उत्तराखंड नौकरशाही में इस्तीफों की लहर: क्यों भाग रहे हैं नौकरशाह?

उत्तराखंड की नौकरशाही में हाल के महीनों में वरिष्ठ अधिकारियों के इस्तीफों की खबरें सुर्खियों में रही हैं। पहले आईपीएस अधिकारी रचिता जुयाल और अब उत्तराखंड वन विभाग के प्रमुख डॉ. धनंजय मोहन ने अपनी सेवाओं से इस्तीफा दे दिया है। डॉ. मोहन ने शुक्रवार देर शाम स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) का आवेदन दिया, जिसे महज 18 घंटे में शनिवार दोपहर, सचिवालय में छुट्टी के दिन, स्वीकार कर लिया गया।

रचिता जुयाल का अपने गृह प्रदेश में सेवा न जारी रखने का निर्णय भी गंभीर सवाल खड़े करता है। इसके अलावा, अन्य अधिकारियों के वीआरएस आवेदन और लगातार तबादलों ने राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं। ये घटनाएँ न केवल नौकरशाही के भीतर असंतोष को दर्शाती हैं, बल्कि राज्य की शासन व्यवस्था पर भी गंभीर प्रभाव डाल रही हैं। आखिर इन इस्तीफों के पीछे क्या कारण हैं, और यह उत्तराखंड के लिए क्या संदेश दे रहा है?

पिछले मई में 2012 बैच की आईपीएस अधिकारी रचिता जुयाल ने एसपी सतर्कता के पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने व्यक्तिगत कारणों का हवाला दिया, लेकिन उनके इस्तीफे ने कई सवाल खड़े किए। रचिता एक हाई-प्रोफाइल भ्रष्टाचार विरोधी मामले की जाँच कर रही थीं, और उनके इस्तीफे से पहले सतर्कता विभाग के एक अन्य अधिकारी का तबादला हुआ था। इस घटना ने नौकरशाही में दबाव या असंतोष की अटकलों को जन्म दिया।

दूसरी ओर, 1989 बैच के आईएफएस अधिकारी धनंजय मोहन, जो वन विभाग के प्रमुख थे, ने हाल ही में अपनी सेवा छोड़ने का फैसला किया। उन्होंने 21 जून से 3 जुलाई तक की छुट्टी का आवेदन पहले ही कर लिया था। ऐसे में सवाल उठता है कि जब वह पहले से छुट्टी पर जाने वाले थे, तो अचानक वीआरएस की क्या जरूरत पड़ी? और यदि वीआरएस का मन बना लिया था, तो छुट्टी का आवेदन क्यों किया गया?

इसके अलावा, उत्तराखंड में नौकरशाही में अस्थिरता के अन्य उदाहरण भी सामने आए हैं। 2024 में वरिष्ठ आईएएस अधिकारी मनीषा पंवार ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन किया। सितंबर 2024 में 15 आईपीएस अधिकारियों के तबादले हुए, जबकि अगस्त 2021 में 43 अधिकारियों, जिनमें आईएएस और आईपीएस शामिल थे, का स्थानांतरण किया गया। फरवरी 2025 में चार आईपीएस अधिकारियों को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति से वंचित कर दिया गया, जो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तनाव का संकेत देता है। साथ ही, 2024 में जंगल की आग की घटना में लापरवाही के लिए निलंबित आईएफएस अधिकारियों की बहाली ने भी विवाद को जन्म दिया।

इन इस्तीफों और तबादलों के पीछे कई कारण हो सकते हैं:

  1. राजनीतिक हस्तक्षेप: उत्तराखंड में नौकरशाही को अक्सर राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ता है, खासकर चुनावी मौसम में। बार-बार होने वाले तबादले अधिकारियों के काम को प्रभावित करते हैं और उनमें निराशा पैदा करते हैं।
  2. सिस्टम की समस्याएँ: वरिष्ठ अधिकारी स्वायत्तता की कमी, नौकरशाही की अकुशलता, और नीतियों को लागू करने में समर्थन की कमी से जूझते हैं। सतर्कता विभाग जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में काम करने वाले अधिकारियों को विशेष रूप से दबाव का सामना करना पड़ता है।
  3. व्यक्तिगत और पेशेवर आकांक्षाएँ: कुछ अधिकारी निजी कारणों, जैसे पारिवारिक जिम्मेदारियों या निजी क्षेत्र में अवसरों के लिए इस्तीफा दे रहे हैं। केंद्रीय प्रतिनियुक्ति जैसे अवसरों से वंचित होने पर भी कुछ अधिकारी सेवा छोड़ने का फैसला लेते हैं।

इन घटनाओं को नौकरशाही की साजिश के रूप में देखना सही नहीं होगा। यह व्यक्तिगत निर्णयों का परिणाम हो सकता है, लेकिन इसका बार-बार होना सिस्टम की खामियों को उजागर करता है। यह नौकरशाही में अस्थिरता को बढ़ाता है, प्रशासनिक निरंतरता को नुकसान पहुँचाता है, और जनता का भरोसा कम करता है। उत्तराखंड जैसे राज्य में, जहाँ आपदा प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण जैसी चुनौतियाँ हैं, यह स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है।

इन इस्तीफों को एक अवसर के रूप में भी देखा जा सकता है। राज्य सरकार को नौकरशाही की शिकायतों को दूर करने, पारदर्शी नीतियाँ बनाने, और अधिकारियों के कल्याण पर ध्यान देने की जरूरत है। तबादलों में स्थिरता, मेरिट आधारित पदोन्नति, और राजनीतिक दबाव से मुक्ति नौकरशाही को मजबूत कर सकती है। यदि इन मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह प्रवृत्ति जारी रह सकती है, जो राज्य के विकास के लिए हानिकारक होगी।

उत्तराखंड की नौकरशाही में यह उथल-पुथल एक गंभीर संकेत है। यह समय है कि सरकार और प्रशासन मिलकर इस संकट का समाधान करें, ताकि शासन व्यवस्था मजबूत हो और जनता का विश्वास बहाल हो।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और देहरादून में रहते हैं)

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