भारत के संविधान बनने के समय से ही भारत का भाषा का प्रश्न जटिल, गंभीर, सांस्कृतिक, राजनीतिक, और आर्थिक प्रश्न रहा हैI संविधान सभा के अनेक सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा यानि National Language, घोषित करवाना चाहते थे। लेकिन संविधान सभा के अनेक सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहते थेI
नई शिक्षा नीति-2020 के तहत देश के सभी राज्यों में त्रि-भाषा सूत्र लागू हो पाएगा या नहीं इस पर इन दिनों बहस तेज है। केंद्र सरकार तमिलनाडु पर तीन भाषाएँ पढ़ाने का दवाब बनाने के लिए उसे मिलने वाला जायज फण्ड रोककर उसकी बांह मरोड़ रही हैI
तमिलनाडु और दक्षिण भारत के कुछ और राज्यों का आरोप है कि त्रि-भाषा सूत्र के जरिए केंद्र सरकार उन पर हिंदी थोपना चाहती है। उत्तर भारत द्वारा देश के सभी लोगों पर हिंदी थोपने का आरोप क्या बे-बुनियाद है?
त्रि-भाषा सूत्र पर आगे बढ़ने से पहले आए इस आरोप का इतिहास समझ लेते हैं।
13 सितंबर 1949 को संविधान सभा में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में अपने द्वारा पेश किए गए बिल पर बोलते हुए आर. वी. धूलेकर ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का विरोध करने वालों की देशभक्ति और नागरिकता पर व्यंग्य करते हुए कहा कि-मैं हिंदी को राजभाषा मानता हूँ और राष्ट्रभाषा भी मानता हूँ। धूलेकर ने कहा कि जिन्हें इसके राष्ट्रभाषा होने पर आपत्ति है वे किसी दूसरे राष्ट्र से संबंधित होंगेI उन्होंने कहा कि वे भारतीय राष्ट्र, हिंदी राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र, हिंदुस्तानी राष्ट्र से संबंधित हैंI अपने संबोधन में धूलेकर ने यह भी कहा कि संस्कृत अंतर्राष्ट्रीय भाषा है और हिंदी राष्ट्र भाषा हैI
संविधान सभा में ऐसे सदस्य भी थे जो भारतीय राष्ट्र और हिंदू राष्ट्र को समानार्थी मानते थे और हिंदी को, हिंदू राष्ट्र बनाने का जरिया बनाना चाहते थे।
ऐसे सदस्य हिंदी का उपयोग करके भारतीय राष्ट्र को एक धार्मिक देश में रूपांतरित करने का सपना देख रहे थे।
संविधान सभा में मौजूद ऐसे लोगों की वजह से भी भारत के अन्य क्षेत्रों के सदस्यों और लोगों के मन में हिंदी के प्रति भय का मनोविज्ञान विकसित हुआI क्योंकि अब हिंदी को lingua franca के तौर पर देखने की बजाय एक खास तरह की सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं को देश भर पर लाद देने का माध्यम बनाने का प्रयास हो रहा था।
इसलिए दक्षिण भारत का यह कहना कि हिंदी उन पर थोपी जा रही है, कोई मनगढ़ंत आरोप नहीं है। इस आरोप को सत्यापित करने के सबूत इतिहास और वर्तमान, दोनों काल खंडों में मिल जाते हैं।
(“Shri R. V. Dhulekar : I say it is the official language and it is the national language. You may demur to it. You may belong- to another nation but I belong to Indian nation, the Hindi Nation, the Hindu Nation, the Hindustani Nation. I do not know why you say it is not the National Language. Some of you want that Sanskrit be the national language-I may say Sanskrit is the international language-it is the language of the world. There are four thousand roots in Sanskrit language. Sanskrit is the root of all roots. Sanskrit is the language of the whole world. And you will see that some day when Hindi becomes the official and national language, Sanskrit will become the language of the world.”
