कंप्रोमाइज्ड न्यायपालिका?

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न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता बीती रात उस समय तार-तार हो गयी जब राष्ट्रपति ने अधिसूचना जारी करके अवकाश ग्रहण के छह माह के भीतर पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिया। जस्टिस गोगोई के राज्यसभा में मनोनयन के बाद न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेकर जो सवाल पिछले कम से कम तीन मुख्य न्यायाधीशों जस्टिस खेहर, जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस रंजन गोगोई के कार्यकाल से उठ रहा था उसकी पुष्टि हो गयी। कहा जाता है कि हमने तो तुम्हें झुकने को कहा था, पर तुम तो दंडवत हो गये। न्यायपालिका की हालत यही हो गयी है।

दरअसल इसकी शुरुआत तो तत्कालीन चीफ जस्टिस सदाशिवम के अवकाश ग्रहण करने के बाद केरल का राज्यपाल बनाने के साथ ही हो गयी थी सितंबर 2014 में सरकार ने पूर्व चीफ जस्टिस पलानी स्वामी सदा शिवम को केरल का नया राज्यपाल नियुक्त किया था। 65 वर्षीय सदा शिवम चीफ जस्टिस रह चुके पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें इस पद पर नियुक्त किया गया था  जो वरीयता में सीजेआई से नीचे था। 

सदाशिवम अप्रैल 2014 में सीजेआई पद से सेवानिवृत्त हुए थे।सदा शिवम सुप्रीम कोर्ट की उस पीठ में थे जिसने फर्जी मुठभेड़ मामले में शाह के खिलाफ दूसरी एफआईआर को रद्द कर दिया था। पीठ ने कहा था कि यह सोहराबुद्दीन शेख हत्या के बड़े मामले से जुड़ा हुआ है और इसे अलग किए जाने की आवश्यकता नहीं है। साथ ही सदाशिवम ने पंजाब के कुछ आतंकियों और राजीव हत्याकांड के दोषी आरोपियों की फांसी की सजा उम्र कैद में बदल दी थी।

उच्चतम न्यायालय के इतिहास में पहली बार चार जजों, पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन जोसेफ़ ने अप्रत्याशित प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी। चारों जजों ने तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर सवाल उठाए थे और कहा था कि महत्वपूर्ण केसों का आवंटन सही तरीक़े से नहीं किया जा रहा है। उनका इशारा चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और सरकार के बीच संबंधों की ओर था। जस्टिस गोगोई अगले चीफ जस्टिस बनने की कतार में थे। 

इस कारण तब जस्टिस रंजन गोगोई में एक अलग ही उम्मीद की किरण दिखी और जब वह चीफ़ जस्टिस बने तो लगा कि न्यायपालिका में काफ़ी कुछ बदलने वाला है।लेकिन वे सरकार के सामने न केवल दंडवत हो गए बल्कि जस्टिस दीपक मिश्रा की तर्ज़ पर उन्हीं बेंचों में महत्वपूर्ण केसों का आवंटन करना ज़ारी रखा जो सरकार के माफिक थे।यही नहीं जस्टिस गोगोई के कार्यकाल में संघी पृष्ठभूमि के लोगों की न केवल उच्च न्यायालयों में नियुक्तियां हुईं बल्कि उच्चतम न्यायालय में भी उनकी पदोन्नति हुई।

चार जजों में शामिल जस्टिस मदन बी लोकुर ने पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की राज्यसभा के सदस्य के रूप में नियुक्ति के बाद कहा कि कुछ समय से अटकलें लगाई जाती रही हैं कि जस्टिस गोगोई को क्या सम्मान मिलेगा। तो, उस अर्थ में नामांकन आश्चर्यजनक नहीं है, लेकिन जो आश्चर्य की बात है वह यह है कि यह इतनी जल्दी हो गया। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को पुनर्परिभाषित करता है। क्या आख़िरी क़िला भी ढह गया है?

पिछले साल मार्च में जजों की सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति पर सवाल खड़े करने के मामले में जो अर्ध-न्यायिक ट्रिब्यूनलों से जुड़े क़ानूनों और 18 याचिकाओं से सम्बन्धित था तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था, ‘एक दृष्टिकोण है कि सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति न्यायपालिका की न्यायिक स्वतंत्रता पर एक धब्बा है। आप इसे कैसे संभालेंगे।’

भारतीय संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश घोषित करता है, लेकिन जमीनी हकीकत बहुत अलग हो गई है, जिसमें शासक हिंदुत्व की विचारधारा बन गयी है। उच्चतम न्यायालय इस पर अंकुश लगा सकता था लेकिन उच्चतम न्यायालय ने भाजपा सरकार के सामने समर्पण कर दिया, जैसा कि इससे अयोध्या के फैसले से स्पष्ट है। उच्चतम न्यायालय ने बाबरी विध्वंस को  प्रकारांतर से मान्यता दे दी। 

इसी तरह बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कुरैशी को मप्र उच्च न्यायालय के बजाय त्रिपुरा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की अपनी सहमति, जिसके लिए उन्हें कॉलेजियम द्वारा पहले सिफारिश की गई थी, जाहिर है कि सरकार के दबाव में की गयी थी क्योंकि वह एक मुस्लिम हैं और आज जैसा मध्यप्रदेश में चुनी हुई सरकार को विधायकों की खरीद-फरोख्त से गिराने का प्रयास चल रहा है उसकी योजना भाजपा के कर्णधारों की पहले से थी, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के रूप में कुरैशी बाधा बन सकते थे। 

यानि दूर दृष्टि पक्का इरादा । संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी के बावजूद कश्मीर में अलोकतांत्रिक ढंग से फारूक अब्दुल्ला और अन्य कश्मीरी नेताओं की गिरफ्तारी पर हस्तक्षेप से इंकार करके उच्चतम न्यायालय ने संविधान की धज्जियां उड़ा दीं। दुर्भाग्य से यह सब तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के कार्यकाल में हुआ।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)  

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