दिल्ली विश्वविद्यालय का कारनामा : रिटायरमेंट के छह वर्ष बाद भी पूरी तरह शुरू नहीं हो सकी एक शिक्षक की पेंशन

यह कहानी दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज के एक सेवानिवृत्त शिक्षक की व्यथा-कथा है, जिसकी पेंशन रिटायरमेंट के छह वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी पूरी तरह शुरू नहीं हो सकी। दरअसल, यह कहानी मेरी ही है। सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले के बावजूद, जिसमें किसी भी कर्मचारी की पेंशन रोकने पर प्रतिबंध है, फरवरी 2019 में मेरे सेवानिवृत्त होने के बाद बिना कोई कारण बताए मेरी पेंशन रोक दी गई।

सेवानिवृत्त होने से पहले ही कॉलेज में चर्चा थी कि रिटायरमेंट के बाद कॉलेज प्रशासन मेरी पेंशन प्रक्रिया में अड़चनें डाल सकता है। यह आशंका रिटायरमेंट के बाद सच साबित हुई। संयोग से, 10 दिसंबर 2018 को, जब मेरे कानों में यह खबर पड़ी, उसी दिन मुझे जानलेवा दिल का दौरा पड़ा। समय पर अस्पताल पहुंचने के कारण मैं बच गया।

मेरी समझ में इसके जो कारण थे, वे कॉलेज के स्टाफ एसोसिएशन की अध्यक्षता से जुड़े थे।

  • 2011: मैं कॉलेज के स्टाफ एसोसिएशन का अध्यक्ष था। तब शिक्षकों के रिक्त क्वार्टरों के आवंटन का मामला चर्चा में था। रिटायर हुए शिक्षकों के क्वार्टर कॉलेज प्रशासन आवेदक शिक्षकों को आवंटित नहीं कर रहा था। इसके बाद कोई भी रिक्त क्वार्टर आवंटित नहीं हुआ। स्टाफ एसोसिएशन के नेतृत्व में शिक्षकों ने 42 दिनों तक रिले भूख हड़ताल की।

  • 2015: मैं फिर से स्टाफ एसोसिएशन का अध्यक्ष था। शिक्षकों के दो गुटों के आपसी विवाद के आधार पर एक गुट के दो शिक्षक निलंबित कर दिए गए थे। निलंबन वापस लेने की मांग को लेकर स्टाफ एसोसिएशन के नेतृत्व में एक महीने से अधिक समय तक कॉलेज के गेट पर धरना दिया गया।

  • 2014: मैं सहित सात शिक्षकों ने दिल्ली के उपराज्यपाल को निर्माणाधीन गर्ल्स हॉस्टल और शैक्षणिक ब्लॉक के एनजीटी प्रमाणपत्र को लेकर पत्र लिखा। कॉलेज प्रशासन ने इसे कॉलेज-विरोधी कार्य घोषित कर सात शिक्षकों के खिलाफ दो इंक्रीमेंट काटने सहित अनुशासनात्मक कार्रवाई की घोषणा की। इसके खिलाफ शिक्षकों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की, जो अभी तक चल रही है।

फरवरी 2019 में रिटायर होने के बाद न तो मेरी पेंशन शुरू की गई, न ही इसे रोकने का कोई कारण बताया गया। अक्टूबर 2019 में मैंने कॉलेज कैंपस का आवास छोड़कर नोएडा के सेक्टर 82 में किराए के मकान में रहना शुरू किया। 10 नवंबर 2019 को कॉलेज कार्यालय से पता चला कि मेरे पेंशन संबंधी कागजात अभी तक विश्वविद्यालय की पेंशन सेल को नहीं भेजे गए थे। संयोग से, उसी दिन मुझे दूसरा दिल का दौरा पड़ा।

मैं हिंदू कॉलेज और दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारियों को पेंशन शुरू करने के लिए लगातार पत्र लिखता रहा, लेकिन किसी ने मेरे किसी आवेदन का जवाब नहीं दिया। इस बीच, उपराज्यपाल को पत्र लिखने वाले छह अन्य शिक्षकों को जून 2020 में प्रिंसिपल का एक ईमेल मिला, जिसमें 28 मई 2020 की गवर्निंग बॉडी की बैठक में उक्त मामला बंद करने की सूचना दी गई थी। कई बार फोन और ईमेल पर आग्रह करने के बाद अगस्त 2020 में मुझे भी उसी आशय का ईमेल मिला। इस भेदभाव का कोई तर्क मेरी समझ में नहीं आया। मुझे उम्मीद थी कि अब मेरी पेंशन शुरू हो जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। फोन पर प्रिंसिपल ने बताया कि आर्थिक दंड का मामला अभी भी विश्वविद्यालय के पास मंजूरी के लिए लंबित है।

