गलत मंशा से प्रेरित है बीजेपी सरकारों का समान नागरिक संहिता कानून: आइपीएफ

नई दिल्ली। भाजपा की चार राज्य सरकारों ने समान नागरिक संहिता को लागू करने का फैसला किया है। उसमें हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश आते हैं। हालांकि आदिवासी इलाके में विषय की जटिलता को देखते हुए भाजपा ने असम में इसे लागू करने का फैसला नहीं लिया है। समान नागरिक संहिता पर लोगों और दलों के अलग- अलग विचार हैं। इसी मुद्दे पर कल आइपीएफ की राष्ट्रीय फ्रंट कमेटी की बैठक में विचार किया गया। 

बैठक में यह नोट किया गया कि फिलहाल भारतीय जनता पार्टी समाज में समता कायम हो और महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिले इस नजरिए से समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात नहीं कर रही है। उसका उद्देश्य समाज के सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करना है और जीवंत महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान हटाने एवं अपनी सरकार की नाकामियों को छिपाने के लिये इस सवाल को उठा रही है।

आइपीएफ का कहना है कि इस मुद्दे पर अगर वह गंभीर होती तो इस पर  कम से कम केंद्र सरकार, लॉ कमीशन द्वारा इस पर एक लिखित दस्तावेज ले आती और समान नागरिक संहिता का एक पूरा प्रारूप जनता के सामने रखती। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जब डाक्टर अंबेडकर ने पंडित नेहरू सरकार में हिंदू कोड बिल पास कराने की कोशिश की थी तो उसका सर्वाधिक विरोध इन्हीं कट्टरपन्थी ताकतों ने किया था और विरोध में डाक्टर अंबेडकर को नेहरू सरकार से इस्तीफा देना पड़ा था।

बहरहाल संविधान सभा में लंबी बातचीत के बाद भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व के 44 वें अनुच्छेद के रूप में इसे स्वीकार किया गया और कहा गया कि राज्य समान नागरिक संहिता को लागू करने का प्रयास करेगा। समान नागरिक संहिता का मूल उददेश्य नागरिकों को कानून के समक्ष बराबरी का अधिकार देना है और महिलाओं के साथ विवाह, संपत्ति में उत्तराधिकार, तलाक, गोद लेने और गुजारा भत्ता जैसे मुद्दों पर जो पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर्सनल लॉ में होता है उसे दूर करने का है।

संविधान की मंशा है कि सभी नागरिकों के समानता के अधिकार की गारंटी हो, इन अर्थों में इसे जरूर स्वीकार करना चाहिए। लेकिन यह जरूर नोट किया जाना चाहिए कि महज कानून बना देने से समानता के अधिकार की गारंटी नहीं हो जाती है। समाज को इसके लिए अंदर से तैयार होना होगा और सभी समुदायों की चेतना को आगे बढ़ाने और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में खड़े होने के लिए तैयार करना होगा। यह भी सोचना गलत होगा कि सभी सामाजिक बुराईयों का जवाब समान नागरिक संहिता है। मुख्य प्रश्न समाज और राज्य की लोकतांत्रिक चेतना को बढ़ाने का है।

गोवा में 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध से समान नागरिक संहिता लागू है फिर भी वहां हिंदुओं को पहली पत्नी से संतान न होने की स्थिति में दूसरी शादी की इजाजत है। अभी पर्सनल लॉज का कोडिफिकेशन किया जाये और संविधान सम्मत सुधार किए जाए जिससे महिलाओं के साथ भेदभाव न हो। हिंदू पर्सनल लॉ में जो विभिन्न विषयों पर कोडिफिकेशन हुआ है उसमें भी उत्तराधिकार अधिनियम 2005 के बावजूद उत्तर प्रदेश में हिंदू लड़कियों को शादी के बाद अपनी पैतृक कृषि जमीन में हिस्से का अधिकार नहीं है। इस विसंगति को भी दूर करना होगा। आदिवासी अभी भी अपने रीतिरिवाजों और परंपराओं के आधार पर उत्तराधिकार के नियमों का पालन करते हैं।

फ्रंट का कहना है कि मिलाजुलाकर कहा जाये तो महिलाओं के बराबरी के अधिकार की गारंटी और भेदभाव मिटाने के लिए भारत की विविधता, रीतिरिवाज और भिन्न-भिन्न परंपराओं को देखते हुए ऐसे कानून बनाने होंगे जिनमें महिलाओं के बराबरी के अधिकार की गारंटी हो और लोगों के धार्मिक विश्वास और परंपरा के क्षेत्र में राज्य का अनाधिकृत दखल न हो। लिहाजा संविधान के नैतिक, सामाजिक, धार्मिक मूल्यों के आधार पर समाज के पुनर्गठन की जरूरत है।

(प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित।)

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