उत्तर प्रदेश के बजट में 13 प्रतिशत शिक्षा के लिए, फिर भी स्कूलों पर संकट

आप मानें या न मानें, पिछले एक दशक से शिक्षा के सुधार के नाम पर स्कूलों को बंद करने का सिलसिला चल रहा है। यह अलग बात है कि इसमें कौन-सा राज्य अधिकतम स्कूल बंद करके रिकॉर्ड बनाने में आगे निकलेगा। हाल ही में जब उत्तर प्रदेश में यह खबर फैली कि प्रदेश में प्राथमिक स्तर के 5,000 स्कूल बंद होंगे, तो एकबारगी विश्वास नहीं हुआ। कुछ शिक्षकों से बात करने पर यह संख्या अलग-अलग बताई गई। कई लोगों ने कहा कि यह संख्या 5,000 नहीं, 7,000 है। कुछ पर्चों में इसकी संख्या 27,000 बताई गई। यह अंतिम संख्या पिछले साल स्कूलों को बंद करने की घोषित संख्या है।

‘स्कूलों को बंद करना’ भी एक तकनीकी शब्दावली में बंधकर सामने आ रहा है, जिसे मर्जर आदि का नाम दिया जा रहा है। ऐसे में कितने स्कूल वास्तव में प्रभावित होंगे या पूरी तरह बंद होंगे, यह आने वाले समय में पता चलेगा। लेकिन, कुछ समय पहले ही एक केंद्रीय स्तर की रिपोर्ट में बताया गया था कि 2023-24 में उत्तर प्रदेश में प्राथमिक स्कूल स्तर के कुल पंजीकरण की संख्या 1.74 करोड़ थी, जो 2024-25 में घटकर 1.52 करोड़ हो गई। महज एक साल में 21.83 लाख बच्चों का पंजीकरण कम हो गया। यह संख्या हैरान करने वाली थी और पूरे देश में न केवल सबसे ऊपर थी, बल्कि कई राज्यों की संयुक्त संख्या से भी अधिक थी।

इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि इस चिंताजनक स्थिति को समझने के लिए एक टीम प्रभावित राज्यों का दौरा करेगी, ताकि घटती संख्या के कारणों का पता लगाया जा सके। यह टीम बनी या नहीं, इसकी अब तक कोई खबर नहीं है। इस घटती संख्या से चिंतित होने के बजाय स्कूलों को बंद करने का निर्णय, जो दरअसल तकनीकी शब्दावली में नाम बदलकर प्रकट होता है, निश्चित ही आश्चर्यजनक है।

इतनी बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश के प्राथमिक स्कूलों में छात्रों की कमी का एक बड़ा कारण पहली कक्षा में भर्ती की उम्र 6 साल करना था। इस कक्षा में भर्ती की सामान्य उम्र 5 साल होती है। यदि यह उम्र सीमा पूरे देश में एक साथ लागू होती, तो शायद समस्या नहीं होती। यह एक ऐसा निर्णय था, जिसमें किसी भी अभिभावक को लग सकता है कि उसका बच्चा सामान्य शिक्षण व्यवस्था में एक साल पीछे हो जाएगा।

दूसरा बड़ा कारण, इस निर्णय के बावजूद कि प्राथमिक स्कूलों के एक निश्चित दायरे में निजी स्कूल नहीं होंगे, बड़े पैमाने पर ऐसे स्कूल खुल गए और चल रहे हैं। इन स्कूलों में गरीब वर्ग के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा की सुविधा देने का प्रावधान भी किया गया। इसे स्कूलों को ‘प्रतियोगी’ बनाने के नाम पर किया गया। निजी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती, उनकी शिक्षा, और वेतन आदि का न तो ढंग से कोई मानदंड लागू होता है और न ही उनकी देखरेख करने वाली कोई संस्था है। यहाँ अंग्रेजी भाषा का आकर्षण अलग से रहता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्कूलों में शिक्षकों की संख्या लगातार कम हो रही है। दूसरा, स्कूलों को कथित तौर पर ‘विकसित’ करने के नाम पर गैर-संस्थानों द्वारा किया जा रहा हस्तक्षेप है, जो आए दिन पाठ्यक्रमों और शिक्षण में सुधार के नाम पर स्कूलों पर बोझ बन रहा है। एक तरफ शिक्षकों की कमी और दूसरी तरफ स्कूलों को ‘प्रयोगशाला’ बनाकर बड़े-बड़े दावे करना, प्राथमिक स्कूलों को और भी विडंबनापूर्ण स्थिति में धकेल रहा है। इन दावों में यह कभी नहीं बताया गया कि स्कूलों से बच्चे क्यों ‘गायब’ हो रहे हैं?

