फिल्म मिसेज : अन्याय पर टिके परिवार की बुनियाद पर चोट

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मैं एक फिल्म पर बात करूंगा और फिल्म के बहाने थोड़ी सी बात परिवार पर भी करूँगा I 1987 में एक किताब छपी I किताब का नाम है जस्टिस, जेंडर एंड द फैमिली I इसकी लेखिका हैं Susan Moller Okin.

Okin ने लिखा है कि – “An equal sharing between the sexes of family responsibilities, especially child care, is “the great revolution that has not happened…Until there is justice within the family, women will not be able to gain equality in politics, at work, or in any other sphere.”

यानि – “पारिवारिक जिम्मेदारियों, विशेष रूप से बच्चों की देखभाल, में दोनों लिंगों के बीच समान भागीदारी “वह महान क्रांति” है जो अभी तक नहीं हुई है… जब तक परिवार में न्याय नहीं होगा, महिलाएं राजनीति, कार्यस्थल या किसी अन्य क्षेत्र में समानता हासिल नहीं कर पाएंगी।”

वे यह भी लिखती हैं कि – “The family is the linchpin of gender, reproducing it from one generation to the next. As we have seen, family life as typically practiced in our society is not just, either to women or to children. Moreover, it is not conducive to the rearing of citizens with a strong sense of justice.”

यानि “परिवार लिंग भेद की धुरी है, जो इसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाता है। जैसा कि हमने देखा है, हमारे समाज में आमतौर पर जिस तरह का पारिवारिक जीवन अपनाया जाता है, वह महिलाओं या बच्चों के लिए न्यायपूर्ण नहीं है। इसके अलावा, यह न्याय की मजबूत भावना वाले नागरिकों के पालन-पोषण के लिए अनुकूल नहीं है।”

इस बात पर संदेह की काफ़ी गुंजाईश है कि परिवारों के वर्तमान मूल्यों के रहते संवैधानिक और मानवीय मूल्यों में भरोसा करने वाले और उनके अनुसार जीवन जीने वाले नागरिक विकसित किये जा सकते हैंI

लिंग के आधार पर अन्याय की नींव पर खड़े परिवारों में न्याय को मानने वाले नागरिक पैदा किया जा सकते हैं, इस बात पर भरोसा करना काफ़ी मुश्किल है।

फिल्म एक केस

GEE 5 के ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आजकल एक फिल्म उपलब्ध हैI फिल्म का नाम है मिसेजI यह फिल्म 7 फरवरी को रिलीज की गई I इसकी डायरेक्टर हैं, आरती कदवI इस फिल्म में सानया मल्होत्रा लीड रोल में हैं।

यह फिल्म, परिवार में स्त्रियों के उत्पीड़न की अनेक परतों और प्रकारों को दर्शाने में सफल रही। मेन राइटस ग्रुप्स ने इस फिल्म की यह कहकर आलोचना की है कि यह फिल्म भारतीय परिवार व्यवस्था और उसके मूल्यों पर हमला है।

यानि कि यह फिल्म विक्टिम बनाने वाली व्यवस्था और विक्टिम बनाने वाले परिवारों पर हमला है। इस फिल्म की कहानी और उसके प्रस्तुतिकरण के आधार पर मेन राइट्स ग्रुप्स ने यह नहीं कहा कि यह फिल्म परिवार के भीतर महिलाओं के आर्थिक, यौनिक, स्वास्थ्य संबंधी अधिकारों का हनन करने के तरीकों को बखूबी दर्शाती है। उन्हें कहना चाहिए था कि अगर परिवारों ने अधिकारों का हनन करना बंद नहीं किया तो परिवार टूट जाएंगे। इसलिए परिवारों को सुधर जाना चाहिए I परंतु ऐसा कहने की बजाय वे मेसेंगजर पर ही टूट पड़े हैं I उन्हें मानना चाहिए कि परिवारों में सुधार बहुत ही धीमी गति से हो रहा है और महिलाओं तक आज़ादी की चाहत और समझ उससे ज्यादा तेजी से पहुंच रही है।

