नीतीश कुमार।

नीतीश कुमारः दुर्गति सहने की मजबूरी

एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चर्चा में हैं। यह चर्चा पूर्वोतर के सीमांत अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के सात में से छह विधायकों के भाजपा में शामिल होने से शुरू हुई है और दिल्ली तथा पटना के राजनीतिक गलियारों में गूंज रही है। लोगों को लग रहा है कि भाजपा की मनमानी से आजिज आकर नीतीश कुमार कुछ जवाबी कदम उठा सकते हैं। इस संभावना ने कुछ लोगों के बीच बिहार के सत्ता-समीकरणों में बदलाव की उम्मीदें जगा दी हैं। राज्य के प्रमुख विपक्षी दल, आरजेडी के एक वरिष्ठ नेता उदय नारायण चौधरी ने तो नीतीश को आफर भी दे दिया है कि वह 2024 में विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार बन जाएं और तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ कर दें। वरिष्ठ समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी उनसे एनडीए छोड़ने की अपील पहले ही कर चुके हैं। वैसे, जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह इन आफरों को खारिज कर चुके हैं।

प्रदेश की राजनीति में बदलाव की इस उम्मीद के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि नीतीश लोगों को चौंकाने में माहिर रहे हैं। उनके एनडीए छोड़ने तथा महागठबंधन के साथ 2015 का विधान सभा चुनाव लड़ने तथा फिर महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में वापस होने को उदाहरण के तौर पर पेश किया जाता है। क्या नीतीश अब चौंकाने की स्थिति में हैं? क्या वह एनडीए से नाता तोड़ने लायक राजनीतिक ताकत रखते हैं? सबसे बड़ा सवाल, क्या नीतीश के पास उन समाजवादी मूल्यों की पूंजी बची है जिसके सहारे वह कोई बड़ा कदम उठा सकते हैं और अपना सम्मान बचा सकते हैं?    

इन सारे सवालों के उत्तर मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश के राजनीतिक कैरियर पर नजर डालने तथा बिहार के सामाजिक समीकरणों के विश्लेषण से मिलते हैं। लोग अक्सर भूल जाते हैं कि उनके मुख्यमंत्रित्व के पहले दस सालों में केंद्र का शासन कांग्रेस के हाथ में था और उन्हें अस्थिर करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी से भी उनके रिश्ते अच्छे ही थे। तीसरी शक्ति के गठन की बात होती थी तो लोग नीतीश को आशा भरी नजरों से देखते थे। यही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर जेडीयू के पास शरद यादव जैसे नेता थे जो पार्टी को एक बेहतर छवि प्रदान करते थे। विपक्ष से सत्ता पक्ष में जाने के लिए बेचैन भाजपा उन्हें एक गैर-सांप्रदायिक तथा सामाजिक न्याय वाले नेता की छवि बनाए रखने देना चाहती थी। यह उसे अलग-अलग विचारधाराओं को साथ लेकर चलने वाली पार्टी होने का दावा करने का मौका देता था। उन दिनों अपने दम पर सत्ता पाने का उसे जरा भी भरोसा नहीं था और बेहतर गठबंधन चलाने वाली पार्टी की छवि ही उसे सत्ता तक पहुंचा सकती थी।  