2024-25 में केंद्र सरकार के बजट में 1,28,650.05 करोड़ रुपये खर्च करने की घोषणा की गई, जिसमें इसका 61 प्रतिशत हिस्सा स्कूली शिक्षा और साक्षरता पर खर्च करने का निर्णय लिया गया। उत्तर प्रदेश सरकार के 2024-25 के बजट में 1.06 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का निर्णय लिया गया, जो कुल बजट का 13 प्रतिशत है। केंद्र सरकार राज्यों के साक्षरता अभियान के खर्च में हिस्सेदार होती है।

लेकिन, एक आँकड़े के अनुसार, उत्तर प्रदेश में शिक्षा के अधिकार (RTE) के तहत प्रति छात्र प्रति माह 450 रुपये की प्रतिपूर्ति की गई। कई गैर-सरकारी संगठनों, जो बच्चों और उनकी शिक्षा पर काम करते हैं, ने पिछले दस सालों से ऐसे खर्चों का हिसाब लगाया है, और उनके अनुसार प्रति छात्र प्रति वर्ष औसतन 35 से 36 हजार रुपये खर्च किए गए। केंद्रीय स्तर के खर्च की तुलना में यह राशि निश्चित ही कम है।

हालाँकि, उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने अत्यंत आकर्षक व्यवस्थाओं वाले कंपोजिट स्कूल खोलने की घोषणा की है, जिनमें स्मार्ट क्लासरूम, डिजिटल लाइब्रेरी, कंप्यूटर लैब, आधुनिक विज्ञान प्रयोगशाला, मिनी स्टेडियम, कौशल विकास, वर्कशॉप, और शिक्षकों के लिए आवास जैसी सुविधाएँ शामिल हैं। कोई भी योजना तब तक अर्थपूर्ण नहीं होती, जब तक वह जमीन पर उतर न जाए। और, सारी घोषणाओं के साथ जब यह खबर भी आए कि इन सरकारी स्कूलों से लगभग 22 लाख छात्र कम हो गए हैं, तब हमें सबसे पहले इसके कारणों को समझने की दिशा में जाना होगा।

यह हैरानी की बात है कि साक्षरता अभियान और शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए जो योजनाएँ बनाई गई थीं, उनमें स्कूलों को छात्रों की पहुँच तक लाने का प्रयास मुख्य था। इसके लिए मध्याह्न भोजन की व्यवस्था की गई, जिससे विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा में बड़ी वृद्धि हुई। जिस तरह से स्कूलों को मर्ज करने की बात हो रही है, उससे स्कूल गाँवों से दूर होते जाएँगे। जितने ही ये दूर होंगे, सबसे पहले प्रभावित होने वाली बालिकाएँ ही होंगी। खासकर, मेहनतकश आबादी जो मजदूरी के लिए काम पर जाती है, उनके लिए स्कूलों की दूरी बच्चों की सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बन जाएगी, और इसका असर शिक्षा पर पड़ेगा।

ऐसा नहीं है कि इस तरह का निर्णय पहली बार आया है। पहले भी ऐसे निर्णय आए हैं, और जितने बड़े पैमाने पर स्कूल बंद करने की घोषणाएँ हुईं, उतने ही बड़े पैमाने पर विरोध के कारण राज्य सरकार को पीछे हटना पड़ा। लेकिन, यह बात पूरी तरह सच नहीं है। स्कूलों की इमारतों की खराब हालत, बच्चों की उपस्थिति, और कई बार शिक्षकों की उपस्थिति की वजह से बेहद धीमी गति से कुछ स्कूलों को एक-दूसरे में मिला दिया गया, जिसे शिक्षकों और अधिकारियों के बीच ‘मर्जिंग’ का नाम दिया गया। रजिस्टर में ये स्कूल बंद नहीं हुए, वे चल रहे हैं, वैसे ही जैसे देश में औपचारिक तौर पर लोकतंत्र चल रहा है।

