पी. चिदम्बरम का लेख: धीमे-धीमे हड़पी जा रही है स्वतंत्रता

तमिलनाडु में रामनाथपुरम नाम का जिला था। अब इसे विभाजित करके तीन जिले बना दिये गये हैं: रामनाथपुरम, शिवगंगई और विरुधुनगर। रामनाथपुरम में बहुत सारे जलाशय थे। प्राकृतिक झीलें, मानव निर्मित पोखरे, सिंचाई वाले पोखरे (तमिल में कन्मोई), पीने के पानी वाले तालाब (उरानी), मवेशियों और भेड़ों के नहाने के लिए पोखरे (कुलम) और कुंए। यह शुष्क भूमि वाला जिला था जहां वर्षा बहुत कम होती थी। अधिकांश कृषि भूमि असिंचित और मानसून पर निर्भर थी। लोगों और उनके शासकों के पास खोदते जाने…खोदते जाने और जलाशय बनाते रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। वे साल भर यही करते रहते थे। जलाशय ही लोगों और पशुओं, दोनों की जीवन-रेखा थे

जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई और नयी मानव बस्तियां बसती रहीं, इसका खामियाजा जलाशयों को भुगतना पड़ा। धीमे-धीमे अतिक्रमण करते जाने की रणनीति एक सफल रणनीति है। जलाशयों के किनारों पर कुछ झोपड़ियां उग आती हैं; आने वाले महीनों में कुछ और नयी बन जाती हैं। जैसे-जैसे अतिक्रमण फैलता गया, जलाशय घटने लगे और एक दिन वे गायब हो गये। वैसे ही, जैसे जब समुद्र आगे बढ़ता जाता है तो तटरेखा पीछे हटती जाती है, इसे अपरदन, यानि भूक्षरण कहते हैं।

छिनैती नहीं, बल्कि क्षरण

ये दोनों शब्द – अतिक्रमण और क्षरण – स्वतंत्रता पर भी लागू होते हैं। आजाद देश में आजादी अचानक आधी रात में नहीं छीन ली जाती है। यह चुपचाप, चोरी-छिपे, धूर्तता पूर्वक थोड़ी-थोड़ी कुतरी जाती है, और एक दिन आपको पता चलता है कि अब आप उतने स्वतंत्र नहीं रहे जितने कुछ महीने पहले तक थे। और जब आपको पता चलता है कि आपने अपनी स्वतंत्रता खो दी है, तो उसे फिर से हासिल करने के लिए बहुत देर हो चुकी होती है।

इस भ्रम में न रहें कि आप अपनी स्वतंत्रता नहीं खो सकते। जरा भारत के साथ 1947 और उसके बाद के दशक में आजाद हुए राष्ट्रों की गिनती कर लीजिए। और अब गिनिए कि उनमें से कितने राष्ट्रों की आजादी खो चुकी है, और वह भी उन देशों के हाथों नहीं, जिन्होंने उन्हें उपनिवेश बनाया था, बल्कि अपने ही देश के तानाशाहों के हाथों। उनमें से कई देशों में अभी भी चुनाव आयोग है और चुनाव भी होते हैं; न्यायपालिका भी है, न्यायाधीश भी हैं; संसद भी है और सांसद भी हैं; मंत्रिमंडल भी है और मंत्री भी हैं; और समाचार पत्र भी हैं और पत्रकार भी हैं।

लेकिन जब आप उस देश की यात्रा करते हैं या उसमें रहते हैं, तो आपको पता चलता है कि यह एक स्वतंत्र देश नहीं है। ऐसे देशों का साज-शृंगार स्वतंत्र देशों जैसा ही होता है, लेकिन वे अधिनायकवादी राज्य होते हैं। स्वीडन का वी-डेम संस्थान देशों को चार रूपों में वर्गीकृत करता है: उदार लोकतंत्र, चुनावी लोकतंत्र, चुनावी निरंकुशता और बंद निरंकुशता। 2021 में, इस संस्थान ने भारत को ‘चुनावी निरंकुशता’ के रूप में वर्गीकृत किया। यह एक शर्म का तमगा है।

क्रमिक संशोधन

संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1)(ए) और (जी) व्यक्ति के साथ-साथ प्रेस नामक संस्था की स्वतंत्रता की भी रक्षा करते हैं। 6 अप्रैल, 2023 की तरीख नोट कर लीजिए। यह वह दिन था जिस दिन एक संदिग्ध कानून के माध्यम से प्रेस की स्वतंत्रता के क्षरण को मंजूरी मिल गयी थी। आपातकाल (1975-1977) के दौरान रातों-रात प्रेस की आजादी छीनी गयी थी। (यह बहुत गलत हुआ था और इंदिरा गांधी ने आपातकाल के लिए माफी मांगी थी।) 6 अप्रैल को, सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून, 2021 में संशोधन किया। संशोधन के उपरांत नियम 3(1)(बी)(वी), अब, इस प्रकार हो गया है:

