सावित्रीबाई फुले: आधुनिकता के सभी अर्थों में भारत की पहली आधुनिक महिला

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हिन्दू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परम्परा में शूद्रों और महिलाओं को एक समान माना गया है। अतिशूद्रों (अछूतों) को इंसानी समाज का हिस्सा नहीं माना गया। उन्हें इंसान का दर्जा तक नहीं दिया गया। निर्णयसिंधु में उद्धृत एक स्मृति में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि-

स्त्रीशूद्राश्चय सधर्माणः [1] (अर्थात् स्त्री और शूद्र एक समान होते हैं)

भागवतपुराण के अनुसार स्त्री तथा शूद्रों को वेद सुनने का अधिकार नहीं है। दोनों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है। हिन्दू धर्मग्रंथों में साफ़ तौर पर कहा गया है कि-

स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् [2] (अर्थात् स्त्री तथा शूद्र अध्ययन न करें)

ऐसा नहीं है कि महज अध्ययन के मामले में स्त्रियों और शूद्रों को समान माना गया था। क़रीब सभी मामलों में शूद्रों और स्त्रियों को समान माना गया। विवाह संस्कार को छोड़ दिया जाए, तो अन्य सभी संस्कारों के मामले में स्त्रियों को शूद्रों के समकक्ष रखा गया है। दोनों को संपत्ति के अधिकार से वंचित किया गया है। मनुस्मृति में साफ़ तौर पर कहा गया है कि पत्नी, पुत्र और दास के पास कोई संपत्ति नहीं हो सकती है। उनके द्वारा अर्जित संपत्ति उनकी होती है, जिसके वे पत्नी/ पुत्र/ दास हैं-

भार्या पुत्रश्चः दासश्च त्रय एवाधनाः स्मृताः। यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम्।। [3]

जिस तरह ब्राह्मण ग्रंथों का आदेश है कि शूद्रों का मूल कार्य अन्य तीन वर्णों की सेवा करना है, उसी तरह स्त्री का मूल कार्य अपने पति की सेवा करना है। मनु ने बिना किसी संकोच के साफ़ शब्दों में आदेश दिया है कि शूद्रों के लिए ब्रह्मा ने केवल एक कर्म निर्धारित किया है कि वे विनम्र होकर तीन वर्णों-ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा करें–

एकं एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्। एतेषां एव वर्णानां शुश्रूषां अनसूयया।। [4]

इसी तरह से महिलाओं के लिए इन हिन्दू धर्मग्रंथों का आदेश है कि पति चरित्रहीन, लम्पट, गुणहीन ही क्यों न हो, साध्वी स्त्री देवता की तरह उसकी सेवा करे।[5]

महाभारत में कहा गया है कि पति चाहे बूढ़ा, बदसूरत, घिनौना, अमीर या ग़रीब हो, लेकिन स्त्रियों की दृष्टि से वह उत्तम भूषण होता है। वह धनवान हो या निर्धन, ख़ूबसूरत हो या बदसूरत, उसे सदैव संतुष्ट रखनेवाली पत्नी ही सर्वश्रेष्ठ होती है। ग़रीब, कुरूप, निहायत बेवकूफ़, कोढ़ी जैसे पति की सेवा करने वाली स्त्री अक्षय लोक प्राप्त करती है।[6]

हिन्दू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परम्परा में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की स्थिति को आधुनिक भारत में पहली बार जिस महिला ने चुनौती दी, उनका नाम सावित्रीबाई फुले है। वे आजीवन शूद्रों- अतिशूद्रों की मुक्ति और महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करती रहीं। उनका जन्म 3 जनवरी, 1831 को जिस नायगाँव नामक गाँव में हुआ, वह महाराष्ट्र के सतारा जिले में है, जो पुणे के नज़दीक है। वहखंडोजी नेवसे पाटिल की बड़ी बेटी थीं, जो वर्ण-व्यवस्था के अनुसार शूद्र जाति के थे। उस दौर में शूद्र जाति में पैदा किसी लड़की के लिए शिक्षा पाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। वे घर के काम करती थीं और साथ ही खेतों में पिता संग खेती के काम में सहयोग भी करती थीं।

शिक्षा और किताबों से दूर-दूर तक उनका कोई नाता नहीं था। पहली बार उन्होंने किताब तब देखी, जब वे गाँव के अन्य लोगों के साथ बाज़ार शिरवाल गईं। यहाँ सप्ताह में एक बार बाज़ार लगता था। इस समय वे छोटी-सी बच्ची ही थीं। जब वे बाज़ार से लौट रही थीं, उन्होंने देखा कि बहुत सारी विदेशी महिलाएँ और पुरुष एक पेड़ के नीचे ईसा मसीह की प्रार्थना करते हुए गाना गा रहे थे। वे जिज्ञासावश वहाँ रुक गईं। उन महिला-पुरुषों में से किसी ने उनके हाथ में पुस्तिका थमा दी। सावित्रीबाई पुस्तिका लेने से हिचक रही थीं। देने वाले ने कहा कि यदि तुम्हें पढ़ना नहीं आता, तब भी इस पुस्तिका को ले जाओ। इसमें छपे चित्रों को देखो, तुम्हें आनन्द आएगा। वह पुस्तिका सावित्रीबाई अपने घर ले आईं। उन्होंने उस पुस्तिका को सँभालकर रख दिया। जब 9 वर्ष की ही उम्र में उनकी शादी 13 वर्षीय जोतीराव फुले के साथ हुई और वे अपने घर से जोतीराव फुले के घर आईं, तब उस पुस्तिका को भी अपने साथ लेकर आईं।[7]