फिल्म की कहानी ऋचा पर केंद्रित है। ऋचा एक पढ़ी-लिखी लड़की है। वह डांसर है। उसका अपना डांस ट्रूप है। उसने कई लड़कियों को डांसर बनने के लिए प्रेरित किया है। उसकी शादी दिवाकर नाम के लड़के के साथ होती है। दिवाकर एक डॉक्टर है और वह अपना एक हॉस्पिटल चलाता है।

शादी की शुरुआत जिस रोमांटिक लव के साथ होती है, उसका झूठ जल्द ही सामने आ जाता है। कहा भी गया है कि रोमांटिक लव एक भ्रम हैI तो ऋचा और दिवाकर का रोमांटिक लव, रेत पर खड़ी की गयी दीवार की तरह जल्दी ही ढह जाता है और विवाह नाम की संस्था की सच्चाई सामने आ जाती है।

वह संस्था जो असमानता के सिद्धांत पर टिकी हुई है I जिस संस्था में मेल सेक्स को फीमेल सेक्स के ऊपर वरीयता प्राप्त है। उस वरीयता को असमान धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक परंपराओं का समर्थन हासिल है। हमें इस तथ्य के सबूत, समाज में भी मिलते हैं और इस फिल्म में भी।

दिवाकर एक डॉक्टर था I शादी के बाद भी वह डॉक्टर बना रहा I पति हो जाने भर से उसकी पढ़ाई-लिखाई का इतिहास मिटा नहीं दिया गया। जबकि शादी के बाद ऋचा सिर्फ बीवी बना दी गयी I वो एक डांसर थी I शादी के बाद बीवी बनने में सहायक कुशलता के अलावा उसकी तमाम कुशलताओं को हिंसा के बल पर मिटाने की कोशिश लगातार की गयी।

दिवाकर की इच्छाओं के साथ पितृसत्ता खड़ी है, जबकि पितृसत्ता ऋचा की इच्छाओं के खिलाफ़ खड़ी है।

ऋचा के खिलाफ पितृसत्ता की सक्रियता केवल उसके पति और ससुर के जरिए ही सामने नहीं लायी गयी, बल्कि उसके पिता, माँ और भाई मैं पैठी पितृसत्ता भी ऋचा के खिलाफ सक्रिय है।

इस फिल्म की ऋचा के अस्तित्व के खिलाफ केवल पुरुष ही नहीं खड़े हैं, बल्कि उसके ससुराल और मायके की स्त्रियां भी खड़ी हैं। दरअसल उसकी एक सहेली को छोड़कर, उसके परिचय की तमाम स्त्रियां उसके अस्तित्व के खिलाफ खड़ी हैं।

ऋचा की सास इकोनॉमिक्स में पीएचडी हैंI लेकिन उसके ससुर को इस बात पर गर्व है कि उसकी बीवी पीएचडी होने के बावजुड़ शुद्ध रूप से डोमएस्टिक स्लेव है। खाना बनाने के अलावा, पीएचडी इकोनॉमिक्स की हुई भारत की एक नागरिक अपने पति के बाहर जाने के समय चप्पल-जूता तक निकालकर अपने पति को सुविधा प्रदान करती है I यानि जिस प्रकार की परिवार व्यवस्था ने पीएचडी इकोनॉमिक्स की डिग्री प्राप्त एक नागरिक को चप्पल उठाने वाली बना दिया, उस व्यवस्था की तारीफ करते हुए लोगों को शर्म तक नहीं आ रही। यह पितृसत्ता के पक्ष में किये जा रहे समाजीकरण की ताकत है जिसने एक हाइली क्वालिफाइड इंडिविजुअल को, केवल सेक्स के आधार पर दूसरे इंडिविजुअल का दास बना दिया है।

