‘पूरी तरह ध्वस्त हो गयी है न्यायपालिका’

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क्या आप मानते हैं कि सरकार न्यायपालिका पर निरंतर हमले कर रही थी, जिसके परिणामस्वरूप न्यायपालिका का आभासी पतन हो गया है? क्या न्यायपालिका पर हमले के परिणामस्वरूप न्यायपालिका लगभग ध्वस्त हो गई है? आप माने या न माने उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण का ऐसा ही मानना है। प्रशांत भूषण आपातकाल की 45 वीं वर्षगांठ पर लाइव लॉ की ओर से आयोजित एक वेबिनार, जिसका विषय “आपातकाल के बिना लोकतंत्र का हनन” था, को सम्बोधित कर रहे थे।

प्रशांत भूषण ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर त्वरित कार्रवाई नहीं की। उच्चतम न्यायालय ने जामिया मिल्लिया के छात्रों की याचिका पर कान तक नहीं दिया। सीलबंद कवर का नया न्यायशास्त्र सामने आया है, जिसने लोया, राफेल जैसे मामलों पर पर्दे डाल दिए। न्यायपालिका की कमजोरी लॉकडाउन के दिनों में और साफ हो गई, जब यह सरकार पर सवाल उठाने में विफल रही। इन सभी मामलों में सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने एक प्वाइंट पर्सन के रूप में काम किया।

प्रशांत भूषण ने कहा कि इन दिनों चुनाव केवल पैसे की ताकत का खेल हो गए हैं। यह चुनावी खर्चों को नियंत्रित करने की चुनाव आयोग की अक्षमता के कारण हुआ है। चुनावी बांड ने यह सुनिश्चित किया है कि चुनावी प्रक्रिया पर क्रोनी कॉरपोरेट्स कब्जा कर लें। चुनावी बांड के लिए अग्रणी संशोधनों को धन विधेयक के संदिग्ध मार्ग से हासिल किया गया है।

उन्होंने कहा कि सीबीआई और एनआईए सीबीआई को एक ‘बंद तोते’ से भी आगे बढ़कर सरकार के ‘शिकारी कुत्ते’ में बदल गई है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को परेशान करने का एक औजार बन गया है। एनआईए ने देश के कुछ बेहतरीन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भीमा कोरेगांव मामले में फंसाया है।

उन्होंने कहा कि 90 फीसद से भी ज्यादा मीडिया सरकारी प्रचार तंत्र  हिस्सा बन गया है, जो सरकार के अनुचित कृत्यों का औचित्य साबित करने की खातिर बेतुके स्तर तक जाने के लिए तैयार हैं। विमुद्रीकरण, लॉकडाउन और चीन की हालिया घटनाओं पर मीडिया की चर्चा इन प्रवृत्तियों के उदाहरण हैं। उन्होंने कहा कि आरटीआई कानून के तहत आरबीआई, कैग, चुनाव आयोग, मुख्य सूचना आयोग जैसी संस्थाएं कमजोर की गई हैं।

प्रशांत भूषण ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता है कि मौजूदा दौर में लोकतंत्र और इसके संस्थान आपातकाल के दौर से बेहतर और मजबूत हैं। उन्होंने कहा कि आपातकाल के बाद पिछले 40 वर्षों में अर्जित की गई उपलब्धियों को संस्थानों और अधिकारों पर हमला कर, विशेषकर बीते 6 सालों में, तेजी से खत्म किया जा रहा है। भूषण ने न्यायपालिका के कामकाज, चुनाव आयोग/ सीबीआई /सीएजी जैसे संस्‍थानों, प्रेस स्वतंत्रता, वैचारिक असंतोष के प्रति सहिष्णुता आदि के समग्र मूल्यांकन के आधार पर बनाया अपना निष्कर्ष दिया। उन्होंने कहा कि आपातकाल ने हमारे लोकतंत्र की भंगुरता को उजागर कर दिया था ।

आपातकाल की 21 महीने की अवधि, जिसे भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय कहा जाता है, राजनैतिक विरोधियों को ‌मीसा के तहत कैद किया गया, आलोचनात्मक विचारों को दबाने के लिए प्रेस सेंसरशिप लागू की गई। उन्होंने कहा तब भय का माहौल था, न्यायपालिका जैसी संस्थाएं भी प्रभावित हुईं थीं।

आपातकाल की गलतियों से सीखते हुए, बाद में हमारे लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए कई सुधार किए गए। संविधान का 44 वां संशोधन मनमाने ढंग से आपातकाल की घोषणा पर लगाम लगाने और नागरिक स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए किया गया था।1990 के दशक ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए (कोलेजियम प्रणाली की शुरुआत के जरिये), न्यायिक हस्तक्षेप देखा और सीबीआई, पुलिस और सीवीसी को स्वायत्तता दी गई। इसके बाद आरटीआई, व्हिसलब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट, लोक पाल अधिनियम आदि को लागू किया गया।

उन्होंने कहा कि इनसे हमारे लोकतंत्र के मजबूत होने की उम्मीद थी। लेकिन ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा कि पिछले छह वर्षों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, असंतोष के अधिकार और नियामक संस्थाओं पर अभूतपूर्व हमला हुआ है। उन्होंने कहा कि सरकार और पुलिस के संरक्षण में भगवा भीड़ लोगों को मार रही है।

उन्होंने कहा कि आज जो लोग सरकार की आलोचना करते हैं, उन पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। जो लोग राजद्रोह के मामलों से बच जाते हैं, उन्हें संगठित सामाजिक ट्रोलों द्वारा परेशान किया जाता है, जो प्रधानमंत्री की नाक के नीचे काम कर रहे हैं, जैसा कि स्वाति चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक आईएमए ट्रोल में लिखा है। सोशल मीडिया ट्रोल्स को मीडिया के एक वर्ग द्वारा बढ़ाया गया है, जो सरकार के लैपडॉग के रूप में कार्य करता है। अल्पसंख्यकों और दलितों को विशेष रूप से निशाना बनाया जाता है। न्यायिक संस्थानों सहित सभी संस्थानों को दोयम दर्जे का बना दिया गया है।

उन्होंने कहा कि दिल्ली दंगों की साजिश के मामलों में दिल्ली पुलिस की जांच में केवल निर्दोष छात्रों और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया, जबकि कपिल मिश्रा जैसे व्यक्तियों को छोड़ दिया गया, जिन्होंने मीडिया के सामने खुलकर हिंसा करने का आह्वान किया था। उन्होंने कहा कि जेएनयू कैंपस में जनवरी 2020 में हुई हिंसा के खिलाफ पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की।

गौरतलब है कि न्यायपालिका संविधान और कानून के शासन की संरक्षक है लेकिन जब न्यायपालिका सरकार के गलत या असंवैधानिक कार्रवाइयों का मूक समर्थन करने लगे तो देश में निरंकुश शासन स्थापित हो जाता है। उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के कथन का सार यही है। आज भी न्यायपालिका यदि संविधान और कानून के शासन के अनुरूप काम करने लगे तो सरकारी मनमानियों पर प्रभावी अंकुश लग जायेगा।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)    

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