आधुनिक भारतीय पुनर्जागरण के दो केन्द्र रहे हैं-बंगाल और महाराष्ट्र। बंगाली पुनर्जागरण मूलतः हिन्दू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परम्पराओं के भीतर सुधार चाहता था और इसके अगुआ उच्च जातियों और उच्च वर्गों के लोग थे। इसके विपरीत महाराष्ट्र के पुनर्जागरण ने हिन्दू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परम्पराओं को चुनौती दी। वर्ण-जाति व्यवस्था को तोड़ने और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के ख़ात्मे के लिए संघर्ष किया। महाराष्ट्र में पुनर्जागरण की अगुआई शूद्र और महिलाएँ कर रही थीं।जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई और ताराबाई शिंदे इसकी अगुआई कर रहे थे। यह सच है कि इस पुनर्जागरण के सबसे प्रमुख व्यक्तित्व जोतीराव फुले थे। जोतीराव गोविंदराव फुले (जन्म : 11 अप्रैल, 1827, मृत्यु : 28 नवम्बर, 1890) एक विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे।

डॉ. आंबेडकर ने अपने शोध-पत्र ‘भारत में जातियाँ : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ में लिखा है कि स्त्री जाति से बाहर के पुरुषों से संबंध न क़ायम करने पाए, इसके लिए ब्राह्मणों ने सती प्रथा, विधवा प्रथा और बाल विवाह का नियम बनाया। इसमें सती प्रथा और विधवा प्रथा का पालन तो सिर्फ़ द्विज जातियाँ करती थीं, लेकिन उनकी देखा-देखी बाल विवाह का प्रचलन शूद्रों-अतिशूद्रों में भी हो गया। ब्राह्मणवादियों की इसी प्रथा का पालन करते हुए सावित्रीबाई के पिता खंडोजी नेवसे ने उनकी शादी 1840 में 9 वर्ष की उम्र में ही जोतीराव फुले से कर दी। जोतीराव फुले भी नाबालिग ही थे। बाल विवाह उस समय व्यापक तौर पर प्रचलित परम्परा थी।

जोतीराव फुले भी ब्राह्मणवादी वर्ण-जाति व्यवस्था के श्रेणीक्रम में शूद्र वर्ण और माली जाति के थे, जिनके लिए ब्राह्मणवादी धर्मग्रंथों का आदेश है कि उनका काम ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा करना है। जोतीराव के पूर्वज खेती करते थे। गुज़ारा जैसे-तैसे हो जाता था। गाँव के पटवारी के साथ उनकी अनबन होने तथा परेशान किए जाने से तंग आकर आख़िर में उन्होंने गाँव छोड़ दिया। पहले वे सतारा के कटगुल गाँव में रहते थे, फिर पूना जिले के खानवड़ी गाँव में और अन्त में पूना में आ बसे। बाद में उनके परिवार ने फुलवारी सजाने-सँवारने का काम सीखा। धीरे-धीरे उनकी कीर्ति पेशवाओं तक पहुँच गई। उन्हें पेशवाओं की फुलवारी में काम मिला। काम वे इतने बढ़िया ढंग से करते थे कि उससे प्रसन्न होकर पेशवाओं ने उन्हें पैंतीस एकड़ ज़मीन इनाम में दे दी। अब लोग उन्हें ‘फुले’ कहने लगे। जोतीराव के दादा शेटीबा थे। उनके तीसरे पुत्र गोविन्द थे, जिनके दूसरे पुत्र जोतीराव फुले थे। इसी के चलते उनका पूरा नाम जोतीराव गोविन्दराव फुले पड़ा। [8]

जोतीराव की उम्र सालभर की ही थी, तभी उनकी माँ चिमणाबाई का देहांत हो गया। उसके बाद उनका लालन-पालन सगुणाबाई ने किया, जिनका पूरा नाम सगुणाबाई खंडोजी क्षीरसागर था। जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले की शिक्षा-दीक्षा में सगुणाबाई की अहम् भूमिका है। सगुणाबाई क्षीरसागर का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। बचपन में ही उनकी शादी हो गई थी और बहुत जल्दी वह विधवा हो गईं। उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए एक अनाथालय में काम करना शुरू किया। यह अनाथालय ईसाई मिशनरी द्वारा चलाया जाता था; जिसके संरक्षक मिस्टर जॉन थे। यहीं उन्होंने टूटी-फूटी अंग्रेजी भाषा सीखी। सर्वप्रथम यहाँ उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे जैसे मूल्यों की शिक्षा ग्रहण की।[9]

मानवीय गरिमा के साथ जीने का अर्थ समझा। उन्होंने इस शिक्षा और इन मूल्यों से जोतीराव फुले और बाद में सावित्रीबाई फुले को परिचित कराया। उन्हें आधुनिक मूल्यों से सींचा। सगुणाबाई ने जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले को गढ़ा था। उनको याद करते हुए सावित्रीबाई फुले ने एक कविता लिखी है, जिसमें वे उनके प्यार-दुलार, मेहनत और ज्ञान की प्रशंसा करती हैं। वे उन्हें आऊ कहकर बुलाती थीं। मराठी में माँ को आऊ कहकर बुलाते हैं। सावित्रीबाई अपनी कविता ‘हमारी माँ’ में उनके बारे में लिखती हैं–

बहुत मेहनती माँ थी हमारी
प्यार-दुलार से पूर्ण अरु प्यारी
और दयालु बहुत बड़ी थी
यह सागर भी उसके आगे
लगता कमतर, ख़ाली-ख़ाली
उसके आगे आसमान भी
झुका-झुका सा रहता था
माँ जब घर आई थी हमारी
बैठी ज्यों चितचोर मयूरा

साक्षात् वह मूर्तिमंत थी
विद्या की शक्ति थी न्यारी
हृदय में हमने रक्खा है
उसे बसाकर…..! [10]

