नरेंद्र मोदी के लिए राहुल गांधी राजनीतिक से ज्यादा वैचारिक चुनौती हैं

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राहुल गांधी राजनीतिक समाचारों और बहसों के केंद्र में बने रहते हैं। अब उन्हें ‘पप्पू’ की जगह राहुल गांधी कहकर पुकारा जाने लगा है। उनके खिलाफ की जाने वाली नकारात्मक टिप्पणियों का प्रवाह  बहुत धीमा पड़ गया है।

उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से, शासन के चरित्र को उजागर करके और वैचारिक भाईचारे के लिए संघर्ष की बात कर  अपने लिए  राजनीतिक क्षेत्र में नया स्थान अर्जित किया है। राजनीति क्षेत्र में उन्हें यह स्थान दिलाने में उनके विरोधियों की भी एक हद तक भूमिका है।

मीडिया के कोलाहल के बीच भी वे चर्चा के केंद्र में बने रहे,  इसका श्रेय भाजपा के नेताओं और उनके चतुर दिखने वाले प्रवक्ताओं को भी जाता है। जो उनके खिलाफ लगातार घृणा से भरे विश्लेषण और टिप्पणियां करते रहते हैं। उन्हें चर्चा के केंद्र में रखने में उस तथाकथित शिक्षित मध्यमवर्ग का भी हाथ है, जो सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ द्वेष से भरी बातें करता रहता हैं।

अभी हाल में भाजपा ने राहुल गांधी के ब्रिटेन दौरे के दौरान उनके भाषणों और बातचीत को मुद्दा बनाकर उन्हें चर्चा के केंद्र में ला दिया। इसका मकसद निश्चित तौर पर अडानी मुद्दे पर चर्चा से बचना था, जिस मामले में भाजपा बैकफुट पर है। 

लेकिन अडानी मुद्दे पर चर्चा से बचने के लिए राहुल गांधी द्वारा लंदन में दिए गए भाषण को भाजपा द्वारा मुद्दा बनाने कि आधी-अधूरी चाल का दुष्परिणाम भी सामने आया। इसने राहुल गांधी को लोगों की नजर में बनाए रखा।

इससे उन्हें खुद को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करने  मौका मिला और लंदन में की गई टिप्पणियों को दोहराने का असवर भी। वे इस दौरान उन्हीं बातों को दोहराते रहे, जो उन्होंने राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान कहीं थीं। जिन्हें संसद की कार्यवाही से निकाल दिया गया था। 

इस सब के चलते भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल खबरों में बने रहे और उन्हें मौजूदा शासन के खिलाफ खुद को पेश करने का मौका मिला। भारत जोड़ो यात्रा के बाद चर्चा में बने रहने के बावजूद भी वे गरीब के समर्थक के रूप में खुद को प्रस्तुत करने और उनके बीच अपना आधार बनाने में अभी कामयाब नहीं हुए हैं और बेरोजगारी जैसे ठोस मुद्दों पर जनता को लामबंद करने में विफल रहे।

अब आपराधिक मानहानि मामले में सूरत की अदालत के फैसले और इसके आधार सांसद के रूप में उनकी सदस्यता खत्म करने की कार्रवाई ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि वे आलोचकों और समर्थकों दोनों के बीच चर्चा का विषय बने रहेंगे। चाहे वे कानूनी खामियों को खोजने का विकल्प चुनें या उच्च नैतिक जमीन पर खड़े होकर इस अवसर का उपयोग करें।

आने वालो हफ्तों में राहुल गांधी राजनीतिक गलियारे में चर्चा का हॉट विषय बने रहेंगे। कांग्रेस पार्टी उनसे ध्यान हटाकर अडानी के मुद्दे पर वापस जाना चाहेगी। लेकिन हमें एक व्यक्ति के रूप में राहुल गांधी के भविष्य के बारे में ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए।