ऋचा का ससुर और पति चाहता है कि सेक्स के आधार पर पीढ़ियों से चली आ रही दासता को जारी रखा जाना चाहिए I ऋचा का ससुर और पति चाहते हैं कि ऋचा पितृसत्ता की गुलामी की उन जंजीरों को गहने समझे, जिन जंजीरों से वे दोनों ऋचा के अस्तित्व को जकड़ना चाहते हैं।

सुबह के समय ऋचा का पति टेनिस खेलने जाता है और ससुर घर पर योगा करता है। उसी दौरान ऋचा और उसकी सास घर के कामों में लगी होती हैं। इन औरतों को स्वस्थ रहने की गतिविधियों से सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों तरह से दूर रखा गया है।

ब्रेकफास्ट के एक मौके पर ऋचा अपनी सास से आग्रह करती है कि वो भी खाने के लिए बैठ जाए और ऋचा रोटियाँ बनाती रहेगी और परोसती भी रहेगी।

ऋचा की उस बात को सुनकर उसका ससुर कहता है कि ये बाद में खा लेंगी इन्हें कौन सा क्लिनिक जाना है!

यह सच है कि 2025 में भी भारतीय स्त्रियाँ साथ खाने और गर्म खाना खाने के हक़ से महरूम रखी रखीजा रही हैं I और इस अन्याय का आधार मुख्यतः सेक्स है I  

एक दिन ऋचा ने डिनर के लिए रोटियाँ पहले ही से बनाकर हॉट केस में रख दीं। खाने के वक्त दिवाकर ने ऋचा से पूछा कि रोटियाँ पूछा कि रोटियाँकहाँ है? ऋचा ने ऋचा नेहॉट केस दिखाते हुए हुएबताया कि किहॉट केस में हैं I इस पर दिवाकर ने अपने आप को करेक्ट किया और कहा कि रोटियाँ कि रोटियाँनहीं,, फुल्के कहाँ है?

परिवार के पुरुषों को फुल्के चाहिएफुल्के चाहिए, लेकिन औरतों के हिस्से में घंटा भर पहले की बनी रोटियाँ ही ठीक हैं। पितृसत्ता तय करती है कि फुल्के तक किसकी एक्सेस होगी? पितृसत्ता केवल जमीन या हल तक एक्सेस कोई कंट्रोल नहीं करती I वो सेक्स के आधार पर फुल्कों तक एक्सेस को भी तय करती है।

ऋचा के ससुराल में उसके पति की एक बुआ आई हुई है। क्योंकि ऋचा की सास अपने मायके गयी हुई है, इसलिए उनकी अनुपस्थिति में क्षतीपूर्ति करवाने भर के लिए बुआ को बुलाया गया है। बुआ गले-गले तक पितृसत्ता की अफ़ीम खाकर ऋचा पर कड़ी नज़र रखती है। वह खुद भी पितृसत्ता की विक्टिम है, लेकिन दूसरी औरत को विक्टिम बनाने में उसे पावर का अहसास होता हैI और वो उस पावर को एंजॉय भी करती है।

दिवाकर डॉक्टर है, लेकिन अपनी पत्नी के सोशल मीडिया पर होने की खबर पाकर वो ऋचा के खिलाफ हिंसा पर उतारू होने को होता है। दिवाकर उत्तर प्रदेश, राजस्थान या हरियाणा की खप पंचायत का सदस्य नहीं है। वो एक डॉक्टर है I लेकिन उसकी सोच और खाप पंचायतों की सोच में अंतर करना मुश्किल है।

यह दुसरा मौका है जब ऋचा किसी जुल्म का प्रतिरोध करती हैI दिवाकर के जोर देने पर भी वो सोशल मीडिया से हटने के लिए तैयार नहीं होतीI ऋचा अपना पहला, लेकिन हल्का प्रतिरोध तब दर्ज करती है जब दिवाकर क्लिनिक जाने के लिए तैयार होते समय

ऋचा से अपने कपड़े निकलकर रखने के लिए कहता है। जब ऋचा अलमारी से उसकी कमीज निकालकर सामने रखती है तो दिवाकर ऋचा से सारे कपड़े निकालने के लिए कहता है। यह बात ऋचा को चुभ जाति हैI वो अलमारी से बाकी के कपड़े भी निकाल देती है लेकिन व्यंग करते हुए कहती है कि- “क्या मैं पहना भी दूँ?”