अनुकूल राजनीतिक परिस्थितियों ने एनडीए में रहने के बाद भी राम जन्मभूमि, तीन तलाक और धारा 370 जैसे मुद्दों पर अलग नीति रखने की ताकत जेडीयू को दी। बिहार भाजपा की कमान भी सुशील कुमार मोदी के हाथ में थी जो खुद एक उदार छवि रखते हैं। लेकिन आज भाजपा एक ऐसी पार्टी है जिसे लगता है कि उसे किसी दूसरी पार्टी या व्यक्ति की जरूरत नहीं है। उसकी उम्मीद के विपरीत उसके सामने एक बिखरा तथा कमजोर विपक्ष और अपने इतिहास में सबसे दुबली बन गई कांग्रेस है। भाजपा में लंबे समय तक सामूहिक नेतृत्व रहा। लेकिन अब इसकी जगह एक व्यक्ति के नेतृत्व ने ले ली है। इसके पीछे देश के सारे उद्योगपति एकजुट हैं। सारी सरकारी संस्थाएं पार्टी की शाखा में तब्दील हो चुकी हैं। मीडिया घराने उसके कब्जे में हैं। प्रधानमंत्री फैसला लेने में कैबिनेट और संसद को शामिल नहीं करते हैं। उन्होंने कभी भी कोई प्रेस कांफ्रेस नहीं किया है।

गुजरात के दंगों में अपनी भूमिका के लिए विवाद में रहे तथा कट्टरपंथी छवि वाले इस व्यक्ति के विरोध में नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया था। नीतीश कुमार की यहां तक कि राजनीति में तमाम अवसरवादिता के बावजूद एक तार्किकता दिखाई देती है। यह राजनीति प्रगतिशील नहीं थी, लेकिन प्रगतिशील होने का नाटक कर सकती थी। इसी राजनीति के जरिए उन्होंने बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधारी, अति-पिछड़ों तथा पिछ़ड़े मुसलमानों को राजनीतिक भगीदारी दिलाने की कोशिश की और स्थानीय निकायों में महिलाओं को बेहतर प्रतिनिधित्व दिया। लेकिन इसमें आर्थिक भागीदारी के लिए कोई जगह नहीं थी। विश्व बैंक के कर्ज से चल रही सड़क बनाने की योजना को उन्होंने असली विकास बता दिया जो वास्तव में बिहार में लूट का वह तंत्र बनाता है जिसे ठेकेदार, नौकरशाही तथा राजनेता मिल कर चलाते हैं। आधुनिक तकनीकों पर आधारित इस निर्माण में ज्यादा रोजगार भी नहीं है। यही वजह है कि बिहार से पलायन करने वालों की संख्या बढ़ती ही गई। पैसा नहीं लगाने के कारण राज्य में स्वास्थ्य और शिक्षा का ढांचा बिगड़ता ही गया। कामचलाऊ सड़कों और सहने लायक कानून व्यवस्था दिखा कर नीतीश कुमार ने अपने लिए सुशासन बाबू जैसी उपाधि अर्जित कर ली। गरीब और हताश प्रदेश ने इसे स्वीकार भी कर लिया क्योंकि उनकी उममीदें बहुत छोटी थीं।  

नीतीश औऱ अमित शाह।

लेकिन इसी गैर-सांप्रदायिक तथा सामाजिक न्याय के नजदीक दिखने वाली राजनीति की वजह से नीतीश कुमार के लिए आरजेडी तथा कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल हो जाना आसान हो पाया। उन्हें महागठबंधन ने सहजता से स्वीकार कर लिया क्योंकि अपने को समाजवादी बताने के लिए उनके पास थोड़ी पूंजी जरूर थी। लेकिन एनडीए में वापस आकर उन्होंने इस पूंजी को सदा के लिए गंवा दिया है। मोदी-शाह की भाजपा के साथ उन्होंने एक निस्तेज राजनेता की भूमिका ही निभाई है। उन्होंने धारा 370, तीन तलाक तथा नागरिकता संशोधन कानूनों को स्वीकार किया तथा यह साफ दिखा दिया कि किसी मुद्दे पर भाजपा के विरोध में आवाज उठाने की ताकत उनमें नहीं बची है। उन्होंने तीन कृषि कानूनों का समर्थन किया जो समाजवादी होने का दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए संभव नहीं था। यहां तक कि पार्टी के महासचिव केसी त्यागी ने भी इन कानूनों के बारे में शंकाएं प्रकट की थी।

