होली की मिठास से भरा-पूरा है इतिहास 

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हमारी सांस्कृतिक धरोहरों में, होली ने साझी खुशी, दिल्लगी और आपसी सौहार्द्र का जो रंग प्राचीन साहित्य के इतिहास में मिलता है, उसका स्वरूप इतना अपनापन और मिठास लिए हुए है कि आज भले ही फगुआ हवाएं अनचीन्ही हो गई हों, आम के बौर अपनी वास्तविक खुशबू खोते जा रहे हों, अबीर और टेसू के रंग फीके और बाजार की दहलीज पर बलि चढ़ गए हों मगर जैसे ही हम पुराने कवियों की फगुवाई भरी रचनाओं से गुजरते हैं, तो सच मानिए पूरा फागुन अपने असली रूप में हमें टेरने लगता है फिर वहां भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, नज़ीर बनारसी हों, रसखान हों, पद्माकर हों, चाहे घनानंद या हसरत मोहानी हों और चाहे मीर शेर अली हों।

फागुन में हमें बहका देते हैं। नज़ीर बनारसी और नज़ीर अकबराबादी तो मदमस्त ही कर  देते हैं। आप चाहे कितनी मायूसी ओढ़े हों, बच ही नहीं सकते।

आइए, जनाब नज़ीर बनारसी के पास चलें क्या कहते हैं- अजी कहते हैं क्या – वे होली के दिन पूरे रंगत में रंगकर गा उठते हैं-

   अगर आज भी बोली ठोली ना होगी 

   तो होली भी ठिकाने की ना होगी

   बड़ी गालियां देगा फागुन का मौसम

   अगर आज ठट्ठा ठिठोली ना होगी ।

   है होली का दिन कम से कम दोपहर तक 

    किसी की ठिकाने की बोली ना होगी 

    उसी जेब में होगी फितने की पुड़िया 

    जरा फिर टटोलो टटोली ना होगी।

हमें तो ऐसा लगता है नज़ीर बनारसी यहीं अपने शहर में होली की हुड़दंग में शामिल हैं।उन्हें तो यह भी पता है कि असली हुरियारा रंग दोपहर तक ही है।

उधर पद्माकर जी ने कृष्ण जी और राधा जी की होली का चित्र खींचा है, किस रस की श्रेणी में है ये तो आलोचक जाने आप तो सिर्फ रंग देखें–

           फाग की भीर अबीरनि ज्यों  

           गहि गोविंद ले गई भीतर गोरी 

           माय करी मन की पद्माकर 

           ऊपर नाए अबीर की झोरी।

           छीन पितांबर कम्मर ते सो

           बिदा दई मीड़ कपोलन रोरी

            नैन नचाए कटि मुस्काय

           लला फिर अईयो खेलन होरी।

कवि घनानंद होली में हमें ऐसा रंगते हैं कि सारे नृत्य नवोढ़ा दंपति के होरियाना मूड को दर्शा कर उस का सजीव चित्रण करते हुए गुलाल की शोभा का अप्रतिम वर्णन करते हैं-

     प्रिय देह अछेह भरि दुति देह  

       दियै तरुणाई के तेहं तुली

      अति की गति धीर समीर 

     लगै मृदु हेमलता जिमि जाति डुली

      घन आनंद खेल उलैल दते

       बिल सै खुल सै लट झूमि झुली

      सुढ़ि सुंदर भाल पै भौंहनि बीच

      गुलाल की कैसी खुली टिकली

इधर, सूफियाना रंग में अमीर खुसरो कैसे रंग डालते हैं देखें-

        दैया रे मोहे भिजोया री

        वाहे निज़ाम( ख़्वाज़ा)के रंग में

        कपड़े रंग के कुछु ना होत है

        या रंग में तन को डुबोया री

एक और रंग में भी है-

          हज़रत ख़्वाजा संग खेलिए धमाल

          अजब यार तेरो बसंत बनायो

          सदा रखिए लाल गुलाल

           हज़रत ख़्वाजा संग खेलिए धमाल।

भारतेंदु हरिश्चंद्र भी कहां धीरज धर पाते हैं —

        वे भी फगुनिया में जाते हैं

          और फिर गाते भी हैं

        गले मुझको लगा लो

          ऐ मेरे दिलदार होली में 

         बुझे दिल की लगी

          मेरी भी तो

          ऐ यार होली में

और ये अनूठा रंग सूफ़ी शायर हसरत मोहानी का भी है

मोसे छेर करत नंदलाल 

लिए ठारे अबीर गुलाल

ढीठ भयी जिन की बरजोरी 

औरन पर रंग डाल डाल 

हमहूँ जो दिये लिपटाए के हसरत 

सारी ये छलबल निकाल 

मीर शेर अली अफसोस (1732-1809) भी शिद्दत से होली के बारे में लिखते हैं-

हर इक जा (जगह)हर इक तरफ बजते हैं दफ(ढफली)

हर इक सम्त (दिशा) है सांग वालों की सफ

कहीं गालियों का बंधा हैगा झाड़

किसी तरफ गेंदों की है मारधाड़

उड़े था अबीर और  गुलाल इस क़दर

किसी की ना आती थी सूरत नज़र।

वहीं नज़ीर अकबराबादी तो होली में दिलबर से क्या क्या अर्ज़ कर बैठते हैं-

          होली की बहार आई फरहत की खिलीं कलियां

          बाजों की सदाओं से कूचे भरे औ गलियां

          दिलबर से कहा हमने टुक छोड़िए छलबलियां

           अब रंग गुलालों की कुछ कीजिए रंगरलियां

          है सब में मची होली तुम भी ये चस्का लो

          रखबाओ अबीर ऐ जां औ मय को भी मंगवालो

         हम हाथ में लोटा लें तुम हाथ में लुटिया लो

          होली की यही घूमें लगतीं हैं बहुत बलियां

महत्त्वपूर्ण और ध्यान देने वाली बात ये है कि एक मुस्लिम दम्पति मय रखवाता है। होली की गुलाल, अबीर सजवाता है और हाथ में लोटा-लुटिया में रंग भरकर होली में घूमने की बात करता है इसमें आत्मीयता और अपनेपन में डूबना साफ़ नज़र आता है। और अगली रचना तो होली की बहार में शामिल कर ही लेती है।

फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।

और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।

ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।

महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

यकीनन, होली का उल्लास और होली की मिठास से हमारा प्राचीन साहित्य सराबोर है।  आज की होली से वह चटक रंग ही गायब नहीं हुआ है बल्कि प्रेम और सद्भावना की गंगा -जमुनी तहज़ीब को भी फीका किया जा रहा है। होली को प्राकृतिक उत्सव की तरह मनायें। सब एक रंग हो जायें। बहारों का आनंद लें।

(सुसंस्कृति परिहार लेखिका और एक्टिविस्ट हैं।)

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