ऋचा को औरत होने के कारण, उसकी औकात दिखाते रहने का कोई भी अवसर पति और ससुर हाथ से जाने नहीं देते I ऋचा अपने अस्तित्व को रोज-रोज, थोड़ा-थोड़ा दरकते हुए देखती रहती है।

रात काफी हो चुकी हैI ऋचा किचन का काम निपटाने में लगी हुई है। दिवाकर को ऋचा के साथ से कोई मतलब नहीं है I उसे ऋचा की सेक्सुअलिटी से मतलब हैI वो बेड पर लेटा-लेता ऋचा को फोन करके पूछता है कि और कितनी देर लगेगी। अगर दिवाकर को ऋचा का साथ चाहिए होता तो वह किचन में जाकर उसकी सहायता कर सकता था। ऐसा करने से ऋचा की मदद भी हो जाती और उसे उसका साथ में मिल जाता है। लेकिन दिवाकर को ऋचा का साथ नहीं चाहिए। उसे उसका शरीर भर चाहिए।

ऋचा नौकरी करना चहती हैI लेकिन उसकी इस इच्छा का सम्मान करने वाला उसकी ससुराल में कोई नहीं है। पति और ससुर के मना करने के बावजूद, ऋचा एक डांस एकैडमी में अप्लाई कर देती हैI लेकिन इंटरव्यू के दिन उसे घर से निकलने नहीं दिया जाता I ससुर उसका रस्ता रोक कर खड़ा हो जाता है।

एक दृश्य में ऋचा और दिवाकर डिनर पर ऋचा की एक सहेली के घर गए हुए हैं I उसकी सहेली उससे पूछती है कि ऋचा डांस क्लासेज के लिए कब आएगी I इस का उत्तर देते हुए ऋचा कह देती है कि वो नहीं आ सकती क्योंकि दिवाकर उसे फ्री की कामवाली समझता है और उसके घर से बाहर निकलने पर पाबन्दी लगा रखी है। यह बात दिवाकर को बुरी लगती है। वह नाराज हो जाता है I उसे तभी आराम मिलता है जब वो ऋचा से माफी मंगवा लेता है I

लेकिन क्या ऋचा ने इस बात पर दिवाकर से माफी मंगवाई कि दिवाकर उसकी आर्थिक आज़ादी में बाधक बनकर खड़ा हुआ हैI

ऋचा दिवाकर के लिए शारीरिक भूख मिटाने का जरिया है। स्त्री-पुरुष की निहायत निजी गतिविधि में भी वह वो करता है जो उस पृथ्वी पितृसत्ता और अज्ञानता ने सिखाया है।

उसके लिए संभोग एक टास्क है, प्रेम की प्रक्रिया नहींI संभोग उसके लिए एकाकार होने का मौका नहीं, निपटा देने वाली मानसिकता हैI वो ऋचा का उपभोग करना जानता हैI उससे प्यार करना नहींI चाहे घर के काम हो या सेक्सI ऋचा के साथ उसका रिश्ता उपयोग कर लेने भर का हैI सहकार, सहयोग, बराबरी और प्यार का नहीं I

ऋचा, दिवाकर को बताती है कि दिवाकर सेक्सुअल इंटरकोर्स को टास्क की तरह निपटाता है। ऋचा समझाती है कि दिवाकर को सेक्सुअल इंटरकोर्स को आनंददायक बनाने के लिए फॉर-प्ले के त्रिकोण को अपनाना चाहिएI लेकिन पितृसत्ता और अज्ञानता के अंधेरे में जीने वाला दिवाकर, ऋचा के ज्ञानी होने को उसका चरित्रहीन होना समझता है। दिवाकर, ऋचा पर सेक्सुअल इंटरकोर्स में अनुभवी होने का लांछन लगाता है। जबकि ऋचा सेक्सुअल इंटरकोर्स में बराबरी और समझदारी की मांग कर रही हैI