जिस प्रश्न का उत्तर जानने में हमारी रूचि है, वह यह नहीं है कि राहुल गांधी की व्यक्तिगत राजनीतिक यात्रा के उतार-चढ़ाव क्या हैं, बल्कि प्रश्न यह है कि आखिर भाजपा क्यों एकमात्र उन्हीं को निशान बनाए हुए है। (सोनिया गांधी पर नीच वाले बयान के बाद फोकस केंद्रित किया गया था।)

निश्चित रूप से इसका एक सरल उत्तर यह है कि राहुल कांग्रेस पार्टी का सबसे स्वीकार्य चेहरा हैं। उन्हें बदनाम करने से कांग्रेस के सामान्य कार्यकर्ताओं का मनोबल गिर सकता है। उन्हें बदनाम करने का एक अन्य कारण यह हो सकता है कि भाजपा पार्टी गैर-भाजपा मतदाताओं को संदेश देना चाहती हो कि आप एक कमजोर नेता से उम्मीद लगा रहे हैं और यह उम्मीद निर्रथक है।

तीसरी बात यह है कि राहुल को मोदी के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करके विपक्षी एकता की संभावना को कमजोर करना, क्योंकि ऐसा होने पर कांग्रेस राहुल को मोदी के विकल्प के रूप में ज्यादा जोर देकर प्रस्तुत करेगी।

लेकिन कार्यनीतिक कारणों  के अलावा दो ऐसे मूल कारक हैं, जिसके चलते भाजपा राहुल गांधी से इतनी नफरत करती है। ये दोनों कारक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन कारणों का संबंध भाजपा की हिंदुत्व की सदियों पुरानी परियोजना से अधिक हैं, व्यक्ति राहुल से इसका संबंध कम है। 

राहुल ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान भारतीय समाज और इसकी कमियों-कमजोरियों (बुराईयों) के बारे में सशक्त तरीके से समझदारी भरे दृष्टिकोण का परिचय दिया। यात्रा के पहले भी उनका यह दृष्टिकोण छिट-पुट रूप से सामने आता रहा है। यह दीगर बात है कि इन कमियों-कमजोरियों को दूर करने के लिए उनके पास को ठोस नीतिगत उपाय और तरीका है या नहीं। लेकिन उन्होंने भारतीय नागरिक समाज के सामूहिक विवेक को जगाने की कोशिश की। 

यह वह सामूहिक विवेक है, जिस पर पिछले एक दशक के दुष्प्रचार का कुहासा छाया हुआ है। नागिरक समाज सहमा हुआ है और इस शासन द्वारा एक दशक में शुरू किए अंधेरे से चकाचौंध है। लेकिन यह राहुल गांधी की कोई बड़ी सफलता नहीं थी, जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं।

लेकिन राहुल की इतनी भी सफलता अंधेरे के शासन को पसंद नहीं है, न ही वह इसे स्वीकार कर सकता है। वह उजाले की किसी संभावना को भी बर्दाश्त नहीं करता है। इसीलिए सत्ता और उनके समर्थकों को राहुल की यात्रा ने इतना नाराज कर दिया। राहुल की यात्रा ने भारत की सामूहिक अंतरात्मा जगाने की संभावना को सामना लाया।

लेकिन निश्चित रूप से, यह केवल अधिक तात्कालिक कारक है। यह पूरी तरह से राहुल के प्रति भाजपा के उन्माद की व्याख्या नहीं करता है। राहुल गांधी के प्रति भाजपा के उन्मादी नजरिए का दूसरा कारण भारतीय समाज के सामूहिक विवेक से जुड़ता है। यह राहुल ( या सोनिया) गांधी से बहुत आगे का मामला है।

यह सामूहिक विवेक भारतीय राष्ट्र की नींव की विविधता और लोकतंत्र के बारे में है। वैचारिक हलकों में गांधी और नेहरू, गांधी और अंबेडकर, नेहरू और पटेल आदि के बीच मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना लगभग अनिवार्य है। 