इस बात पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए कि उन्होंने सगुणाबाई को हमारी माँ कहकर सम्बोधित किया है। वास्तव में सगुणाबाई ने एक साल की उम्र से ही जोतीराव फुले को पाला-पोसा और शिक्षित-दीक्षित किया। इतना ही नहीं, 9 वर्षीय सावित्रीबाई को भी एक शिक्षक-माँ की तरह पाला-पोसा और शिक्षित- दीक्षित किया। जोतीराव फुले ने अपनी किताब ‘सृष्टिकर्ता की खोज’ (निर्मिकचा शोध) अपनी आऊ सगुणाबाई को समर्पित किया है। उन्होंने इस समर्पण में सगुणाबाई के लिए लिखा है कि “सत्य का ज्ञान कराकर, सगुणाबाई आपने हमें मानवीय और विनम्र बनना सिखाया। आपने मुझे दूसरों के बच्चों को प्रेम करना सिखाया। बहुत आभार के साथ, मैंने आपसे सीखा। यह पुस्तक मैं आपको समर्पित करता हूँ।”[11]

जब 1848 ई. में जोतीराव फुले ने अछूत कही जाने वाली लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोला तो उस स्कूल में सावित्रीबाई के साथ सगुणाबाई और फ़ातिमा शेख़ भी शिक्षक नियुक्त हुई थीं।[12]

सगुणाबाई का देहांत 6 जुलाई, 1854 को हुआ था।[13]

जोतीराव फुले सावित्रीबाई फुले के जीवनसाथी होने के साथ ही उनके शिक्षक भी थे। जोतीराव भली- भाँति यह समझ गए थे कि शिक्षा के बिना शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को मुक्ति नहीं मिल सकती है। उन्होंने लिखा कि-

‘बिन विद्या के मति गई
मति बिन नीति गई
नीति बिना यह गति गई
गति बिन रहे न वित्त

वित्त बिना टूटे सब शूद्र
एक अविद्या ने किए
इतने विकट अनर्थ!’

जोतीराव फुले अविद्या को सारे अनर्थों की जड़ मानते थे। उन्होंने बार-बार इस बात को रेखांकित किया है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने जान-बूझकर शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा, ताकि उन्हें दास बनाकर रखा जा सके, उनका शोषण किया जा सके। शिक्षा की महत्ता को समझते हुए उन्होंने अपनी बुआ सगुणाबाई के साथ मिलकर सावित्रीबाई को पढ़ना-लिखना सिखाया। जिस पहली किताब से उनकी शिक्षा की शुरुआत हुई, वह वही तस्वीरों वाली किताब थी, जिसे सावित्रीबाई अपने साथ लेकर आई थीं। यह ईसा मसीह की चित्रों वाली कहानी थी।[14]

सावित्रीबाई फुले सगुणाबाई के साथ ही जोतीराव फुले को अपनी कविताओं में शिक्षा की ज्योति जगाने वाले के रूप में याद करती हैं। उन्होंने ‘जोतिबा’ शीर्षक से एक कविता लिखी है, जिसमें वे जोतीराव फुले की पूरी जीवन-यात्रा और जीवन-संघर्षों का वर्णन करती हैं। वे लिखती हैं-

जैसे संत तुकोबा थे
वैसे संत जोतिबा थे
ज्ञान का अमृत बाँटा है
दोनों संतों ने जनता में
क्रियाशील स्रष्टा, नेता
संत जोतिबा! संत जोतिबा![15]

उन्होंने अपने काव्य संग्रह ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ की पहली कविता में ही सबसे पहले जोतीराव फुले को याद किया है। वे लिखती हैं-

जिनकी सहज प्रेरणा से
मैं कविता का सृजन करती
जिनके सरल स्नेह भाव से

मुझे परम् आनन्द मिले है
जिन्होंने सावित्री को दी है
सद् बुद्धि, सद्ज्ञान की सरिता
पढ़ा-लिखाकर और जिन्होंने
मुझको दी इंसानी समता
करती हूँ प्रणाम हृदय से
ऐसे संत जोतिबा को [16]

जोतीराव फुले और सगुणाबाई की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद सावित्रीबाई फुले नेऔपचारिक शिक्षा अहमदनगर में ग्रहण की। उसके बाद उन्होंने पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण स्कूल में उनके साथ फ़ातिमा शेख़ ने भी अध्यापन का प्रशिक्षण लिया। यहीं उनकी गहरी मित्रता क़ायम हुई। फ़ातिमा शेख़ उस्मान शेख की बहन थीं, जो जोतीराव फुले के घनिष्ठ मित्र और सहयोगी थे। बाद में इन दोनों सहपाठिनियों ने एक साथ अध्यापन का कार्य भी किया। जब 15 मई, 1848 को पुणे के भिड़ेबाड़ा में जोतीराव फुले ने स्कूल खोला, तो वहाँ सावित्रीबाई फुले मुख्य अध्यापिका बनीं।[17]

यहाँ इस तथ्य को ज़रूर रेखांकित कर लेना चाहिए कि सावित्रीबाई फुले, सगुणाबाई और फ़ातिमा शेख़ पहली भारतीय महिलाएं थीं, जो अध्यापिकाएँ बनीं।[18]

शिक्षा ग्रहण करने और अध्यापन का प्रशिक्षण लेने के बाद सावित्रीबाई फुले ने शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। उनकी एक कविता का शीर्षक है, ‘शिक्षा के लिए जाग्रत हो जाओ’। इस कविता में वे आह्वान करती हैं कि अतिशूद्र (आज के दलित) भाइयों जागो! ग़ुलामी की परम्परा को तोड़ दो और शिक्षा ग्रहण करो-