मार्च-अप्रैल 2021 में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के तत्कालीन अध्यक्ष राजीव रे के साथ विश्वविद्यालय के ज्वाइंट रजिस्ट्रार सुधीर शर्मा (अब दिवंगत) से मिला। उन्होंने सलाह दी कि यदि मैं अदालत के मामले से अपना नाम वापस ले लूं, तो पेंशन शुरू हो सकती है। मजबूरी में मैंने कोर्ट के मामले से अपना नाम वापस ले लिया, लेकिन फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ।

अंततः अगस्त 2021 में हिंदू कॉलेज के लेखा विभाग से एक हलफनामा देने का फोन आया। तब पता चला कि प्रोविजनल पेंशन मंजूर हो गई थी। यह पेंशन मेरे अंतिम वेतन के आधार पर नहीं, बल्कि एसोसिएट प्रोफेसर के शुरुआती वेतनमान पर तय की गई थी। यदि यह शुरू से मिलती, तो रिटायरमेंट के समय मिली ग्रेच्युटी और पीएफ की संचित राशि का कुछ हिस्सा आपात स्थिति के लिए बचा रहता। तब से मैं दिल्ली विश्वविद्यालय और हिंदू कॉलेज के अधिकारियों को पूरी पेंशन बहाल करने के लिए लगातार लिखता रहा, लेकिन किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।

प्रोविजनल पेंशन में पेंशन का कुछ हिस्सा कम्यूट करने की सुविधा नहीं होती। मैंने सोचा था कि पेंशन का कुछ हिस्सा कम्यूट करके गांव में एक छोटा-सा आशियाना बनवा लूंगा, जहां कभी-कभी जाकर रह सकूं। लेकिन विश्वविद्यालय और कॉलेज प्रशासन को यह मंजूर नहीं था। विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलने का समय मांगा, तो उन्होंने रजिस्ट्रार से मिलने की सलाह दी। रजिस्ट्रार ने परोक्ष रूप से आजीवन दुष्परिणाम भोगने की धमकी दी।

कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रशासन को अनगिनत अनुत्तरित आवेदनों के बाद, 3 दिसंबर 2024 को विश्वविद्यालय के ज्वाइंट रजिस्ट्रार श्री प्रदीप कुमार का फोन आया। उन्होंने बताया कि कुलपति ने हिंदू कॉलेज की गवर्निंग बॉडी की सहमति से मेरी समस्या का समाधान कर दिया है। 2014 से लंबित सात शिक्षकों के खिलाफ दो इंक्रीमेंट काटने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई। कॉलेज प्रशासन ने मुझसे हलफनामा लिया कि मेरे बकाया में से दंड की राशि काटकर मेरी पूरी पेंशन शुरू कर दी जाए। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने केवल मेरे मामले में नहीं, बल्कि सभी सात शिक्षकों के इंक्रीमेंट काटने को मंजूरी दी।

चूंकि मैं ही रिटायर हुआ हूं, और बाकी छह शिक्षकों का मामला अदालत में है, इस कटौती का उन पर कोई व्यावहारिक असर नहीं पड़ा। वे इस कटौती के खिलाफ अदालत जाएंगे, यह तय है। कॉलेज प्रशासन अपनी जिद नहीं छोड़ सकता, और अदालत में मामला होने के कारण कटौती लागू नहीं हो सकती। नतीजतन, मामला जस का तस पड़ा है।

कॉलेज ने दिल्ली हाई कोर्ट में हलफनामा देकर कह चुका है कि मई 2020 में यह मामला बंद हो चुका था। फिर बंद मामले की मंजूरी का तर्क समझ से परे है। मजबूरन, मैंने पेंशन बहाली के लिए हाई कोर्ट की शरण ली है। वैसे भी मामला लटका हुआ था, अब अदालत में लटकेगा। 23 जून को जिस न्यायाधीश की पीठ में मामला दायर हुआ, उन्होंने इस तर्क पर खुद को मामले से अलग कर लिया कि वे हिंदू कॉलेज के छात्र रहे हैं।

कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए एक सेवानिवृत्त शिक्षक को प्रताड़ित करना इसलिए आसान है, क्योंकि यह एक गैर-हाजिर दुश्मन पर हमला करने जैसा है।

(ईश मिश्रा सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।)

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