ऋचा की ससुराल में आने वाला हर मेहमान उसे नौकरानी से ज्यादा नहीं समझता। क्योंकि उसके ससुराल वाले उसे नौकरानी से कुछ ही ऊपर समझकर ट्रीट करते हैं।

स्त्री-द्वेष के अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रमाण

जिस तरह क्वालिफाइड ऋचा को किसी आर्थिक गतिविधि में जाने से रोका जाता है, उसी तरह भारत की करोड़ों क्वालिफाइड महिलाओं को भी आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने से रोका जाता है I भारत में फीमेल लेबर फोर्स पार्टीसिपेशन रेश्यो बेहद कम है I 2005 में भारत के शहरी इलाकों में ये रेश्यो 16.6% थी, जो 2020 में बढ़कर 16.8% हो गई थी I 2023 में ये रेश्यो बढ़कर 32.7 प्रतिशत हो गयी।

महिलाओं के नीचे लेबर फोर्स पार्टीसिपेशन रेश्यो और अन-पेड हाउसहोल्ड वर्क के बीच जरुर कोई स्पष्ट नेगेटिव कोरिलेशन है। ज्यादा अन-पेड हाउसहोल्ड वर्क, तो कम लेबर फोर्स पार्टीसिपेशन रेश्यो I अन-पेड हाउसहोल्ड वर्क में कमी और लेबर फोर्स पार्टीसिपेशन रेश्यो में बढ़ोतरी I

हालाँकि यह जरूरी नहीं है कि महिलाओं के लेबर फोर्स पार्टीसिपेशन रेश्यो का बढ़ाना अन-पेड घरेलू कामों के बोझ के कम होने को दर्शाता हो I हो सकता है कि पब्लिक सेक्टर एंप्लॉयमेंट के घटने के कारण परिवार की आमदानी कम हो गई हो जिसके कारण उन्हें किसी रोजगार के जाना पड़ता हो I जैसा कि कोवड-19 के बाद भारत में देखा गया। अन-पेड हाउसहोल्ड वर्क की हकीकत को समझने के लिए दुनिया और देश के आंकड़ों पर एक नजर डाल लेते हैं।

UN Women की एक रिपोर्ट है। रिपोर्ट का नाम है फोरकास्टइंग टाइम सपेंट इन अनपैड केयर एंड डोमएस्टिक वर्क I (image) इस रिपोर्ट के अनुसार औसतन इंडिविजुअलस का एक दिन के 24 घंटे का 12% समय अन-पेड घरेलू कामों में बीतता हैI यानि इंडिविजुअलस के औसतन 2.9 घंटे अन-पेड घरेलू कामों में खर्च होते हैं I लेकिन ये 2.9 घंटे सेक्स के आधार पर महिलाओं और पुरुषों के बीच असमान रूप से बटे हुए हैं। UN Women की ये रिपोर्ट बताती है कि 75% अन-पेड घरेलू काम महिलाओं को करने पड़ते हैं I पुरुष अपने समय का 6.5% ही अन-पेड घरेलू कामों पर खर्च करते हैं। जबकि महिलाऐं अपने समय का करीब 18% अन-पेड घरेलू कामों पर खर्च करती हैं।

यही करण है की Susan Moller Okin ने अपनी किताब जस्टिस, जेंडर एंड फैमिली में लिखा है कि परिवार में अभी एक क्रांति होनी बाकी है I ऐसी क्रांति जिसके बाद अन-पेड घरेलु कामों का बंटवारा स्त्री और पुरुषों में समान रूप से होने लगेगा I