त्रि–भाषा सूत्र
स्कूलों में कौन सी भाषा पढ़ाई जाए या कौन-कौन सी भाषाएं पढ़ाई जाएं इस विषय पर आजकल फिर से बहस तेज हो गई है। पेच त्रि-भाषा सूत्र को मानने और न मानने पर भी फंसा हुआ है। केंद्र सरकार की नीति है कि देश के सभी राज्यों को अपने स्कूलों में कक्षा 6 से 8 तक तीन भाषाएँ पढ़ानी हैं I लेकिन तमिलनाडु तीन भाषाओं को पढ़ाने की बाध्यता से उसे मिली छूट को जारी रखने की मांग कर रहा है। तमिलनाडु का कहना है कि उनकी दो भाषाओं को पढ़ाने की नीति ही अधिक तार्किक और प्रभावी है। तमिलनाडु सरकार का कहना है कि देश भर के तमाम राज्यों से कोई त्रि-भाषा सूत्र के प्रभावी होने का सबूत उनके सामने पेश कर दे तो वे अपनी दो-भाषा की नीति पर पुनर्विचार करने के लिए शायद तैयार हो सकते हैं। उनका कहना यह है कि राज्य की आर्थिक सीमाओं के भीतर दो भाषाओं को पढ़ाने की उनकी नीति ज्यादा सफल रही है।
एक प्रश्न यह उठता है कि त्रि-भाषा सूत्र शिक्षाशास्त्रीय सूत्र है या राजनीतिक सूत्र ?
त्रि-भाषा सूत्र के केंद्र में बच्चों की मानसिक और शैक्षिक जरूरतों की बजाय राज्य की राजनीतिक जरूरतों का ख्याल रखा गया है। इस तथ्य का सबसे पुख्ता उदाहरण तो यह है कि इस सूत्र में मातृभाषा का स्थान या तो है ही नहीं या उसका जिक्र भर हैI
उत्तराखंड की भाषा–नीति: संस्कृत पढ़ाने की मूर्खता
उदाहरण के लिए भारत के तथाकथित हिंदी-पट्टी में आने वाले राज्यों को देखिएI इन राज्यों में लोगों के द्वारा बोली जाने वाली सैकड़ों मातृभाषाएं हैं, लेकिन हिंदी के जरिए उन तमाम मातृभाषाओं को बेदखल कर दिया गया हैI हालाँकि त्रि-भाषा सूत्र में हिंदी के अनिवार्य होने की बात कहीं नहीं लिखी गयी हैI
अगर इस बात को और भी ज्यादा ठोस बनाए तो हम उत्तराखंड का उदाहरण ले सकते हैंI उत्तराखंड में गढ़वाली, कुमाऊनी, जौनसारी, नेपाली, जाड़, आदि अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन उत्तराखंड के स्कूली पाठ्यक्रम में इनमें से कोई भी भाषा नहीं पढ़ाई जाती। जबकि यही भाषाएं हैं जो उत्तराखंड के लोगों की, उत्तराखंड के बच्चों की मातृभाषाएं हैं। जबकि मिनिस्ट्री ऑफ़ होम अफेयर्स की language atlas of India – 2011 के अनुसार 2011 की जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से एक करोड़ की आबादी वाले उत्तराखंड में 25 लाख लोग गढ़वाली बोलते हैं और 21 लाख लोग कुमाऊनी बोलते हैं। ( Language Atlas of India- 2011. p. 199) I यानि उत्तराखंड की आधी आबादी गढ़वाली और कुमाऊनी भाषा बोलती हैI लेकिन उत्तराखंड राज्य कि आधी आबादी के द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को वहाँ के पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया गया है।
चलते-चलते उत्तराखंड राज्य की शिक्षा नीति के बारे में एक तथ्य और बता देना आवश्यक है। उत्तराखंड के सरकारी स्कूलों में कक्षा 3 से हिंदी और अंग्रेजी के साथ–साथ संस्कृत भी पढ़ाई जाती है। पूरे देश में त्रि-भाषा सूत्र कक्षा 6 से लागू होता है, लेकिन उत्तराखंड में यह कक्षा तीन से लागू किया गया है। उत्तराखंड और भारत में स्कूली शिक्षा के संदर्भ में संस्कृत-शिक्षण का मामला बेहद ही रोचक होने के साथ-साथ हास्यास्पद भी है।