इस संदर्भ में कुछ पत्रकार मित्रों ने इसे ‘स्टोरी’ बनाने को काफी कठिन बताया। इसके पीछे यही कारण था कि ऐसे स्कूल घोषित तौर पर बंद ही नहीं हुए हैं। लेकिन, जब तकनीकी तौर पर स्कूलों में न्यूनतम 50 छात्रों की उपस्थिति को अनिवार्य किया गया, और इससे कम होने पर स्कूल को बंद करने या किसी अन्य स्कूल में मर्ज करने का निर्णय लिया गया, तब इस दिशा में तेजी से बढ़ने का रास्ता खुल गया।

उत्तर प्रदेश में स्कूलों के हालात पर पत्रकारों द्वारा रिपोर्टिंग करना भी एक खतरनाक काम बन गया है। कई पत्रकारों पर मुकदमे दर्ज हुए, उन्हें जेल भेजा गया, और कई को प्रताड़ित किया गया। स्थानीय स्तर पर अधिकारियों द्वारा शिक्षकों को उत्पीड़ित करने के कई मामले सामने आए, लेकिन डर के मारे ऐसे शिक्षकों ने चुप्पी साध ली और पढ़ाने का काम जारी रखा।

मेरी कई शिक्षक-मित्रों से बात हुई, जो स्कूल से बाहर अपने घर पर मिले, और वहाँ भी अपनी तकलीफ खुलकर बताने की स्थिति में नहीं थे। उन्हें डर है कि बोलने पर जो नौकरी चल रही है, वह भी चली जाएगी। जो नियमित शिक्षक हैं, उनके अंदर डर उससे भी अधिक है। इस तरह का डर उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान भी देखा गया। यह समय कोविड महामारी का दूसरा दौर था। शिक्षकों को चुनाव ड्यूटी में लगाया गया। प्रशिक्षण से लेकर चुनाव समाप्त होने तक कई शिक्षक बीमार पड़े, और कई की मृत्यु हो गई।

चुनाव ड्यूटी और प्रशिक्षण अलग-अलग दिनों में हुए, और एक बार में यह एक दिन-रात से अधिक के नहीं थे। ऐसे में तकनीकी तौर पर ड्यूटी के दौरान कोविड से मृत्यु की संख्या विवादित हो गई। इस दौरान संक्रमण से शिक्षकों की मृत्यु को लेकर कई खबरें आईं, लेकिन औपचारिक संख्या इतनी कम थी कि उस पर ध्यान नहीं दिया गया। इस घटना का शिक्षकों पर गहरा असर पड़ा।

इन सारी बातों के अतिरिक्त जो निर्णायक बात है, वह शिक्षक भर्ती को लेकर है। जिस तेजी से नियमित शिक्षकों की कमी हो रही है, उतनी तेजी से नए शिक्षकों की भर्ती दूर-दूर तक नहीं दिख रही। शिक्षकों की कमी से स्कूली व्यवस्था तो बर्बाद हो ही रही है, शिक्षक संगठनों की स्थिति भी बदतर हो चली है। शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकार पर मँडरा रहा संकट अब बद से बदतर हो गया है। इसे लेकर न तो विपक्षी दलों की ओर से कोई आंदोलन दिख रहा है। इस संदर्भ में निश्चित ही नागरिक पहल की सख्त जरूरत है। इस बार जब उत्तर प्रदेश में स्कूल बंद करने की खबर सामने आई, तब लोगों ने बोलने की हिम्मत जुटाई है, और विरोध के स्वर तेज हुए हैं।

स्कूलों का बंद होना एक ऐसे देश में, एक ऐसे राज्य में, जहाँ शिक्षा की जरूरत पर हर कोई जोर देता है, सबसे बड़ी खबर है। एक बच्ची अपने घर को गिरा रहे बुलडोजर के नीचे से अपनी किताब बचा रही है। अब यह अभिभावकों और हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वे स्कूलों को बचाएँ। यह सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं हो रहा, पूरे देश में हो रहा है। आज हर नागरिक को स्कूल बचाने के लिए सामने आना होगा।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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