जन्म दिवस विशेष: ‘अंगारे’ के अहम अफ़साना निगार अहमद अली

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हिंदुस्तानी अदब में प्रोफ़ेसर अहमद अली की पहचान ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ’ के संस्थापक सदस्य और ‘अंगारे’ के अफ़साना निगार के तौर पर होती है। वह इस इंक़लाबी कहानी संग्रह के चौथे एवं अहम अफ़साना निगार थे। अहमद अली की ‘अंगारे’ में दो कहानियां ‘महावटों की एक रात’ और ‘बादल नहीं आते’ संकलित थीं। जिसे उस ज़माने में ख़ूब मक़बूलियत मिली। अफ़सानों के अलावा अहमद अली ने नज़्में, नावेल और तन्क़ीदी मज़ामीन भी लिखे। अनुवाद किए। सच बात तो यह है कि वे इन सब के अलावा एक बेहतरीन नावेल निगार थे। और मुल्क के उन गिने-चुने हिंदुस्तानी लेखकों मुल्कराज आनंद, आर.के. नारायण और राजा राव में से एक हैं, जिन्होंने आज़ादी से पहले अंग्रेज़ी में लिखा और ख़ूब शोहरत कमाई।

एक लिहाज से कहें, तो अहमद अली की गिनती भारतीय अंग्रेज़ी लेखन के पुरोधाओं में है। जिन्होंने विदेशी ज़ुबान में कमाल का लेखन किया। अहमद अली को अपने पहले ही उपन्यास ‘ट्विलाइट इन डेल्ही’ से अंतरराष्ट्रीय शोहरत मिली। अलबत्ता उपन्यास के कंटेंट की वजह से इसे प्रकाशित करवाने के लिए उन्हें काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ी। अंग्रेज़ हुकूमत के ख़ौफ़ से कोई उनका उपन्यास छापने के लिए तैयार न था। आख़िरकार मशहूर अंग्रेज़ी राइटर वर्जीनिया वुल्फ़ के ‘होगार्थ प्रेस’, लंदन ने साल 1940 में इसे प्रकाशित किया। ‘ट्विलाइट इन डेल्ही’ प्रकाशित होते ही चर्चा में आ गया। यहां तक कि ब्रिटेन में भी इसे मक़बूलियत मिली। जबकि उपन्यास में अंग्रेज़ी हुकूमत और उसकी पॉलिसियों की खुले लफ़्ज़ों में मुख़ालफ़त और निंदा की गई थी।

अहमद अली ने उपन्यास में 1857 के इंक़लाब को आज़ादी की पहली लड़ाई बताया था, वहीं अंग्रेज़ उसे बग़ावत क़रार देते थे। उन्होंने अपने इस उपन्यास में अभिव्यक्ति के तमाम ख़तरों को उठाते हुए, अंग्रेज़ी हुकूमत को दिल्ली की बर्बादी का ज़िम्मेदार ठहराया है। ‘ट्विलाइट इन डेल्ही’ में दिल्ली का दिल धड़कता है। पुरानी दिल्ली की तहज़ीब को यदि हमें अच्छी तरह से जानना-पहचानना है, तो यह उपन्यास एक अहमतरीन दस्तावेज़ की तरह है।

अहमद अली की पैदाइश 1 जुलाई, 1910 को देहली में हुई। ग्यारह बरस की उम्र से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। कहानियां और नावेल पढ़ने में उनका ख़ूब दिल लगता था। जबकि घरवालों को यह सब नापसंद था। वे उन्हें डॉक्टर बनाना चाहते थे। बहरहाल, अलीगढ़ और लखनऊ यूनिवर्सिटी में अहमद अली ने आला तालीम हासिल की। इन यूनिवर्सिटियों के इल्मी माहौल में उनकी अदबी सरगर्मियां जारी रहीं। अपनी तालीम के दौरान वे कॉलेज की मैगज़ीन में नज़्में लिखते रहे।

तालीम मुकम्मल करने के बाद अहमद अली ने अपने करियर का आग़ाज़ 1931 में लेक्चररशिप से किया। आगरा कॉलेज और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उन्होंने ब-हैसियत अंग्रेज़ी के उस्ताद अपनी ख़िदमात अंजाम दीं। साल 1944 में वह कोलकाता चले गए। जहां उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में अंग्रेज़ी ज़बान के विभागाध्यक्ष का ओहदा संभाला। इससे पहले 1942 से 1944 तक उन्होंने नई देहली में बीबीसी के नुमाइंदे और डायरेक्टर के ओहदे पर भी काम किया।

