मेरे शिक्षक, मेरे साथी। अलविदा!

कोई 1994-95 के दरम्यां की बात है। महीना याद नहीं, सत्र भी लेट चल रहा था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एम. ए. प्रथम वर्ष (आधुनिक इतिहास) के सत्र की पहली कक्षा थी। हमारा एक प्रश्नपत्र भारतीय संस्कृति से संबंधित था। इस कक्षा के हमारे शिक्षक प्रो. लाल बहादुर वर्मा थे। उनकी यह क्लास विभाग के सबसे बड़े क्लास रूम में होती थी। वर्मा सर की वह पहली क्लास आज मुझे बेसाख्ता याद आ रही है, जब यूरोप के इतिहास का बड़ा इतिहासकार हमसे भारतीय संस्कृति के बारे में बात करने वाला था। वर्मा सर क्लास में आए और हम सभी (करीब 35 छात्र) ने उनका अभिवादन किया। करीब-करीब वही लिखने की कोशिश है, जो सर ने उस दिन हमसे कहा। ‘नमस्कार दोस्तों, मैं लाल बहादुर वर्मा, आप सबसे कुछ सीखने आया हूं। इसलिए आप मुझे सर मत बुलाइएगा। आप मुझे लाल बहादुर या आपसे बड़ा हूं, तो लाल बहादुर जी कह सकते हैं।

अब यह मेरे और आपके दरम्यां, जो बड़ी सी मेज है, वह हमें इस सीखने-सिखाने के काम में बाधा बनेगी। हमारी दोस्ती में रुकावट बनेगी। इसलिए मैं, सबसे पहले इस मेज के इस ओर से आपकी ओर आ जाता हूं। हां, अब हमारे बीच अब और कोई व्यवस्था नहीं है। हम इतिहास पढ़ेंगे, उसे जानेंगे और सीखेंगे। हमारा प्रश्नपत्र भारत की संस्कृति से संबंधित है। हमारी पढ़ाई भारत, संस्कृति और दुनिया के लोगों को जानने तक जानी चाहिए। मसलन, यह डस्टर आप देख रहे हैं (मेज पर पड़े लकड़ी के डस्टर को उठाते हुए) इससे कभी आपने बात की है। कभी इसका हाल चाल पूछा है आपने। यह आपकी पूरी सभ्यता की बेशकीमती निशानी है। इस अकेले डस्टर से अगर आप बात करना सीख जाते हैं, तो फिर आपको मेरी कोई जरूरत नहीं।’… 

दरअसल, हम पहली बार उस परंपरा से दो-चार हो रहे थे, जहां शिक्षक, शिक्षक कम बंधु ज्यादा था। उस एक डस्टर के सहारे उस 50 मिनट की क्लास में वर्मा सर ने मनुष्य की विकास श्रृंखला में प्रकृति, ज्यामितीय, गणित, डिजायन, विज्ञान, दर्शन, धर्म आदि-आदि से होते हुए इतिहास बोध के विकास तक का पाठ पढ़ा दिया। हम सभी छात्र इतिहास की अनंत यात्रा के पहली बार गंभीर साक्षी बने। वास्तव में मेरी इतिहास दृष्टि की नींव मेरे छात्र संगठन ‘आइसा’ ने रखी और उसको विकसित करने में वर्मा सर की बड़ी भूमिका रही। क्लास के बाद की बहसें, जो कई बार विभाग में, तो कई बार उनके घर पर मुझे हमेशा इतिहास को विषय नहीं, दृष्टि बोध के रूप में स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती रहीं। सच तो यह है कि मैं हर साल अपनी पहली क्लास में वर्मा सर की इस पहली क्लास की नकल करता हूं और बच्चों को हर बार लाजवाब कर देता हूं।

ऐसी कई यादें हैं सर के साथ, जो मुझे कभी नहीं भूलतीं।

शायद 1994 का ही साल था। आइसा में रहते हुए संगठन द्वारा तय की गईं, मेरी जिम्मेदारियों में से एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी विश्वविद्यालय के करीब 50 अध्यापकों तक राजनीतिक पत्रिका लिबरेशन और सांस्कृतिक पत्रिका समकालीन जनमत को बांटने की थी। साथ ही, मैं ही संगठन के कार्यक्रमों के लिए शिक्षकों से आर्थिक सहयोग लेने के लिए जिम्मेदार था। यह काम मुझे इसलिए भी पसंद था कि इसी बहाने में मुझे विश्वविद्यालय के प्रगतिशील शिक्षकों से मिलने-जुलने का मौका मिल जाता था। जनमत यह मौका मुझे हर हफ्ते देती थी, क्योंकि तब वह साप्ताहिक पत्रिका हुआ करती थी। वर्मा सर के यहां भी इन पत्रिकाओं को देने का, खासकर जनमत को देने की जिम्मेदारी मेरी होती थी।इसके चलते संगठन में भी मेरा थोड़ा–बहुत सम्मान था। क्योंकि संगठन के अन्य साथियों को राजनीतिक या सांस्कृतिक कार्यों से फुर्सत ही नहीं मिलती थी। मैं जानबूझकर वर्मा सर को समकालीन जनमत विभाग में देने की अपेक्षा घर पर जाकर देना पसंद करता था।इससे मुझे उनसे बात करने का थोड़ा वक्त मिल जाता था। हालांकि यहां यह भी कह देना बेहतर होगा कि जनमत उन्हें किसी और से भी मिल जाती थी, लेकिन उन्होंने मुझसे लेने में कभी मना नहीं किया और ना ही इसकी खबर लगने देते थे। 