अरे भाइयों! अतिशूद्रों!
जागो, उठो, खड़े हो जाओ
ख़त्म करो यह परम्परा में
चली आ रही बँधी ग़ुलामी

अरे भाइयों! जागो अब तो
शिक्षा ग्रहण करो आगे बढ़
करो नया संकल्प कि हम सब
प्राप्त करेंगे ज्ञान आधुनिक
विद्या का संचय करके सब
शूद्र का धब्बा मिटाएँगे अब [19]

जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले, दोनों शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए एक साथ जीवन-संघर्ष में उतरे। शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की शिक्षा की ज़रूरत के सन्दर्भ में जोतीराव फुले ने लिखा कि “मेरे देशबन्धुओं में महार, माँग, चमार दुःख और अज्ञान में डूबे हुए हैं। स्त्रियों के स्कूल ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकर्षित किया। पूर्ण विचारोपरांत मेरा यह निश्चित मत हुआ कि लड़कों के स्कूल की बजाय लड़कियों का स्कूल होना बहुत ज़रूरी है। महिलाएँ दो-तीन साल की आयु में जो संस्कार अपने बच्चों पर डालती हैं, उसी में उन बच्चों के भविष्य के बीज होते हैं।”[20]

जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले द्वारा शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए खोले जा रहे स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इनकी संख्या चार वर्षों में क़रीब 18 तक पहुंच गई। फुले दंपति के ये क़दम सीधे-सीधे ब्राह्मणवाद को चुनौती थे। शिक्षा पर ब्राह्मणों के एकाधिकार को चुनौती मिल रही थी। क्योंकि, समाज पर उनके वर्चस्व के लिए सबसे अहम कारक शिक्षा पर एकाधिकार था। लोकमान्य तिलक जैसे लोगों ने इन स्कूलों का विरोध किया। जोतीराव फुले के पिता गोविन्दराव फुले पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगा कि वे या तो स्कूल बंद करा दें या अपने बेटे और बहू को घर से बाहर निकाल दें। लोगों ने उनसे कहना शुरू किया कि “तुम्हारा लड़का धर्म और समाज के लिए कलंक है। उसकी पत्नी भी निपट निर्लज्ज और मर्यादाहीन है। दोनों समाजद्रोही और धर्मद्रोही हैं। उनके व्यवहार के कारण तुम पर परमात्मा का कोप होगा। अच्छा हो, दोनों को घर से बाहर निकाल दो।”[21]

ब्राह्मण पुरोहितों ने गोविन्दराव पर कड़ा दबाव बनाया। गोविन्दराव पुरोहितों और समाज के सामने कमज़ोर पड़ गए। उन्होंने जोतीराव फुले से कहा कि या तो वे स्कूल छोड़ें या घर।[22]

एक इतिहास निर्माता नायक की तरह दुःखी और भारी दिल से जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए घर छोड़ने का निर्णय लिया। पति-पत्नी ख़ाली हाथ घर से निकले। उन्होंने सामाजिक हित के लिए व्यक्ति हित को दांव पर लगा दिया। उस्मान शेख़ ने उन्हें रहने की जगह दी और नया जीवन शुरू करने के साधन मुहैया कराए।[23]

परिवार से निकाले जाने के बाद भी ब्राह्मणवादी शक्तियों ने सावित्रीबाई फुले का पीछा नहीं छोड़ा। जब सावित्रीबाई फुले स्कूल में पढ़ाने जातीं, तो उनके ऊपर गाँव वाले पत्थर और गोबर फेंकते। सावित्रीबाई रुक जातीं और उनसे विनम्रतापूर्वक कहतीं– “मेरे भाई! मैं तुम्हारी बहनों को पढ़ाकर एक अच्छा कार्य कर रही हूं। आपके द्वारा फेंके जाने वाले पत्थर और गोबर मुझे रोक नहीं सकते, बल्कि इससे मुझे प्रेरणा मिलती है। ऐसा लगता है, जैसे आप फूल बरसा रहे हों। मैं दृढ़ निश्चय के साथ अपनी बहनों की सेवाकरती रहूंगी। मैं प्रार्थना करूंगी कि भगवान आपको बरकत दें।”[24]

गोबर से सावित्रीबाई फुले की साड़ी गंदी हो जाती थी, इस स्थिति से निपटने के लिए वह अपने पास एक साड़ी और रखती थीं। स्कूल में जाकर साड़ी बदल लेती थीं। सावित्रीबाई फुले जब स्कूल में पढ़ाने जातीं, तो उनके ऊपर गाँव वाले पत्थर और गोबर फेंकते थे एक दिन जब सावित्रीबाई फुले स्कूल से घर वापस आ रही थीं, तो एक मोटा-तगड़ा बदमाश उनके सामने आकर खड़ा हो गया। उस बदमाश ने उनसे कहा कि यदि तुमने महार और मांगों (अछूत मानी जाने वाली जातियां) को पढ़ाना बंद नहीं किया, तो तुम्हारे लिए ठीक नहीं होगा। तुम्हें इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। लोग इस दृश्य को देखने के लिए इकट्ठा हो गए, लेकिन कोई भी सावित्रीबाई फुले को बचाने के लिए सामने नहीं आया। सावित्रीबाई डटकर खड़ी रहीं। उन्होंने उस बदमाश को एक ज़ोरदार थप्पड़ जड़ दिया। वह बदमाश भाग खड़ा हुआ और दर्शक भी चले गए। यह ख़बर आग की तरह पूरे पुणे में फैल गई और उसके बाद ऐसी कोई घटना दोबारा नहीं घटी।[25]