इन वैचारिक खेमों के समर्थक और  ईमानदार अनुयायी हैं। इसके अलावा बहुत सारे अन्य इस राष्ट्र-राज्य संस्थापकों में शामिल हैं। राष्ट्र राज्य के संबंध में इनकी बुनियादी धारणाओं में बहुत सारे साझा नैतिक तत्व हैं। ये साझे नैतिक तत्व भारतीय संविधान के बुनियाद हैं। 

इन बुनियादी नैतिक तत्व ने भारतीय सभ्यता के देशी आधुनिक संस्करण को कायम रखने की मांग की। 20वीं शताब्दी के मध्य में भारत ने जिस विविधता को संजोया था, वह पश्चिम से उधार ली गई कोई चीज नहीं थी, बल्कि भारतीय इतिहास और प्रथाओं पर निर्मित थी। वह राजनीतिक समानता के आधुनिक सिद्धांतों और असहमति से निपटने के भारत के अपनी विरासत को बहुत ही सतर्कता के साथ समाहित और एकीकृत करता है। 

भारत में पिछले सौ वर्षों से एक संघर्ष जारी है। एक ओर संविधान के आधार पर  राष्ट्र-राज्य के भारतीय संस्करण के लिए प्रयास चलता रहा है,जिसमें विविधता को स्वीकार किया जाता है, दूसरी ओर भारत की विविधाओं को किनारे लगाकर एकरूपी भारतीय राष्ट्र-राज्य के निर्माण की भी कोशिश होती रही है।

तय है कि भारतीय राष्ट्र की विविधाओं से इंकार करके भारत को एकरूपी भारतीय राष्ट्र में बदलने का प्रयास किया जाता है (जिसे पश्चिम भी खारिज कर चुका है) जातीय/ धार्मिक एकरूपता पर जोर दिया जाता है। 

वर्तमान शासन (नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला) यही करना चाहता है, यही उसकी कल्पना का राष्ट्र है। जबकि राहुल और कांग्रेस भारत की विविधता का स्वीकार करते हुए भारतीय राष्ट्र-राज्य के निर्माण की बात करते हैं।

नेहरू के प्रति वर्तमान शासकों की स्थायी नफरत का यही बुनियादी कारण है। नेहरू विविधता को स्वीकार करते हुए भारतीय राष्ट्र-राज्य की कल्पना करते थे और उसकी बुनियाद डाली। 

पिछले 10 सालों में सत्ता में रहते हुए भाजपा ने भारत की मानसिकता को बदलने के लिए सबकुछ किया। इसके बावजूद भी भाजपा को यह विश्वास नहीं है कि यदि कोई व्यवस्थित वैचारिक विरोध हो, खासकर उस स्थिति में जब उसके पास राजसत्ता न हो तब यह परिवर्तन बना रहेगा या नहीं।

जानबूझकर या संयोग से इस वैचारिक स्थिति और राज्यसत्ता के निर्लज्ज प्रदर्शन दोनों के खिलाफ राहुल गांधी एक चुनौती के प्रतीक के रूप में सामने आएं हैं। इसने बीजेपी को सकते में डाल दिया है।

भाजपा के लिए राहुल को नजर अंदाज करने का मतलब होगा, उनको और उनकी उनकी विचारधारा (भाजपा विरोधी) को जगह देना। भाजपा मतभेदों के उस सह-अस्तित्व के खिलाफ है, लेकिन राहुल को निशाना बनाना जारी रखने से केवल उस स्थान का विस्तार हो सकता है जिस पर वह कब्जा कर सकते हैं।

दूसरी तरफ यदि वह उनकी उपेक्षा करती है, तो भारत के सामूहिक विवेक को फिर जगाने का मौका देने का जोखिम उठाना है, लेकिन यदि उसे दबाती है, तो इस सामूहिक विवेक में बड़े पैमाने का हलचल पैदा का करने का जोखिम है। दोनों तरह से ‘पप्पू आ गया केंद्र में’ की स्थिति का सामना भाजपा को करना पड़ेगा।

(सुहास पालिशकर पुणे में रहते हैं और राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं। द इंडियन एक्सप्रेस से साभार। अनुवाद-आजाद शेखर )

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