की ऐसी लिपि बनी, जिससे आधुनिक भारतीय लिपियां विकसित हुईं, चाहे वे दक्षिण भारत की तमिल जैसी लिपियां हों या उत्तर भारत की लिपियां। संस्कृत भी ब्राह्मी लिपि में लिखी गई, जो बाद में विकसित होकर नागरी लिपि बनी, जिसमें आज हिंदी और संस्कृत लिखी जाती हैं।

प्रागैतिहासिक तथ्यों और भाषाई अध्ययनों से पता चलता है कि द्रविड़ संस्कृति के कई तत्व भारत के पश्चिमोत्तर भाग में मिलते हैं, और प्राचीन संस्कृत में भी इनकी उपस्थिति देखी गई है। कई इतिहासकारों और नृविज्ञानियों ने सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े तथ्यों के गुजरात और इसके निचले हिस्सों में मिलने का दावा किया है। मगध साम्राज्य के उदय के समय की मूर्तियों और स्थापत्य कला में भी ऐसी उपस्थिति दिखती है। ऐसे में भाषा के प्रभाव को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता।

संभव है कि सिंधु घाटी की भाषा अन्य भाषाई धाराओं में समाहित हो गई हो। लेकिन, इस लिपि का विलुप्त होना एक रहस्य बना हुआ है। लिपि की संरचना के आधार पर इसकी उपस्थिति के दावे भले ही पुष्ट न हो रहे हों, लेकिन यदि इसे पढ़ना संभव हुआ, तो इस भाषा के प्रवाह से सभ्यता के संस्थापक लोगों की निरंतरता को समझना आसान हो जाएगा। इससे अन्य दावों की सत्यता भविष्य में स्पष्ट होगी, और सिंधु घाटी सभ्यता प्रोटो-इतिहास से पूर्ण रूप से इतिहास का हिस्सा बन जाएगी। यह भारत और विश्व के इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना होगी।

यह समझना आवश्यक है कि इस लिपि को अब तक क्यों नहीं पढ़ा जा सका। सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन अन्य सभ्यताओं की लिपियां अक्सर दोहरी लिपियों (द्विभाषी अभिलेखों) के रूप में मिलीं, जिससे उनकी तुलनात्मक संरचना को समझना और पढ़ना आसान हुआ। सिंधु घाटी सभ्यता के मेसोपोटामिया और अन्य सभ्यताओं के साथ व्यापारिक संबंध थे, और इस संदर्भ में कुछ तथ्य भी मिले हैं। लेकिन, ये तथ्य द्विभाषी रूप में नहीं हैं, और इतने सीमित हैं कि उनके आधार पर निष्कर्ष निकालना कठिन है।

इतिहास और संस्कृति का निर्माण तभी संभव है, जब इस पर खुली और समावेशी भागीदारी हो। पिछले दस वर्षों से भारत के इतिहास, संस्कृति, और पुरातत्व पर जिस तरह एकपक्षीय दृष्टिकोण थोपा जा रहा है, हिंसक राजनीति हो रही है, और घृणा से भरी दलीलें दी जा रही हैं, उससे न केवल उचित माहौल नष्ट हुआ है, बल्कि पुरातात्विक धरोहरें भी संकट में पड़ गई हैं।

खुदाई का अर्थ अब इतिहास से रूबरू होना नहीं, बल्कि उसे नष्ट करने जैसा हो गया है। हम उम्मीद करते हैं कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा सिंधु घाटी लिपि पर आयोजित यह तीन दिवसीय सम्मेलन सही दिशा में एक कदम होगा और हमारी सांस्कृतिक विरासत को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)

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