किसान आंदोलन में भी पहुंची मलेरकोटला की तहजीब

पंजाब का मालेरकोटला, दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर किसानों के पास आ पहुंचा है। लोग हैरान हो कर उन टोपी वाले युवकों को देख रहे हैं, जिनकी पहचान कपड़ों से कराई जाती रही है। किसान आंदोलन ऐसे भारत की तस्वीर बनता नजर आ रहा है, जिससे वो ताकतें चिढ़ती हैं जो इसके खिलाफ पूरी शिद्दत से सक्रिय रहती हैं। मलेरकोटला के लोगों के बेमिसाल कारनामे मध्यवर्गीय पंजाबियों के ड्राइंगरूम में ताजा चर्चा का विषय हैं। किसान आंदोलन आगे क्या रुख लेगा कोई नहीं जानता। केंद्र सरकार ने किसान नेताओं को 9 दिसंबर को फिर से बातचीत के लिए बुलाया है। किसान आंदोलन से देश भर में जिस तरह का संदेश जा रहा है, वो कोरोना काल में एक चमत्कार से कम नहीं है। पूरा देश किसानों के साथ लामबंद हो गया लगता है। मलेरकोटला से आए लोग इसी लामबंदी का नतीजा हैं।  

5 दिसंबर की रात एक ट्रक दिल्ली में सिंघू बॉर्डर पर आकर रुका। ट्रक अनाज और सब्जियों से भरा हुआ था। एक दूसरे ट्रक में बड़े-बड़े पतीले उतरे, जिनमें खाना बनता है। मुसलमानी टोपी लगाए कुछ युवक और बुजुर्ग आगे बढ़े और उन्होंने पहले पतीले उतारे और फिर अनाज। धीरे-धीरे लोग वहां जुटने लगे। खुद रैली में आए किसानों के लिए वो लोग कौतूहल का सबब बन गए। उन्होंने बताया कि वे लोग मलेरकोटला से आए हैं और अपने किसान भाइयों के लिए यहां पर लंगर शुरू करेंगे।

मुझे फौरन शाहीनबाग याद आ गया, जहां अकेले सिख एडवोकेट डीएस बिंद्रा ने गुरु का लंगर शुरू किया और लंगर के लिए उन्होंने अपना फ्लैट तक बेच दिया। बाद में दिल्ली पुलिस ने उन्हें कथित दंगाई और साजिशकर्ता बताकर उनका नाम भी उस सूची में डाल दिया। मैंने मलेरकोटला से आए युवकों से कहा कि आप लोग तो शाहीनबाग का कर्ज उतारने आ गए। उन्होंने मुझे टोका। उन्होंने कहा कि आप शायद मलेरकोटला का इतिहास नहीं जानते हैं। हमारे अतीत को टटोल कर देखिए तो सही।

सचमुच मलेरकोटला का इतिहास इस मामले में बेमिसाल है। पंजाब का यह इकलौता ऐसा शहर है जो मुस्लिम बहुल है। 2011 की जनगणना के मुताबिक मलेरकोटला शहर की आबादी 1,35,424 है, जिसमें 68.5 फीसदी मुसलमान, 20.71 हिंदू, 9.50 फीसदी सिख और 1.29 फीसदी अन्य की आबादी है। जिन किसानों को आप आज सिंघू बॉर्डर और टीकरी बॉर्डर पर बैठा हुआ पा रहे हैं, उनका आंदोलन तो तीनों कृषि कानूनों के पास होते ही सितंबर में शुरू हो गया था। सितंबर में जब किसान सड़कों पर प्रदर्शन के लिए आने लगे तो मलेरकोटला के मुसलमान एक गुरुद्वारे में अनाज की तीन सौ बोरियां लेकर लंगर चलाने के लिए पहुंच गए थे। उस समय यह खबर मीडिया में चर्चा का विषय बन गई थी, लेकिन मलेरकोटला के मुसलमानों का सिखों से भाईचारा इस किसान आंदोलन के दौरान ही नहीं हुआ है।

यह सिलसिला औरंगजेब के समय से बना हुआ है। औरंगजेब ने गुरु गोबिन्द सिंह को 1705 में सरहिंद में गिरफ्तार कर लिया और उनके साहबजादों को दीवार में चुनवाने का आदेश दिया। उस समय मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान ने औरंगजेब के इस आदेश का विरोध किया था। इससे पहले गुरु गोबिन्द सिंह को नवाब ने अपने महल में छिपाया था। वहां से विदा लेते हुए गुरु गोबिन्द सिंह ने नवाब को अपना अंगरखा भेंट किया जो आज भी वहां मौजूद है। यह वह ऐतिहासिक घटना है जो बिना नमक-मिर्च लगाए हुए मलेरकोटला में पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर होती रहती है। इस कहानी के पुनर्लेखन की हर संघी कोशिश नाकाम हो गई। किसान आंदोलन ने इस कहानी से भी आगे जाकर इस रिश्ते को और मजबूत कर दिया है।

भारत का बंटवारा होकर जब पाकिस्तान बना तो उस समय बड़े पैमाने पर दोनों तरफ कत्ल-ए-आम हुआ। पंजाब के भी दो टुकड़े हुए। सबसे ज्यादा खून दोनों तरफ के पंजाब में बहा, लेकिन उस समय भारतीय पंजाब का मलेरकोटला ही ऐसा इलाका था, जहां किसी भी तरह का खून खराबा नहीं हुआ। उस समय नवाब इफ्तिखार अली खान ने अपने महल का दरवाजा मलेरकोटला के उन सिख परिवारों के लिए खोल दिया था जो वहां शरण लेना चाहते थे।