1852 में उन्हें आदर्श शिक्षक पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इसी वर्ष शिक्षा में उनके योगदान के लिए सरकार द्वारा फुले दंपति का अभिनंदन किया गया था। सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले महिलाओं को सिर्फ़ शिक्षित ही नहीं करना चाहते थे, बल्कि वे चाहते थे कि उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी मिले। जिस तरह जीवन के सभी क्षेत्रों में फुले दंपति बराबरी के आधार पर जी रहे थे, उसी तरह वे चाहते थे कि महिलाओं को वे सभी अधिकार मिलें जो पुरुषों को प्राप्त हैं। इसके लिए जोतीराव फुले ने ब्राह्मणवादी विवाह पद्धति की जगह सत्यशोधक विवाह पद्धति की शुरुआत की। इस विवाह पद्धति में शादी के लिए लड़के-लड़की की सहमति आवश्यक थी। इसमें पुरोहित के लिए कोई स्थान नहीं था, न ही कन्यादान होता था।

23 वर्ष की उम्र में, 1854 में सावित्रीबाई फुले का पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। उनकी कविताएँ शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति की भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्त करती हैं। इन कविताओं में वे ब्राह्मणवाद-मनुवाद पर करारी चोट करती हैं। अंग्रेजी शिक्षा के महत्व को रेखांकित करती हैं। इतिहास की ब्राह्मणवादी व्याख्या को ख़ारिज करती हैं और नई व्याख्या प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताएं आशा और उत्साह से भरी हैं। वे इन कविताओं में नए समाज का सपना देखती हैं, जिसमें किसी तरह का कोई अन्याय न हो; वर्ण-जाति व्यवस्था न हो और महिलाएं पुरुषों के अधीन न हों; बल्कि उनकी बराबर की साथी हों। वे ‘सावित्री-जोतिबा संवाद’ कविता में अन्याय के अँधेरे के मिटने और न्याय के उजाले की चर्चा चन्द्रमा और सूरज के प्रतीक से करती हैं। यहां चन्द्रमा रात का और सूरज दिन का प्रतीक बनकर आया–

कहे सावित्री,
अस्त हो गया है चन्द्रमा
सूरज आ पहुँचा है देखो
चारों ओर फैल गया है
एक अनोखा दिव्य उजाला
पूर्व दिशा में… [26]

शिक्षा के साथ ही फुले दंपति ने समाज की अन्य समस्याओं की ओर ध्यान देना शुरू किया। सबसे बदतर हालात विधवाओं की थी। ये ज़्यादातर उच्च जातियों के ब्राह्मण परिवारों से थीं। अक्सर कम उम्र में लड़कियों की शादी उनसे बहुत ज़्यादा उम्र के पुरुषों से कर दी जाती थी। इनमें कई सारी विधवाएं हो जाती थीं। ऊंची कही जाने वाली इन जातियों में इन विधवाओं का दुबारा विवाह नहीं हो सकता था। समाज इन्हें हेय दृष्टि से देखता था। इन्हें अशुभ और अपशकुन वाली महिला समझा जाता था। रंगीन साड़ी पहनने तक का अधिकार उन्हें नहीं था। वे कोई साज-सिंगार नहीं कर सकती थीं। किसी शुभ कार्य में शामिल नहीं हो सकती थीं। सुस्वादु और अच्छा भोजन करने की भी उन्हें मनाही थी। वे अक्सर सफ़ेद या भगवा साड़ी पहनती थीं। उनके बाल मूँड़ दिए जाते थे।

डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि “इस सबका उद्देश्य यह होता था कि वे पर-पुरुष की ओर आकर्षित न हों। न ही उनकी ओर कोई पुरुष आकर्षित हो। उनके भीतर सेक्स या प्रेम की भावना न जागे। लेकिन, कई बार ये विधवाएं अपने परिवार और सगे- संबंधियों की हवस का शिकार हो जाती थीं या किसी पुरुष की तरफ़ आकर्षित होकर शारीरिक संबंध क़ायम कर लेती थीं। इस प्रक्रिया में यदि वे गर्भवती हो जाती थीं, तो उनके पास आत्महत्या करने या बच्चे के जन्म के बाद उसकी हत्या करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था।”

ऐसी ही एक घटना ब्राह्मणी विधवा काशीबाई के साथ हुई। वह किसी पुरुष की हवस का शिकार होकर गर्वभती हो गईं। उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया। लोकलाज से विवश होकर उन्होंने उस बच्चे को कुएँ में फेंक दिया। उन पर हत्या का मुक़दमा चला और 1863 में उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा हुई।[27]

इस घटना ने सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले को भीतर तक हिला दिया। 1863 में फुले दंपति ने बालहत्या प्रतिबंधक गृह शुरू किया। कोई भी विधवा आकर यहां अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी। उसका नाम गुप्त रखा जाता था। इस बालहत्या प्रतिबंधक गृह का पोस्टर जगह-जगह लगाया गया। इन पोस्टरों पर लिखा था कि “विधवाओं! यहाँ अनाम रहकर बिना किसी बाधा के अपना बच्चा पैदा कीजिए। अपना बच्चा साथ ले जाएँ या यहीं रखें; यह आपकी मर्ज़ी पर निर्भर रहेगा। अन्यथा अनाथाश्रम उन बच्चों की देखभाल करेगा ही।”[28]

विधवा ब्राह्मणियों या अन्य विधवाओं के लिए इस तरह का यह भारत का पहला गृह था। सावित्रीबाई फुले बालहत्या प्रतिबंधक गृह में आने वाली महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चों की देख-रेख ख़ुद करती थीं। सावित्रीबाई और जोतीराव की कोई संतान नहीं थी। जोतीराव पर यह दबाव था कि वे किसी और स्त्री से विवाह कर लें, ताकि वे अपने वारिस को जन्म दे सकें। जोतीराव ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि ऐसा भी हो सकता है कि संतान न होने का कारण वे स्वयं हों तो क्या ऐसी स्थिति में सावित्रीबाई को दूसरे पुरुष से विवाह करने की इजाज़त दी जाएगी।

