IIT में जातिगत भेदभाव: मेरिट ही वह आइडिया है, जो भेदभाव का लाइसेंस देता है

विज्ञान की तरह भेदभाव के तार स्थापित करना चुनौती भरा काम है। हालांकि  इसे साबित करने के ठोस सबूतों की गैरमौजूदगी में इसके अस्तित्व पर भी सवाल नहीं उठाया जा सकता। जब हम किसी वर्ग की संस्थागत उपेक्षा के सवालों से दो चार हो रहे होते हैं तो ऐसे में हमारी सहानुभूति सबसे ज्यादा पीड़ित शख्स के साथ होती है और ये ठीक भी है। 

हालांकि ऐसा करते हुए हमें भेदभाव के सभी रूपों को देखना चाहिए, समग्रता में ना कि हल्के और सरसरी तौर पर। ऐसा करते हुए हमें ‘बैंड एड’ सहानुभूति के बजाय आवाज़ उठाने की राजनीति के साथ संवाद करना चाहिए। क्योंकि भेदभाव कोई ठोस तरीके से दिख रहा मेलो ड्रामा से भरपूर कोई ऐसा इवेंट नहीं है जहां किसी को गालियां दी जा रही हैं।

बल्कि ये रोज़ाना होने वाली ऐसी प्रक्रिया है जो परतों में होती है। जो एक ऐसा माहौल बना देती है, जिसमें ‘हम’ और ‘वो’ क्रिएट होते हैं। ये बहुत छोटी-छोटी और सूक्ष्म चीज़ों में दिखाई देता है। जैसे किसी मुस्कान में, हाथ मिलाने के किसी अंदाज़ में, किसी इशारे में या कभी-कभी सिर्फ खामोशी में ही ।

IITs में भेदभाव को लेकर बहस मेरिट को केंद्र में बनाए बगैर नहीं हो सकती । दरअसल मेरिट का यही आइडिया है, जो भेदभाव का लाइसेंस देता है।माइकल सैंडेल (पॉलिटिकल फिलॉस्फर) ने अपनी किताब में ” The Tyranny of Merit”  मेरिट के बतौर एक सोशल आइडिया की आलोचना करते हुए बताया है कि किस तरह ये इलीट में अहंकार और अपमान की राजनीति को जन्म देता है।

हालांकि इसका ये मतलब नहीं है कि IIT कैंपस में ‘नीची जाति’ से जुड़ा हर छात्र पीड़ित है और हर फॉरवर्ड छात्र पीड़क। लेकिन ये भी सच है कि कुछ अपर कास्ट छात्र जानबूझकर या बिना जाने मेरिट से जन्मे भेदभाव को  ‘साख के पक्षपात’ से जोड़ लेते हैं। ये तब होता है जब इलीट छात्र दूसरे छात्रों को नीची निगाह से देखते हैं। ये वो छात्र हैं  जिन्हें सिस्टम और समाज रिवॉर्ड प्वाइंट्स नहीं थमाता। ऐसे में कई तरह की श्रेणियों की असमानता और भेदभाव वाला जजमेंट मेरिट के जरिए तैरने लग जाता है।

कैंपस में क्या होता है ?

जैसे ही आप IIT कैंपस में घुसते हैं, आप एक अच्छी तरह से बनाई गई वरिष्ठता क्रम में दाखिल होते हैं। सबसे पहला लेवल एक वरियता क्रम से जुड़ी श्रेणी का है। इस श्रेणी का आधार ये है कि आप एक ग्रेजुएट हैं या अंडर ग्रेजुएट छात्र। अगर आप अंडर ग्रेजुएट हैं तो आप की क्षमता को आपके रैंक के  हिसाब से लोग अपने ज़ेहन में अंकित कर लेते हैं।

जिस तरह से आपने एंट्रेंस एक्ज़ाम में रैंक हासिल किया है, उससे बहुत कुछ तय होता है। आपके  जन्म की आकस्मिकता की ही तरह आपकी रैंक और पढ़ाई की शाखा एक अचानक हुई दुर्घटना की तरह सामने आती है। यही मेरिट नाम के ‘फैंटम’ को पहचानने का जरिया बन जाती है। और ऐसे में अब दूसरों को बारे में राय बनाने से लेकर इस मामले में तटस्थ होने की आपकी क्षमता की सीमाएं धुंधली हो जाती हैं ।

पढ़ाई की शाखा की दुर्घटना एक दिगभ्रमितता पैदा करती हैं। लेकिन इस तरह की दिग्भ्रमितता अलग-अलग छात्रों पर अलग-अलग असर दिखाता है। मोटे तौर पर  ये ऊंची जातियों से जुड़े कई छात्रों को दूसरे पहलुओं को खंगालने का अवसर देती है। जो कि उनकी पढ़ाई में खराब परफॉर्मेंस को जस्टिफाई करने के जरिए की तरह देखा जाता है। ये छात्र अपने हालातों को लेकर हमेशा एक आश्वस्त विश्वास से घिरे रहते हैं, जैसे उन्हें विश्वास होता है कि वे मुश्किल हालातों से निकल सकते हैं। 

फैमिली कनेक्शन, कल्चरल कैपिटल और सफल लोगों के साथ सोशल नेटवर्क की अपने माहौल की वजह से उन्हें इस तरह का विश्वास रहता है। यही विश्वास है जो उन्हें पढ़ाई के दौरान ज्यादा रिस्क लेने के लिए मानसिक रूप से तैयार करता है ।

