भाई अगर भाईचारा तोड़कर ये हिन्दू-मुसलमान करना है तो मैं अपने घर बैठ जाता हूँ

लेख- मनदीप पुनिया

मेरे गांव के बुजुर्ग पिछले कई दिनों से मुझसे पूछते, “रै पत्रकार, चौधरी साहब हो गए ठीक” हर बार मेरा नपातुला जवाब कि उनकी हालत सुधर रही है। आज सुबह जब दोबारा उनका हालचाल पूछा गया तो मैं सन्न बैठा रहा। एक बुजुर्ग किसान ने धीमी आवाज़ में कहा, “दिक्खे जा लिया चौधरी” 

आज सुबह राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष, पूर्व केंद्रीय मंत्री और किसान नेता चौधरी अजित सिंह ने कोरोना संक्रमण के कारण अपनी आंखें मूंद ली। वह 20 अप्रैल को संक्रमित हुए थे और लगातार बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण कई दिनों से आईसीयू में दाखिल थे। फेफड़ों में इंफेक्शन के कारण दो दिन पहले डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया था।

साल 2019, अप्रैल महीने की एक शाम यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के रमाला गांव की बात है। गांव में आयोजित एक चुनावी सभा में ट्रॉलियों को जोड़कर बनाए गए मंच पर जिस चुस्ती से अजित सिंह चढ़े थे, उस समय लगा नहीं कि वह 80 के पार हो गए हैं। उस दिन उन्होंने बड़ी गंभीरता से स्टेज से कहा, “भाई अगर भाईचारा तोड़कर ये हिन्दू-मुसलमान करना है तो मैं अपने घर बैठ जाता हूँ।”

अल्पसंख्यक, किसान और दलितों के सवाल पर अपनी राय रखने के बाद उन्होंने बड़ी गंभीरता से भाईचारा बनाए रखने की कसम दिलवाई और बाद में मोदी पर चार-पांच चुटकुले सुनाकर गंभीर माहौल को थोड़ा हल्का किया। अपनी ढलती उम्र के बावजूद वह गांव-गांव घूमते और अपने राजनीतिक साथियों के बीच रहते।

संसदीय राजनीति के इतर किसान आंदोलनों की रीढ़ के रूप में उनकी अपनी एक पहचान थी। बेशक वह एक बार राज्यसभा, 7 बार लोकसभा सांसद और 4 बार केंद्रीय मंत्री रहे हों। लेकिन किसानों में उनकी यादगारी के अलग किस्से हैं। किसानों की ताजा यादगारी 28 जनवरी की रात को उनकी सक्रियता की है। जब गाज़ीपुर बॉर्डर आए किसान आंदोलन को उठवाने के लिए पुलिस और सुरक्षा बल पहुंच गए थे। उस रात राजनाथ सिंह समेत वह कई बड़े नेताओं को फ़ोन कर किसानों की पैरवी करते रहे और सुबह की पहली पोह फटने से पहले ही किसानों के बीच पहुंच गए थे। 

जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश से गुजरते हैं तो खेतों में पसरी गन्ने की हरियाली और कदम-कदम पर चीनी मिलें अजीत सिंह की ही देन है। जब वह केंद्रीय मंत्री थे तो उन्होंने चीनी मिलों की स्थापना से संबंधित मानकों में बदलाव कर इस गन्ना बेल्ट में खूब नई चीनी मिलें स्थापित करवाईं। उनके इस कदम से पश्चिमी यूपी के देहात को आर्थिक तंगहाली से छुटकारा मिला और किसानों की ठोस आय का रास्ता तैयार हुआ। अभी पिछले कुछ सालों से लगातार चीनी मिलों में गन्ने की पैमेंट देरी से होना एक बड़ा सवाल है और इन सवाल को वह अपने आखरी दिनों में मजबूती से उठाते रहे। 

उनके पिछले दो लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव उनकी चुनावी राजनीति के “सबसे खराब दिनों” में गिने जाएंगे। लेकिन चुनावी राजनीति से इतर राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों को बचाने के लिए लगातार जारी उनके संघर्षों के कारण “सबसे अच्छे” दिनों में भी गिने जाएंगे। बीमार होने से पहले वह भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति का जवाब देने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाईचारा सभाएं आयोजित करना चाह रहे थे। 

साल 2013 में हुए मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद वह अपनी सभाओं में हिन्दू और मुसलमानों को गले मिलने के लिए कहते। वह कहते कि भाजपा ने प्रोपेगेंडा कर एक साथ धड़कने वाले दिलों को दूर किया है। इसलिए गले लग ये दोनों दिल मिलाने जरूरी हैं ताकि फिर दोबारा एक साथ धड़क सकें। 

हालांकि उनके बारे में अक्सर सोशल मीडिया पर सत्ताधारी दल का आईटी सेल उन्हें “अनपढ़ किसान” लिखता था, लेकिन उन्होंने आईआईटी खड़गपुर से कंप्यूटर साइंस में बीटेक और अमेरिका के इलिनॉय इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से एमएस की पढ़ाई की थी। राजनीति में आने से पहले अमेरिका में नौकरी भी की। लेकिन 80 के दशक में वह वापस भारत आए और तब से भारतीय चुनावी राजनीति में सक्रिय भूमिका में रहे। 

आज उनके निधन से देश की किसान राजनीति को एक बड़ा झटका लगा है। किसानों के सर से उनके बुजुर्ग का साया उठ गया है। इस भीषण महामारी में उनके परिवार ने चाहने वालों को घर पर ही रहकर उन्हें श्रद्धाजंलि देने की अपील की है। निश्चित ही ग्रामीण भारत को उनके मुस्कुराते चेहरे की कमी खलती रहेगी।

(मनदीप पुनिया स्वत्रंत पत्रकार है और अभी दिल्ली में रहते हैं)

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