लखनऊ की तहजीब के किस्से और किंवदंतियां तो आपने बहुत सुनी होंगी, लेकिन मेरे साथ इस शहर का जो अनुभव रहा है, वैसी तहजीब मुझे लखनऊ में नहीं दिखी। पंजाब में अमर उजाला अखबार के लिए काम करने के दौरान मुझे मलेरकोटला जाना पड़ा। मैं पहली बार शहर में पहुंचा था और उसके भूगोल से पूरी तरह नावाकिफ। मेरा रिक्शा किसी मुहल्ले में एक चौराहे पर आकर रुका। वहां खड़े कुछ लोगों से मैं एक पता पूछने लगा तो उन्होंने कहा कि आप शायद इस शहर में नये हैं। थके और परेशान लग रहे हैं। पहले आप हमारे घर चलिए, फिर आपको वहां पहुंचा देंगे। मैंने कहा कि भाई, आप मुझे जानते तक नहीं। मेहरबानी करके मुझे बस वहां पहुंचा दें, लेकिन वहां खड़े लोगों में आपस में बहस होने लगी कि मैं किसके घर की मेहमानवाजी कबूल करूं।

खैर, जिन साहब ने मेरा बैग थामा, मैं उनके साथ हो लिया। तब तक वो नहीं जानते थे कि मैं एक पत्रकार हूं। बहरहाल, वो अपने घर ले गए। वहां पराठे और आमलेट का नाश्ता कराने के बाद लस्सी का बड़ा सा गिलास पेश किया, जिसे आधा पीना भी मेरे लिए मुश्किल लग रहा था। इस आवभगत में तीन घंटे बीत गए। फिर वो साहब मुझे उसे पते पर ले गए, दरअसल, जहां मुझे पहुंचना था। मैंने उनसे पूछा भी कि साहब, मेहमानवाजी का ऐसा तरीका तो हमारे अवध में नहीं मिलता। उनका जवाब था कि अल्लाह ने बहुत दिनों बाद कोई मेहमान भेजा था, हम उसे खाली कैसे जाने देते।

मलेरकोटला की इस तहजीब के दर्शन बीच-बीच में और लोगों की जुबानी और मीडिया के सहारे पहुंचते रहे, लेकिन सितंबर में पंजाब में और अब दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर मलेरकोटला के लंगर ने वही यादें फिर से ताजा कर दी हैं। वहां से आए अरशद नामक युवक ने कहा कि दिल्ली का शाहीनबाग मलेरकोटला से बहुत दूर है। हम भी वहां बैठकर अपने सिख भाइयों के लंगर की कहानी सुनते थे कि कैसे सीए-एनआरसी आंदोलन के दौरान गुरुद्वारों से लंगर धरने पर बैठी हमारी मां-बहनों तक पहुंचाया गया।

बीच में कोरोना की वजह से प्रवासी लोग पंजाब और दिल्ली छोड़कर यूपी और बिहार की तरफ अपने घरों को कूच करने लगे तो गुरुद्वारों ने बिना किसी भेदभाव के इन मजदूरों को शरण दी, खाना खिलाया, पैसे दिए। कश्मीरी छात्र-छात्राओं को जब दिल्ली एनसीआर में मारा-पीटा गया तो इन्हीं गुरुद्वारों ने उनकी मदद की। हम भला अपने सिख भाइयों के इस एहसान का शुक्रिया कैसे अदा करें। किसान भाई अपनी जायज मांगों के लिए दिल्ली आए हैं। हम पंजाब में रहते हैं, हमें मालूम है कि किसान भाई किन हालात से गुजर रहे हैं। हम अब इनके साथ नहीं खड़े होंगे तो कब खड़े होंगे।

किसान आंदोलन में कुछ नया हो और बीजेपी के आईटी सेल को इसका पता नहीं चले, यह नामुमकिन है। मलेरकोटला का लंगर ठीक से शुरू भी नहीं हुआ कि आईटी सेल ने सोशल मीडिया पर मलेरकोटला से आए मुसलमान जत्थे के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया। आईटी सेल के लिए एक ट्वीट के बदले पांच रुपये पाने वाले लोगों की भाषा मैं यहां नहीं लिख सकता हूं। इन लोगों ने सिख गुरुओं की वाणी का हवाला देकर सिखों को ऐसी-ऐसी बातें कहीं, जिनका उल्लेख मैं जरूरी नहीं समझ रहा हूं।

अब जब मैं इस रिपोर्ट को फाइल कर रहा हूं तो आईटी सेल का निंदा अभियान बराबर जारी है। कुछ लोगों ने ऐसे शरारतपूर्ण सवाल किए कि लंगर शाकाहारी है या मांसाहारी है। हलाल मिलेगा या झटका। बीजेपी आईटी सेल सिखों को मुगलों का इतिहास याद दिला रहा है, लेकिन उन्हें जवाब भी बराबर मिल रहा है कि यह 1706 नहीं है, यह 2020 है। हम अपना इतिहास बना रहे हैं और लिख भी रहे हैं।

मलेरकोटला के इस जत्थे के अलावा बड़ी तादाद में अब छात्र संगठनों के लोग भी यहां पहुंचने लगे हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी से आए कुछ छात्रों को मैंने यहां खाना परोसते देखा। सोनीपत से आईं सामाजिक कार्यकर्ता प्रवेश कुमारी ने बताया कि हरियाणा के कई छात्र संगठनों के कार्यकर्ता हमारे साथ यहां जुड़े हुए हैं। उनका कहना है कि जल्द ही हरियाणा से और भी युवा साथी यहां हमसे जुड़ने वाले हैं। सरकार को जल्द ही यह एहसास हो जाएगा कि अब यह सिर्फ किसानों का आंदोलन नहीं है। यह देश को महंगाई और भुखमरी से भी बचाने का आंदोलन है।

(यूसुफ किरमानी वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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