धर्म निरपेक्षता और प्रगतिशीलता से काफी दूर जाकर खड़े हो गए नीतीश कुमार की प्रगतिशील राजनीति में घर-वापसी का कोई वैचारिक आधार नहीं बचा है। इसके बाद राजनीतिक तथा सामाजिक समीकरणों का सवाल आता है। वह भी उनकी वापसी में बाधक ही है। अपनी जाति के अलावा उन्होंने अगड़ी जातियों, अति-पिछड़ों तथा महादलितों का जो समीकरण बनाया है, उसमें भी भाजपा ने सेंध लगा दी है। सच्चाई तो यही है कि अगड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा अब प्रदेश को सीधे भाजपा के शासन में देखना चाहता है। अपने ही बनाए सामाजिक समीकरण को थामने का कोई कार्यक्रम उनके पास नहीं बचा है। ऐसा कोई कार्यक्रम वह चुनाव के मौके पर नहीं दे पाए तो अब क्या दे पाएंगे? चुनाव में भी वह लालू के जंगल राज के वापस आने का खतरा बता कर वोट माग रहे थे, भविष्य के लिए किसी आकर्षक कार्यक्रम के आधार पर नहीं। ऐसे स्वप्नशून्य हो गए राजनेता से किसी गतिशील राजनीतिक कदम की उम्मीद करना कितना सही है?

आरसीपी सिन्हा को अध्यक्ष बना कर उन्होंने खुद को एक असुरक्षित नेता ही साबित किया है। सिन्हा भाजपा के करीब हैं और बिना जनाधार वाले नेता हैं। नीतीश के करीबी हैं और उनकी जाति के हैं। उन्हें यह पद देकर मुख्यमंत्री ने यही संदेश दिया है कि वह भाजपा के साथ नरमी वाला संवाद चाहते हैं। यह विद्रोह नहीं, भाजपा को साधने की रणनीति है। शायद वह आरसीपी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जाने से रोकना भी चाहते हैं जिसकी उम्मीद वह लंबे समय से लगाए बैठे हैं।  
लेकिन क्या भाजपा उन्हें बच कर चलने देगी? इसके आसार तो नहीं लगते। मोदी-शाह पूरे देश को नियंत्रण में लेना चाहते हैं। उन्होंने कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश तक जिस तरह सरकारें बनाई हैं, उससे तो नहीं लगता कि वे बिहार में नीतीश को ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहने देंगे। वाम पार्टियों के साथ वाले महाठबंधन का ताकतवर होकर उभरना भाजपा को स्वीकार नहीं है। वह सत्ता अपने हाथ में लेकर इस ताकत को कुचलना चाहेगी।

सत्ता हाथ में लेने की भाजपा की कोशिश के खिलाफ नीतीश बाहर आएंगे, यह लोगों को तार्किक लगता है। लेकिन अभी इस प्रतिकार के पूरे लक्षण सामने नहीं आए हैं। लव-जिहाद के विरोध में केसी त्यागी का बयान निश्चित तौर पर एक बड़ा कदम है। लेकिन एक कदम भर से कोई विद्रोह नहीं जन्म लेता है। त्यागी ने डॉ. लोहिया की उक्ति भी दोहराई है। भाजपा के साथ लंबे समय से राजनीति कर रहे त्यागी ऐसा समाजवादी तड़का लगाते रहते हैं। उसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है। मोदी-शाह नीतीश की आगे भी दुर्गति करेंगे। वह सत्ता के प्रति अनासक्त होने का दावा भले ही करें, उनके पहले बिहार के किसी भी मुख्यमंत्री ने उनकी तरह समझौते नहीं किए हैं। कम से कम लालू प्रसाद यादव ने तो नहीं ही। अचरज तो तब होगा जब नीतीश कुमार पद की लालसा छोड़ कर सांप्रदायिक भाजपा से प्रदेश को मुक्त करने के अभियान में शामिल होंगे और संघ-मुक्त भारत के अपने नारे को लागू करेंगे।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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