अन-पेड घरेलु कामों के बंटवारे पर भारत की स्थिति को राष्ट्रीय स्तर पर समझने के लिए 2024 में आई भारत सरकर की रिपोर्ट Time Use Survey – 2024 को पढ़ा जा सकता है। 4,54,192 लोगों के सैंपल पर किए गए सर्वे के आंकाडे चौंकाते नहीं है। बस वे भारतीय परिवारों में पितृसत्ता की राष्ट्रीय तस्वीर पेश भर करते हैं। जिस तस्वीर के आधार पर सच्चाई से मुंह छुपाने वाले लोगों से कुछ बात की जा सकती है।

भारत सरकार की ये रिपोर्ट बताती है कि भारत में केवल 27% पुरुष अन-पेड डोमएस्टिक सर्विसेज में भागीदारी करते हैं। जबकि 81.5% महिलाऐं ऐसी सर्विसेज को करती हैं। ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि अन-पेड घरेलू कामों के असमान बंटवारे का महिलाओं और पुरुषों पर क्या असर पड़ता है? इस सवाल का उत्तर देने के एक आंकड़ा इस रिपोर्ट में दिया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार केवल 21% महिलाऐं रोजगार संबंधी गतिविधियों के लिए समय निकाल पाती हैं, जबकि 61% पुरुष अपना समय रोजगार संबंधी गतिविधियों पर खर्च करते हैं।

पितृसत्ता एक ऐसा ऐसा ढाँचा है जो शक्ति को पुरुषों के पक्ष में साधने के लिए बनाया गया है, और सदियों बाद भी जिसका लाभ पुरुषों को सहज ही मिल रहा है और कुछ पुरुष तो आज भी उस ढाँचे को बनाए रखने के लिए सक्रिय तौर पर भी काम कर रहे हैं।

इसलिए Mrs फिल्म में ऋचा का दिवाकर को यह कहना अनेक पुरुषों को चुभ गया कि उसका पति उसे मुफ्त की कामवाली समझता है।

UN women और भारत सरकार की Time Use Survey – 2024 रिपोर्ट्स का हवाला मैने पहले दिया है I ये रिपोर्ट्स बता रही हैं की ऋचा ने जो समझा और कहा वह अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय सच्चाई है।

सकारात्मक-समाजीकरण

ऋचा के भीतर अपमान और असमानता के कारण पनप रहा ज्वालामुखी उस दिन फट पड़ता है, जिस दिन उसके ससुरअल में उसके ससुर के जन्मदिन की पार्टी दी जा रही है। ससुराल वालों की नजर में वह लौंडी थी, सो रिश्तेदारों और मेहमाओं की नजर में भी उसकी औकात एक लौंडी से ज्यादा न रही होगी। तमाम रिश्तेदार और मेहमान भी अपने घर की औरतों को शायद लौंडी ही समझते होंगे। रिश्तेदारों और मेहमानओं से उनकी इच्छा पूछी जा रही है और ऋचा तक पहुंचा दी जाती हैI इच्छाओं के पूरा होने में देर होने पर दिवाकर किचन में जाकर ऋचा पर चिल्लाता है कि उसने अभी तक मेहमाओं की इच्छा अनुसार सामग्री तैयार क्यों नहीं की !

अपमान में गले तक डूबी ऋचा ने कई दिनों से टपकते वॉश बेसिन के मैले पानी से भरी बाल्टी से ग्लास भरे और हॉल में जाकर टेबल पर रख दिये। जब दिवाकर और ऋचा के ससुर को पता चला कि गिलासों में मैला पानी है तो वे दोनों ऋचा को सबक सिखाने के लिए किचन की ओर लपक और दिवाकर ऋचा पर चिल्लाया ही था कि ऋचा ने बाल्टी में बचा हुआ मैला पानी उन दोनों के मुंह पर दे मारा और कार की चाबी उठाकर मायके के लिए निकल गई।