“3(1) मीडिया संस्थान द्वारा आवश्यक सावधानी: सभी मीडिया संस्थान, जिनमें सोशल मीडिया, नामी सोशल मीडिया संस्थान और ऑनलाइन गेमिंग प्लेटफॉर्म भी शामिल हैं, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय निम्नलिखित सावधानियां बरतेंगे:

(बी) मीडिया संस्थान… आवश्यक प्रबंध करेंगे ताकि उनके कंप्यूटरों में ऐसी सूचनाएं न रखी जाएं, न प्रदर्शित की जाएं, न अपलोड की जाएं, न संशोधित की जाएं, न प्रकाशित की जाएं, न प्रसारित की जाएं, न संरक्षित की जाएं, न अपडेट की जाएं, न शेयर की जाएं जो इसे पाने वाले को इस सूचना के स्रोत के बारे में धोखा देती हों या भ्रमित करती हों, या वह सोचसमझकर और जानबूझकर किसी गलत सूचना या ऐसी सूचना को संप्रेषित करता है जो स्पष्ट रूप से गलत और झूठी या भ्रामक प्रकृति की है, या जो ऐसी तथ्य जांच इकाई, जिसे मंत्रालय आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशित करके निर्दिष्ट कर सकता है, द्वारा केंद्र सरकार के किसी भी मामले में झूठी या भ्रामक पायी जाती है।”

दुर्भावना जगजाहिर है। संशोधित नियम ‘केंद्र सरकार के किसी भी मामले’ पर लागू होता है। केंद्र सरकार की एक ‘तथ्य जांच इकाई’ होगी। यह एक सरकारी सेंसर लाने की भाषायी छलयोजना है। इस सेंसर को अधिकार होगा कि वह किसी समाचार के ‘सही या गलत’ होने की पहचान करेगा। यह निर्णय विशुद्ध रूप से व्यक्तिपरक होगा जिसमें कोई न्यायिक निगरानी नहीं होगी। एक बार किसी खबर के बनावटी या झूठा होने की पहचान कर लिये जाने के बाद, वह समाचार पत्र, टीवी चैनल और सोशल मीडिया संस्थान उस समाचार को अपने कंप्यूटर से हटवाएगा।

सब कुछ खत्म होने से पहले

इस संशोधन की गंभीर क़ानूनी कमजोरियों का जिक़्र करके मैं इस लेख को बोझिल नहीं बनाऊंगा। यही कहना पर्याप्त है, कि क्या बनावटी या झूठा है और क्या नहीं है, इस संबंध में अभियोजक, जूरी और न्यायाधीश सब कुछ सरकार खुद ही है।

संशोधित क़ानून का अपना एक इतिहास है। 2021 में बने सूचना प्रौद्योगिकी क़ानूनों ने मीडिया संस्थानों पर उत्तरदायित्वों का भारी बोझ डाल दिया है। इन क़ानूनों को विभिन्न अदालतों में चुनौती दी गयी है। 28 अक्टूबर, 2022 को सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी (मीडिया दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) क़ानून, 2022 को अधिसूचित किया और नियम 3(1)(बी)(वी) में पहला महत्वपूर्ण संशोधन किया। अब 6 अप्रैल, 2023 की अधिसूचना द्वारा इसी नियम में फिर से संशोधन किया गया है। इसे ही मैं स्वतंत्रता को धीमे-धीमे कुतरते जाना कहता हूं।

न्यायालयों को यह तय करने दें कि संशोधित नियम संविधान और कानूनों के तहत विधिसम्मत हैं या नहीं। हमारा ध्यान कानूनी मामलों से इतर और स्वतंत्रता-संबंधी पहलुओं पर होना चाहिए:

  • क्या एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक देश में समाचारों को सेंसर किया जाना चाहिए?
  • क्या आप समाचारों के सेंसर को स्वीकार करेंगे?
  • क्या सेंसर को सरकार द्वारा नियुक्त होना चाहिए?
  • क्या सेंसर को व्यक्तिनिष्ठ तौर पर मामले तय करने चाहिए?
  • क्या इस तरह की सरकारी कार्रवाई बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर “चिंताजनक प्रभाव” नहीं डालेगी?

एक अनमोल अधिकार को धीमे-धीमे कुतरा जा रहा है। यह हमसे छीना जा रहा है, हमारे हाथों से निकल रहा है… इसके खत्म हो जाने से पहले जाग जाइए।

(‘इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार, अनुवाद : शैलेश)

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