बंटवारे के दौरान प्रोफ़ेसर अहमद अली नानजिंग में चीन यूनिवर्सिटी के ब्रिटिश कौंसिल विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे, जिन्हें तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने नियुक्त किया था। 1948 में जब उन्होंने भारत आना चाहा, तो चीन में भारत के तत्कालीन राजदूत केपीएस मेनन ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। जिससे मजबूर होकर उन्होंने पाकिस्तान जाने का फै़सला किया और हमेशा के लिए वहीं बस गए। पाकिस्तान आने के बाद 1948-49 में हुकूमत-ए-पाकिस्तान ने अहमद अली को फ़ॉरेन पॉलिसी के डायरेक्टर की ज़िम्मेदारी सौंपी। बाद में वे फ़ॉरेन सर्विस में आ गए।

अदब में अहमद अली की इब्तिदा अफ़साना निगारी से हुई। कहानी संग्रह ‘अंगारे’ में शामिल उनके दोनों अफ़साने 1931 में लिखे गए थे। अहमद अली का पहला अफ़साना ‘माहवटों की एक रात’ जनवरी, 1932 में ‘हुमायूं’ में शाए हुआ। सज्जाद ज़हीर से उनकी मुलाक़ात कैसे हुई और कहानी संग्रह ‘अंगारे’ की रूपरेखा कैसे बनी ?

अपने एक इंटरव्यू में अहमद अली ने ख़ुद ही इसका ख़ुलासा किया था। ‘‘सज्जाद ज़हीर ऑक्सफॉर्ड से लखनऊ आ गए। उनसे मुलाक़ात हुई, तो उन्हें हम-मिज़ाज-ओ-हम-ख़याल पाया। हम दोनों ही को अदब, आर्ट और अच्छे कपड़े पहनने का शौक़ था। लिहाज़ा ख़ूब गहरी दोस्ती हो गई।…. सज्जाद ज़हीर ने भी कहानियां लिखी थीं। इसलिए तजवीज़ पेश हुई कि हम दोनों अपनी-अपनी कहानियों की किताब छापें। लेकिन कहानियों की तादाद कम थी।

महमूदुज़्ज़फ़र से ज़िक्र हुआ, तो मालूम हुआ कि उन्होंने भी अंग्रेज़ी में एक कहानी लिखी है। लिहाज़ा उसे भी किताब में शामिल करने का फ़ैसला हुआ। और इसका उर्दू तजुर्मा सज्जाद ज़हीर ने किया। रशीद जहां के यहां भी अक्सर हम लोगों का जमघट रहता था। लिहाज़ा उनसे भी कहानी लिखने की फ़रमाइश की गई। उन्होंने एक कहानी लिखी और सुनाई। जो हम लोगों को पसंद आई। फिर उन्होंने दूसरी कहानी भी लिखी। इस तरह हमारा मजमूआ तैयार हो गया। और दिसम्बर, 1932 में ‘अंगारे’ के नाम से छपकर आ गया।’’

‘अंगारे’ जैसे ही पब्लिक के बीच आई, इसने हंगामा मचा दिया। उस हंगामाखे़ज़ माहौल का ज़िक्र अहमद अली ने इन लफ़्ज़ों में किया था, ‘‘लखनऊ के तमाम अख़बारात सफ़-ए-अव्वल पर बुरा-भला कहने लगे। मिंबरों से मौलवी साहेबान ने हमारे ख़िलाफ़ तक़रीरें शुरू कर दीं। और गलियों में हमें कसाई मारने के लिए छुरे लेकर घूमने लगे। ऑल इंडिया शिया कॉन्फ्रेंस में हमारे ख़िलाफ़ क़रारदाद-ए-मज़म्मत मंज़ूर हुई। कहा गया कि सर वजीर हसन के लड़के सज्जाद ज़हीर ने सरकशी की है। तीन महीने के अंदर-अंदर किताब पर पाबंदी लग गई।’’

अंग्रेज़ हुकूमत द्वारा किताब पर पाबंदी लगाए जाने के बाद भी इसके चारों लेखक न तो झुके और न ही इसके लिए उन्होंने सरकार से कोई माफ़ी मांगी। उलटे इन चारों लेखकों ने अपनी ओर से एक संयुक्त प्रेस वक्तव्य जारी किया, जो 5 अप्रैल 1933 को इलाहाबाद से निकलने वाले अंग्रेज़ी दैनिक ‘लीडर’ में प्रकाशित हुआ। बहरहाल, इस किताब के बाद समाज में इसके सभी लेखकों का मर्तबा स्टार की तरह हो गया। अहमद अली के अफ़साने ‘साक़ी’, ‘नया अदब’ और उर्दू की दीगर अहमतरीन अदबी मैगज़ीन में बाक़ायदगी से शाए होने लगे। अहमद अली के अफ़सानों का पहला मजमूआ ‘शोले’ 1934 में इलाहाबाद से शाए हुआ।