धरेलू हिंसा के खिलाफ ऋचा का वो असरदार एक्शन था I कोई कह सकता है कि ऋचा को मेहमाओं के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था I सवाल यह है कि जो रिश्तेदार और मेहमान किसी के व्यक्तिगत संबंधों में अपनी नाक घुसाकर उनकी हर गतिविधि को सूँघते फिरते हैं, वो ऋचा के साथ की जा रही हिंसा को न सूंघ पाए हों, इसकी संभावना कम ही है।

रिश्तेदार देख रहे हैं कि पार्टी चल रही है और ऋचा के ससुराल वालों ने कोई हलवाई नहीं बिठाया हुआ है। फिर भोजन आदि कौन बना रही है? क्या रिश्तेदार इस तथ्य को नहीं जान रहे होंगे? उनके खाने पीने की डिमांडस को पूरा करने के क्रम में पिस कौन रही है, क्या वे नहीं जान रहे होंगे? अगर वे इस तथ्य के प्रति उदासीन या इग्नोरेंट हैं तो इसकी सजा उन्हें मिलनी चाहिए।

अब ऋचा अपने मायके पहुंच चुकी हैI उसके माता-पिता उसे ससुराल वापस जाने के लिए मना रहे हैं। इसी बातचीत में ऋचा की माँ उससे कहाती है कि बेटा इतनी सी बात पर नाराज नहीं होते।

स्वयं को बेटा कहे जाने का पुरजोर विरोध करते हुए ऋचा अपनी माँ को टोकती है कि वो “बेटा” नहीं है “बेटी” है।

वो माता-पिता के द्वारा बेटी को बेटा कहे जाने के माया जाल को काटकर फेंक देती है। वो स्पष्ट करती है कि जब माता-पिता, बेटे और बेटी के बीच असमानता विकसित करते हैं, तो उन्हें बेटी को बेटी ही कहना चाहिएI बेटियों को बेटा कहकर उन्हें भ्रमित नहीं करना चाहिए I

उनके दरम्यान अभी बातचीत चल ही रही थी कि बाहर से ऋचा का भाई भी आ जाता है। ऋचा की माँ उससे कहती है कि वो गुस्सा थूक दे और पानी पी ले और एक गिलास पानी अपने भाई को भी दे देI

इतना सुनते ही ऋचा के बदन में जैसे आग लग जाती हैI उसका चेहरा तमतमा जाता हैI अपनी माँ का प्रतिरोध करते हुए वो कहती है कि वो भाई को पानी नहीं देगी। वो सवाल करती है कि क्या उसका भाई अपने आप पानी नहीं ले सकता? जब ऋचा से खुद ही पानी लेने के लिए कहा जा रहा है तो भाई से क्यों नहीं कहा जा रहा?

वो अपने माता-पिता को फटकारते हुए कहती है कि उनके जैसे माँ-बाप ही बेटों को बिगाड़ते हैं।

ऋचा द्वारा बोला गया संवाद बिलकुल सही हैI अगर आप अपने आसपास के 10 परिवारों का अवलोकन करें तो आपको ज्यादातर परिवारों में माता-पिता का स्त्री-द्वेष दिखाई देगा!

ऋचा और दिवाकर के बीच तलाक हो जाता है I दिवाकर दूसरी शादी कर लेता हैI उसमें सुधार अब भी नहीं हुआ हैI अपनी दूसरी पत्नी के साथ उसके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया हैI

ऋचा ने अपने डांस ट्रूप को फिर से संभाल लिया हैI

मेरी समझ से यह एक शानदार फिल्म है जो जेंडर के आधार पर किए जाने वाले सामाजीकरण को चुनौती देते हुए पॉजीटिव-सामाजीकरण का उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह फिल्म बताती है की अगर परिवार अन्याय पर आधारित पारम्परिक मूल्यों को बचाए रखना चाहते हैं तो उन्हें टूटना ही चाहिए, ताकि समाज पर समतामूलक परिवार बनाने का आंतरिक और बाह्य दबाव पड़ता रहे।

(बीरेंद्र सिंह रावत दिल्ली विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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