ऐसा ही एक वाकया याद आता है, जब मेरे संगठन आइसा ने बाबरी विध्वंस के खिलाफ और हिंदू-मुस्लिम एकता की साझी विरासत के तहत, शोषण का प्रतीक ब्रिटिश औपनिवेशिक इमारतों में से एक लखनऊ रेजिडेंसी को तोड़ने का आह्वान किया। इस सिलसिले में मैं वर्मा सर से मिलने गया। उन्हें संगठन के कार्यक्रम के बारे में बताया। संगठन के इस निर्णय को लेकर वह बेहद नाराज हुए। यहां तक कि उन्होंने इस कार्यक्रम की तैयारी के लिए पहली बार मुझे किसी तरह का आर्थिक सहयोग देने से भी इनकार कर दिया। वह हमारे कार्यक्रमों को यथासंभव सहयोग किया करते थे। यही नहीं, उस समय वहीं बैठे डॉ. ललित जोशी (अब प्रोफेसर) सर भी नाराज हुए। वह पहली बार था, जब मेरे विभाग से मेरे संगठन के कार्यक्रम के लिए कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिला। प्रो. विनय चंद्र पांडेय, प्रो. रंजना कक्कड़, प्रो. हेरंब चतुर्वेदी, अर्थशास्त्र विभाग के प्रो. प्रशांत कुमार, प्रो. लोहकर, प्रो. रवि श्रीवास्तव और अंग्रेजी विभाग के मानस मुकुल दास तथा सचिन तिवारी जैसे वरिष्ठ शिक्षकों ने भी मना कर दिया। 

मुझे लगता है यह इतिहास दृष्टि का सवाल था। वर्मा सर ने इस पर विस्तार से समझाने की कोशिश भी की। उन्होंने इस बात की पुरजोर वकालत की कि प्रगतिशील ताकतों को उन्हीं प्रतीकों के विध्वंस की वकालत नहीं करनी चाहिए, जो कठमुल्ला ताकतें कर रही हैं या करना चाहती हैं। वह इससे आगे की बहस के तलबगार थे। उनका जोर था कि यही प्रतिगामी ताकतों का एजेंडा है और इससे वह हमें इतनी हदों तक ही सीमित रखना चाहते हैं। उनका कहना था कि फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस करने वालों और रेजिडेंसी विध्वंस करने वालों में अंतर ही क्या रह जाएगा? वह मेरे किसी भी तर्क से सहमत नहीं थे, जो उस वक्त हमारे संगठन ने हमें सिखा-पढ़ाकर भेजा था। वैसे भी मेरे लिए उनसे, उस समय और अपनी विचार अपरिपक्वता के साथ बहस करना मुमकिन भी नहीं था। इसलिए उनकी हां में हां मिला पाने के अलावा और कुछ नहीं कर सका। मुझे याद आता है कि संगठन के स्तर पर भी हम सभी की पुरजोर कोशिशों के बावजूद यह कार्यक्रम ज्यादा सफल नहीं हो सका। शायद इसे लेकर हम अपने अंदर के सवालों को भी हल नहीं कर सके थे। लेकिन यह वर्मा सर का वह कमिटमेंट था, जो उनके अपने वैचारिक दायरे के बाहर के लोगों को भी, किसी भी स्थिति में गलत होने से रोकने की पुरजोर कोशिश करने के लिए प्रेरित करता था।  

1998 में इलाहाबाद छूटा, तो वर्मा सर से मुलाकातों का सिलसिला भी छूट गया। हालांकि यदा-कदा जब वह दिल्ली आते और मुझे खबर होती, तो मिलने की कोशिश हो ही जाती। कितनी ही यादें हैं, वर्मा सर के साथ। सब साझा करना मुश्किल है, बस उनके साथ जीना चाहता हूं। हालांकि, मैं चाहकर भी उन्हें ‘लालबहादुर जी’ कभी कह नहीं सका। वर्मा सर ही कहा। फिर उन्होंने भी इस पर कभी कुछ नहीं कहा। कुछ नहीं कहा। अलविदा सर। अलविदा साथी।

(अखिलेश कुमार पत्रकारिता के लंबे सफर के बाद इस समय दिल्ली में अध्यापन का काम कर रहे हैं।)  

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