फुले दंपति ने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय लिया। सन् 1874 में एक रात मूठा नदी के किनारे टहलते समय जोतीराव की नज़र एक महिला पर पड़ी, जो अपना जीवन समाप्त करने के लिए नदी में कूदने को तैयार थी। जोतीराव ने दौड़कर उसे पकड़ लिया। उस स्त्री ने उन्हें बताया कि वह विधवा है और उसके साथ बलात्कार हुआ था। उसे छह माह का गर्भ था। जोतीराव ने उसे सांत्वना दी और अपने घर ले गए। सावित्रीबाई ने खुले दिल से उस स्त्री का अपने घर में स्वागत किया। उस स्त्री ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम यशवंत रखा गया। फुले दंपति ने यशवंत को गोद ले लिया और उसे अपना क़ानूनी उत्तराधिकारी घोषित किया। उन्होंने यशवंत को शिक्षित किया और वह आगे चलकर डॉक्टर बना।

दूसरे स्रोतों (श्याम बेनेगल कृत ‘भारत एक खोज, एपिसोड-45’ जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर आधारित) के अनुसार, “यशवंत की माता जोतीराव फुले के परिचित ब्राह्मण की विधवा बहन थी, जो अपने किसी रिश्तेदार के द्वारा गर्भधारण कर चुकी थी और घर के लोगों द्वारा इसके लिए प्रताड़ित हो रही थी। जोतीराव और सावित्रीबाई ने न सिर्फ़ उसकी ज़चगी करवाई, बल्कि उसके बेटे यशवंत को गोद भी लिया। यह तथ्य, कि फुले दंपति ने स्वयं संतान को जन्म देने की जगह एक अनजान स्त्री के बच्चे को गोद लेने का निर्णय लिया, अपने सिद्धांतों और विचारों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। ऐसा करके उन्होंने जाति, वंश, मातृत्व, पितृत्व इत्यादि के संबंध में प्रचलित रूढ़िवादी धारणाओं को खुलकर चुनौती दी।”[29]

यशवंत को ही फुले दंपति ने अपने पुत्र के रूप में पाला-पोसा और शिक्षित-दीक्षित किया। बाद में यशवंत डॉक्टर बने। यशवंत ने भी सामाजिक कार्यों में फुले दंपति का सहयोग किया। विधवा का पुत्र होने के चलते यशवंत की शादी होने में दिक्कतें आईं। 4 फरवरी, 1889 को उनका सत्यशोधक पद्धति से विवाह हुआ। ब्राह्मणवादी व्यवस्था जहाँ एक ओर महिलाओं को इंसानी दर्जा तक देने को तैयार न थी, वहीं दूसरी ओर वह अतिशूद्रों को भी इंसान नहीं मानती थी।

ब्राह्मणवादी पेशवाई शासन में अतिशूद्रों (अछूतों) की क्या स्थिति थी, इस संदर्भ में डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि “मराठों के देश में पेशवाओं के शासनकाल में अछूत को उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी, जिस पर कोई सवर्ण चल रहा हो; ताकि उसकी छाया पड़ने से हिन्दू अपवित्र न हो जाएँ। उनके लिए आदेश था कि वह एक चिन्ह या निशानी के तौर पर अपनी कलाई या गले में धागा बाँधे रहें, ताकि कोई हिन्दू ग़लती से उससे छू जाने पर अपवित्र न हो जाए। पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूतों के लिए यह आदेश था कि वे कमर में झाड़ू बाँधकर चलें, ताकि वे जिस ज़मीन पर पैर रखें, वह उसके पीछे बँधी झाड़ू से साफ़ हो जाए और उस ज़मीन पर पैर रखने से कोई हिन्दू अपवित्र न हो सके। पूना में हर अछूत के लिए ज़रूरी था कि वह जहाँ भी जाए, अपने गले में मिट्टी की हाँडी बाँधकर चले और जब थूकना हो, तो उसी में थूके, ताकि ज़मीन पर पड़े हुए अछूतके थूक पर अनजाने में भी किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र न हो जाए।”[30]

भले ही 1818 ई. में अंग्रेजों ने इस पेशवाई क़ानून का अंत कर दिया था, लेकिन समाज में अभी भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था क़ायम थी। इस व्यवस्था के तहत पानी पीने के हौजों से महार, चमार और माँग पानी नहीं भर सकते थे। तपती दोपहरी में वे कई बार पानी माँग-माँग कर थक जाते थे, लेकिन उन्हें एक घूँट पानी मिलना मुश्किल हो जाता था। फुले दंपति ने 1868 में अपने घर के पानी का हौज इन जातियों के लिए खोल दिया। उन्होंने घोषणा कर दी थी कि कोई भी, किसी भी समय यहाँ आकर पानी पी सकता है।[31]

जहाँ एक ओर जोतीराव फुले के पिता नहीं चाहते थे कि जोतीराव और उनकी पत्नी ‘अछूतों’ के लिए काम करें, वहीं दूसरी ओर सावित्रीबाई फुले के भाई भी नहीं चाहते थे कि उनकी बहन सावित्रीबाई और उनके बहनोई जोतीराव फुले ‘अछूतों’ के लिए काम करें। इस तथ्य का पता सावित्रीबाई फुले के पत्रों सेचलता है। ऐसा ही एक पत्र उन्होंने अपने मायके से जोतीराव फुले को लिखा था। 1868 में सावित्रीबाई गंभीर तौर पर बीमार पड़ीं। वे काफ़ी कमज़ोर हो गईं। वे कुछ दिनों आराम करने के लिए अपने मायके गईं। वहाँ भी उन्होंने लोगों की मदद करना और सामाजिक कार्यों में हिस्सेदारी करना जारी रखा। सावित्रीबाई के भाई इस बात को पसंद नहीं करते थे कि सावित्रीबाई और उनके पति ‘अछूतों’ के लिए काम करें।