हालांकि औसत रूप से जो बच्चे आरक्षण के चलते यहां तक पहुंचे हैं वो अपनी पढ़ाई की ब्रांच को लेकर कई बार फंसा महसूस करते हैं। इसके अलावा वो जानते हैं कि उनके पास  इतने रिस्क लेने या दूसरे रास्ते तलाश करने के वो रास्ते नहीं होते जो ऊंची जातियों के छात्रों के पास होते हैं।

उनके पास ना तो इस तरह के कनेक्शन हैं ना ही सामाजिक या सांस्कृतिक स्तर पर वो रिवॉर्ड सुविधा है जो ऊंची जातियों के छात्रों के पास होता है। बुरे अकादमिक परफॉर्मेंस और बदनामी का डर उनकी उलझनों को और बढ़ाता ही है। तय है कि रिस्क लेने की चाह भी कहीं ना कहीं दूसरों की रैंक और जाति से ही जुड़ी है। यौवन का मस्तमौलापन हर किसी के हिस्से में नहीं आता। बहुत सारे ऐसे पहलू हैं जो हमें और हमारे जीवन को गढ़ते हैं। 

मेरिट के साथ-साथ सोशल नेटवर्क, मेहनत, मुश्किलें  और पूर्वाग्रह ये सब साथ में काम करते हैं। ये महसूस होता कि हमेशा से ये मैदान सबके लिए एक जैसा समतल नहीं है ।

इसे ऐसे देखिए जैसे कि अगर ये एक 100 मीटर रेस है तो हम लोग एक पहाड़ के नीचे की ओर दौड़ रहे थे  यानि आसान दौड़ लगा रहे थे जबकि ऐतिहासिक रूप से पिछड़ी पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र खड़ी चढ़ाई चढ़ रहे थे। ज्यादातर मामलों में जहां कुछ लोग सिर्फ 50 मीटर नीचे की आसान  दौड़ लगा रहे थे तो कुछ लोगों को इसी रेस को पूरा करने के लिए 500 मीटर की खड़ी चढ़ाई वाली रेस दौड़नी  पड़ रही थी।

रैंक और ग्रेड ऐसा ही काम करते हैं। अगर उन्हें किसी व्यक्ति के मेरिट आंकने का पैमाना माना जाएगा तो वो कुछ ऐसे होगा जैसे कि शरीर के तापमान के जरिए स्वास्थ्य को आंका जाए। समान अवसर का विचार ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने का एक औपचारिक रास्ता है। इस सिद्धांत का इस्तेमाल कर एक ऐसा समावेशी समाज नहीं बनाया जा सकता, जिसमें भेदभाव ना हो । 

ब्रिटिश इकोनॉमिक इतिहासकार आर. एच. टानी लिखते हैं कि ”सामाजिक कल्याण सोलिडेरिटी और सुसंगठन पर आधारित होता है। व्यक्ति की खुशी इस बात पर निर्भर नहीं करती कि लोग जीवन के नए स्तर पर पहुंचने के लिए आज़ाद हों लेकिन ये भी जरूरी है कि वो गरिमा का जीवन जी पाएं’’ ।

हम इसे IIT के एक ऐसे दो विभिन्न शाखाओं के पूर्व छात्रों के नजरिए से देख रहे हैं जो प्रिविलेज्ड ऊंची जातियों से संबंध रखते हैं। ये कोई भावनात्मक उदगार नहीं है और ये जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव की कोई थ्योरी नहीं है। ये सिर्फ उस भेदभाव की झलक भर है जो  मेरिट की आड़ में हो रहा है। 

इसके साथ हम भी शायद उस उच्च वर्ग से संबंध रखते थे जो कई मौकों पर इस भेदभाव को लेकर या तो खामोश रहे या फिर अनभिज्ञ बने रहे। इस बात में कोई दो राय नहीं है हर कोई छात्र आईआईटी में आने के लिए खासी मेहनत करता है। लेकिन इसे सिर्फ मेरिट कहना गलत होगा, ये हमें समझ आ गया।

दर्शन सोलंकी की दुखद मौत इलीट वर्ग से जुड़े उन लाखों इलीट छात्रों के लिए एक मौका है कि वो अंदर झांके और देखें कि क्या वो भी भेदभाव की इस प्रक्रिया में अनजाने ही शामिल रहे हैं। दूसरी बात ये कि IIT जैसे संस्थानों के लिए भी ये ज़रूरी है कि वो क्लासरूम्स को ऐसी जगहें बनाएं जो मेरिटोक्रेसी और भेदभाव से मुक्त हों। एक दूसरे के प्रति सहानुभूति और गरिमा से देखने की नजर शॉर्ट ओरिएंटेशन प्रोग्राम के ज़रिये पैदा नहीं की जा सकती।

ये इन संस्थानों के सिलेबस का हिस्सा होना चाहिए और कैंपस लाइफ का डीएनए भी। इन बातों को नैतिकता के आधार पर ना देखकर उन वजहों की तरह देखा जा सकता है जो कि भारत को एक स्वस्थ और समृद्ध देश बनने की दिशा में ले जा सकते हैं।

( लेखक-राजेश गोलानी, रिसर्चर हैं और लिब टेक इंडिया के साथ जुड़े हैं।राजेंद्रम नारायणन,अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बैंगलोर में पढ़ाते हैं और लिब टेक इंडिया से जुड़े हैं। द हिंदू से साभार। अनुवाद- अल्पयू सिंह)

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