यह वह ज़माना था, जब अहमद अली ने ‘हमारी गली’, ‘कै़दख़ाना’, ‘मौत से पहले’, ‘मज़दूर’, ‘ग़ुलामी’, ‘तस्वीर के दो रुख़’, ‘गुज़रे दिनों की याद’ और ‘उस्ताद शम्मो ख़ाँ’ जैसे शाहकार अफ़साने लिखे। जो आला दर्जे की हक़ीक़त निगारी से तअल्लुक़ रखते थे। अप्रैल, 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस हुई। इस कॉन्फ्रेंस को कामयाब बनाने के लिए सज्जाद ज़हीर, डॉ. रशीद जहां, फ़िराक़ गोरखपुरी, शिवदान सिंह चौहान के साथ अहमद अली भी पेश-पेश थे। इलाहाबाद में उनका घर प्रगतिशीलों का दफ़्तर बन गया। सज्जाद ज़हीर और उन्होंने तरक़्क़ीपसंद अदीबों की तंजीम और तहरीक से संबंधित नये-नये मंसूबे बनाए और इस सिलसिले में देश के तमाम अदीबों से ख़त-ओ-किताबत की।

अहमद अली ने ही सज्जाद ज़हीर को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अपने दोस्तों फ़िराक़ गोरखपुरी और डॉ. सय्यद ऐजाज़ हुसैन से मिलवाया। सज्जाद ज़हीर और अहमद अली इन दोनों ने मिलकर इलाहाबाद में उर्दू और हिंदी के लेखकों को लेकर एक समूह बनाया। दूसरा अहम काम ये किया कि प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र के मसौदे पर इनकी रज़ामंदी लेकर, उनके हस्ताक्षर करवाए।

कॉन्फ्रेंस में फ़िराक़ गोरखपुरी, महमूदुज़्ज़फ़र के साथ अहमद अली ने भी अपना शोध-पत्र ‘आर्ट का तरक़्क़ीपसंद नज़रिया’ पढ़ा। आगे चलकर जब प्रगतिशील लेखक संघ ने जब अपनी एक अंग्रेज़ी मैगज़ीन ‘न्यू इंडियन लिटरेचर’ शुरू की, तो डॉ. मुल्कराज आनंद, डॉ. अब्दुल अलीम के साथ अहमद अली भी इसके संपादक मंडल में शामिल थे। साल 1938 में कोलकाता में प्रगतिशील लेखक संघ की दूसरी अखिल भारतीय कॉन्फ्रेंस में भी अहमद अली ने शिरकत की।

कुछ अरसे बाद अहमद अली के सज्जाद ज़हीर और संगठन के दीगर ओहदेदारों ख़ास तौर से मुल्कराज आनंद से वैचारिक मतभेद बढ़ गए। मतभेद यहां तक पहुंचे कि वे तरक़्क़ीपसंद तहरीक से बिल्कुल अलग हो गए। उन्होंने ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ से अपना वास्ता तोड़ लिया। अहमद अली प्रगतिशील लेखक संघ से अलग हुए, तो हुए उन्होंने उर्दू ज़बान में भी लिखना छोड़ दिया। और पूरी तरह से अंग्रेज़ी ज़बान में लिखना शुरू कर दिया। अहमद अली ने अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए न सिर्फ़ अंग्रेज़ी ज़बान को चुना, बल्कि अफ़साने की सिन्फ़ को भी छोड़कर, नावेल को अपना लिया। वे आगे चलकर अफ़साने में तो कुछ ख़ास नहीं कर सके, लेकिन नावेल के मैदान में उन्होंने ज़रूर नाम कमाया।

अहमद अली ने पहला उपन्यास ‘ट्विलाइट इन डेल्ही’ लिखा। बाद में जिसका उर्दू, जर्मन और फ्रांसीसी जुबानों में तजुर्मा हुआ। इस उपन्यास की कामयाबी के बाद, अहमद अली ने दो और नावेल ‘ओशन ऑफ़ नाइट’ एवं ‘रेटस एंड डिप्लोमेटस’ लिखे। ‘अंगारे’, ‘शोले’, ‘हमारी गली’, ‘कै़दखाना’ और ‘मौत से पहले’ अहमद अली के उनके अफ़सानों के मजमूए हैं। जो साल 1936 से 1945 तक के अरसे में शाए हुए। इब्तिदाई दौर में उन्होंने दो ड्रामे ‘द लैंड ऑफ़ ट्विलाइट’ (1931) और ‘ब्रेक द चेनस’ (1932) भी लिखे। जो उस वक़्त लखनऊ में स्टेज किए गए।

पाकिस्तान सरकार ने प्रोफ़ेसर अहमद अली को उनकी अदबी ख़िदमात के लिए ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’ सम्मान से नवाज़ा। 14 जनवरी, 1994 को अहमद अली ने इस दुनिया से हमेशा के लिए अपनी रुख़्सती ले ली। अहमद अली अपने अदबी सफ़र में भले ही आधे सफ़र के बाद तरक़्क़ी पसंद तहरीक से अलग हो गए हों, लेकिन उनकी शिनाख़्त हमेशा ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ के संस्थापकों के तौर पर ही होगी। और उन्हें ‘अंगारे’ के अफ़साना निगार के तौर पर याद किया जाएगा।

(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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