मायके से सावित्रीबाई ने जोतीराव को कई पत्र लिखे। उसमें एक पत्र में अपने भाई के विचारों के बारे में वे लिखती हैं, “मायके में रहते हुए अक्सर भाई से आपके कामों के बारे में चर्चा होती रहती है। एक दिन उसने कहा कि ‘तुम्हे और तुम्हारे पति जोतिबा जी को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया है। क्योंकि, आप दोनों महार-माँग जैसे अस्पृश्यों के लिए काम करते हो, आपका यह कार्य पाप कार्य है। यह निकृष्ट कार्य करके तुम लोग पथभ्रष्ट हो गए हो। मैं तुम्हें और तुम्हारे पति जोतिबा को फिर से समझा रहा हूँ कि अपनी जाति-बिरादरी की परम्परा निभाते हुए, उनके बताए रास्ते पर चलना चाहिए। वे जैसा कहते हैं, हमें वैसा व्यवहार करना चाहिए। उनके बताए रास्ते पर चलना चाहिए। तुम लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि ब्राह्मण जो बात बताए और जो कहे, वही बात धर्मसम्मत मानकर हमें उसका अनुसरण करना चाहिए।”[32]

हालाँकि, सावित्रीबाई फुले ने अपने भाई को तथ्यपरक और तार्किक जवाब दिया। लेकिन, इससे यह तो पता चलता ही है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ‘अछूतों’ से घृणा करते थे, जिसका असर शूद्र जातियों (आज की पिछड़ी जातियों) पर भी था। सावित्रीबाई फुले को ‘अछूतों’ के लिए समाज के साथ अपने परिवार से भी संघर्ष करना पड़ा। वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के अन्य रूपों से संघर्ष करने के लिए जोतीराव फुले ने 1873 में ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था का निर्माण किया था। इस संस्था के संचालन में भी सावित्रीबाई फुले सक्रिय भूमिका निभाती थीं।

‘सत्यशोधक समाज’ शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करने के साथ ही अन्य सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी और सहयोग करता था। सन् 1876-77 में महाराष्ट्र में अकाल पड़ा। बड़ी संख्या में लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर रहे थे। सत्यशोधक समाज अकाल पीड़ितों को राहत पहुँचाने में लग गया। सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले दोनों अलग-अलग जगहों पर पीड़ितों की मदद कर रहे थे। फुले दंपति ने अकाल में अनाथ हुए बच्चों के लिए 52 स्कूल खोले। जिसमें बच्चों के रहने, खाने-पीने और पढ़ने का इंतज़ाम था।[33]

28 नवंबर 1890 को सावित्रीबाई फुले के जीवन-साथी और शिक्षक जोतीराव फुले का देहांत हो गया। दुःख की इस घड़ी में भी उन्होंने अद्वितीय साहस का परिचय दिया। श्मशान घाट में जब यह बहस शुरू हुई कि अंतिम संस्कार गोद लिए हुए पुत्र द्वारा किया जाना चाहिए या किसी रिश्तेदार द्वारा? तो सावित्रीबाई ने आगे बढ़कर यह कहा कि वे स्वयं अपने पति को मुखाग्नि देंगी और उन्होंने ऐसा किया भी। आज भी किसी हिन्दू पत्नी द्वारा अपने पति की चिता को अग्नि देना बहुत ही हिम्मत का काम माना जाता है। आज से सवा सौ साल पहले सावित्रीबाई ने यह कर दिखाया था। इस घटना से समाज में मानो भूचाल-सा आ गया। इससे यह पता चलता है कि सावित्रीबाई की सोच कितनी स्वतंत्र और मौलिक थी और वे अपने विचारों और सिद्धांतों को अपने व्यक्तिगत जीवन में भी लागू करती थीं।[34]

जोतीराव फुले की मृत्यु के बाद सत्यशोधक समाज की बागडोर सावित्रीबाई फुले के हाथों में सौंपी गई। 1891 से लेकर 1897 तक उन्होंने इसका नेतृत्व किया। सन् 1893 में पुणे के निकट सासबड़ में सावित्रीबाई फुले की अध्यक्षता में सत्यशोधक समाज का वार्षिक अधिवेशन संपन्न हुआ। जोतीराव फुले के निकटतम सहयोगी महाघट पाटिल ने उनके प्रथम स्मृति दिवस के अवसर पर सन् 1891 में फुले का पहला जीवन चरित्र प्रकाशित किया था। यह पुस्तक उन्होंने सावित्रीबाई फुले को अर्पित करते हुए कहा कि “आज जोतिबा हमारे बीच नहीं हैं। उनके कार्य की सम्पूर्ण जिम्मेदारी जब वे जीवित थे, तभी से सावित्रीबाई ने संभाली है। आज (उनके निधन के बाद) सत्यशोधक समाज की सम्पूर्ण जिम्मेदारी उन्होंने ख़ुद ही उठाई है। यह किताब मैं उनको समर्पित करता हूँ।”[35]

1891 में सावित्रीबाई फुले की कविताओं का दूसरा संग्रह ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ प्रकाशित हुआ। यह बावन कविताओं का संग्रह है। इसे उन्होंने जोतीराव फुले की याद में लिखा है और उन्हीं को समर्पित किया है। यह संग्रह उन्होंने 1891 में पूरा किया था। उन्होंने इस संग्रह के सन्दर्भ में लिखा है कि “1891 चैत्र शुक्ल 15 यानि पूर्णिमा के दिन 1891 की रात के 2 बजकर 20 मिनट पर यह बावन कविताओं का संग्रह जोतिबा फुले की याद में उनको समर्पित करते हुए पूरा हुआ।”[36]

दो कविता संग्रहों के अतिरिक्त, सावित्रीबाई फुले ने जोतीराव फुले के चार भाषणों का सम्पादन भी किया। ये चारों भाषण भारतीय इतिहास पर हैं। सावित्रीबाई फुले के भाषण भी 1892 में प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे पत्र भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ये पत्र उस समय की परिस्थितियों, लोगों की मानसिकता, फुले के प्रति सावित्रीबाई की सोच और उनके विचारों को सामने लाते हैं।

1896 में एक बार फिर पूना और आस-पास के क्षेत्रों में अकाल पड़ा। सावित्रीबाई फुले ने अकाल पीड़ितों को मदद पहुँचाने के लिए दिन-रात एक कर दिया। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि वह अकाल पीड़ितों को बड़े पैमाने पर राहत सामग्री पहुंचाए। शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की शिक्षिका और पथ-प्रदर्शक माँ सावित्रीबाई का जीवन अन्याय के ख़िलाफ़ अनवरत संघर्ष करते और न्याय कीस्थापना के लिए बीता। उनकी मृत्यु भी समाज सेवा करते हुए हुई। 1897 में प्लेग की वज़ह से पूना में महामारी फैल गई। वे लोगों की चिकित्सा और सेवा में जुट गईं। बाद में स्वयं भी इस बीमारी का शिकार हो गईं। 10 मार्च, 1897 को उनका देहांत हुआ। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके कार्य और विचार मशाल की तरह भारत के बहुजन समाज को रास्ता दिखा रहे हैं।

[1] निर्णयसिन्धु, पृ. 249

[2] स्वामी विद्यानंद सरस्वती, वेद मीमांसा, दिल्ली, 1984, पृ. 230, 233

[3] डॉ. आंबेडकर, प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति, अनुवाद और सम्पादक : डॉ. सुरेंद्र अज्ञात, सम्यक प्रकाशन, 2012, पृ. 224

[4] वही, पृ. 219

[5] मनुस्मृति, 5.154

[6] महाभारत व्यवहारकांड 1.2, पृ.1030

[7] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक : पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी, डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, 2017, पृ. 6

[8] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतिबा फुले, डॉ. मु.ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 20

[9] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक : पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी, डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, 2017, पृ. 7

[10] सावित्रीबाई फुले की कविताएं, सम्पादक : अनिता भारती, अनुवाद : शेखर पवार और फ़ारूक़ शाह, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 38

[11] एक भूली-बिसरी समाज सुधारक, सावित्रीबाई फुले का जीवन और संघर्ष, सम्पादक : ब्रजरंजन मणि, पैमिला सरदार, पृ. 44, 56

[12] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक : पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी, डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, 2017, पृ. 9

[13] एक भूली-बिसरी समाज सुधारक, सावित्रीबाई फुले का जीवन और संघर्ष, सम्पादक : ब्रजरंजन मणि, पैमिला सरदार, पृ.46

[14] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी, डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, 2017 , पृ. 9

[15] सावित्रीबाई फुले की कविताएं, सम्पादक : अनिता भारती, अनुवाद : शेखर पवार और फ़ारूक़ शेख, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली 2015, पृ. 91

[16] वही, पृ. 79

[17] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी, डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, 2017 पृ. 9

[18] वही, पृ. 9

[19] सावित्रीबाई फुले की कविताएं, सम्पादक : अनिता भारती, अनुवाद : शेखर पवार और फ़ारूक़ शेख़, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली 2015, पृ. 53

[20] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतिबा फुले, डॉ. मु.ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 25

[21] वही, पृ. 25

[22] वही, पृ. 25

[23] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी, डॉ. आंबेडकर कालेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, 2017, पृ. 10

[24] वही, पृ.10

[25] वही, पृ.10

[26] सावित्रीबाई फुले की कविताएं, सम्पादक : अनिता भारती, अनुवाद : शेखर पवार और फ़ारूक़ शेख़, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली 2015, पृ. 41

[27] काव्य फुले, सावित्री जोतिराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी, डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, पृ. 12

[28] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतिबा फुले, डॉ. मु.ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 31

[29] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक : पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी, डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, पृ.12,13

[30] जाति का विनाश व भारत में जातियां : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास, डॉ. भीमराव आंबेडकर, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2018, पृ. 41,42

[31] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतिबा फुले, डॉ. मु.ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 32

[32] सावित्रीबाई फुले रचना समग्र, सम्पादक : रजनी तिलक, द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, 2017, पृ. 103

[33] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, सम्पादक : ललिता धारा, प्रकाशक : पीपुल्स एजुकेशनसोसायटी, डॉ. आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, पृ. 14

[34] वही

[35] महात्मा फुले : साहित्य और विचार, सम्पादक : हरि नरके, महात्मा फुले चरित्र साधने समिती, महाराष्ट्र शासन, द्वारा उच्च व तंत्रशिक्षा विभाग, मंत्रालय मुंबई, 1993, पृ. 44, 45

[36] सावित्रीबाई फुले रचना समग्र, सम्पादक : रजनी तिलक, द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, 2017, पृ. 96

( डॉ. सिद्धार्थ की किताब ‘सामाजिक क्रांति की योद्धा: सावित्रीबाई फुले’ किताब के कुछ अंश)

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