मिनिस्ट्री ऑफ़ होम अफेयर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में केवल 386 लोग संस्कृत बोलते हैं I ( Language Atlas of India- 2011. p. 58) I यानि उत्तराखंड की आबादी का 0% लोग संस्कृत बोलते हैं I अब आप ही बताइए कि जिस भाषा को बोलने वालों का प्रतिशत जीरो है उस भाषा की शैक्षणिक महत्त्व क्या है? उसे भाषा में विद्यार्थी न तो प्राथमिक अनुभव लेते हैं और न ही उस भाषा के जरिए द्वितीयक अनुभव लेने की कोई संभावना है। विद्यार्थी संस्कृत के जरिए न तो कोई अनुभव लेते हैं और न ही इसके जरिये वे दूसरे के अनुभवों को पढ़-सुनकर उनसे लाभ ले पाते हैं।
उत्तराखंड राज्य ने तो संस्कृत को अपनी ऑफिशल लैंग्वेज घोषित किया हुआ हैI ऑफिशल लैंग्वेज का एक सामान्य सा अर्थ यह है कि उसके जरिए राज्य सरकार अपना शासन चलाएगी I क्या उत्तराखंड की सरकार संस्कृत के जरिए अपना शासन चला सकती है? क्या उत्तराखंड की सरकार राज्य की विधानसभा की कार्रवाई संस्कृत में चला सकती है? क्या उत्तराखंड की सरकार राज्य के शासनादेश संस्कृत में जारी कर सकती है? क्या उत्तराखंड की सरकार राज्य की उपलब्धियां को बताने वाले विज्ञापन संस्कृत में लगवा सकती है? हम जानते हैं कि इन सभी सवालों का उत्तर ना हैI
फिर उत्तराखंड की सरकार ने कक्षा तीन से संस्कृत को अनिवार्य विषय के रूप में क्यों लागू किया है और उत्तराखंड की सरकार ने संस्कृत को ऑफिशल लैंग्वेज क्यों बनाया है? इस तरह के सवालों का उत्तर राज्य में ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता को स्थापित करने की मानसिकता में खोजा जा सकता है।
अब बात करें भारत में संस्कृत बोलने वालों की तो मिनिस्ट्री आफ होम अफेयर्स की रिपोर्ट के अनुसार पूरे भारत में संस्कृत बोलने वालों की संख्या केवल 25 हज़ार है I 145 करोड़ की आबादी वाले देश में संस्कृत बोलने वालों की संख्या केवल और केवल 25 हज़ार है I (Language Atlas of India- 2011. p. 199) I अगर इसे प्रतिशत में गिना जाए तो ये जीरो प्रतिशत के करीब आता हैI
इसलिए त्रि-भाषा सूत्र के अंतर्गत, उत्तर भारत के स्कूलों में संस्कृत का पढ़ाया जाना जरा भी शैक्षिक महत्त्व नहीं रखता, संस्कृत पढाए जाने का केवल राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व की दृष्टि से ही महत्त्व है।
तमिलनाडु से सवाल क्यों
अनेक लोग तमिलनाडु से यह सवाल पूछ रहे हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में यह कहां लिखा है कि तमिलनाडु में हिंदी को अनिवार्य किया जाएगाI उस नीति में लिखा तो यह भी नहीं लिखा हुआ है कि उत्तर भारत के स्कूलों में संस्कृत को अनिवार्य बनाया जाएगाI लेकिन व्यावहारिक तौर पर संस्कृत को अनिवार्य बना दिया गया है। जैसे मातृभाषा या प्रथम भाषा के तौर पर हिंदी को अनिवार्य बना दिया गया है। कोठारी कमीशन में यह मान लिया गया कि उत्तर भारत के सभी राज्यों में रहने वाले लोगों की पहली भाषा हिंदी हैI कोठारी कमीशन के अनुसार बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और एंड कश्मीर, राजस्थान आदि राज्यों में सभी बच्चों की पहली भाषा हिंदी हैI इस तरह त्रि-भाषा सूत्र के माध्यम से उत्तर भारत के लोगों की मातृभाषाओं को नकारा गयाI
इसलिए तमिलनाडु का यह शक सही है कि जो काम हिंदी ने हिंदी पट्टी की भाषाओं के साथ किया, वही काम हिंदी के जरिए दक्षिण भारत की भाषाओं के साथ किया जा सकता है।
कोठारी आयोग का पूर्वाग्रह
जब भी त्रि-भाषा सूत्र पर बहस होती है तो 1966 के कोठारी कमीशन का जिक्र जरूर किया जाता है। आमतौर पर कोठारी कमीशन का इस्तेमाल यह समझने और समझाने के लिए किया जाता है कि हिंदी और अ-हिंदी भाषी क्षेत्र में त्रि-भाषा सूत्र के अंतर्गत कौन-कौन सी भाषाएँ पढाई जाएँगी। लेकिन मैं आपको इस कमीशन की एक ऐसी शिफारिश के बारे में बताऊंगा जिससे आपको हिंदी और अ-हिंदी भाषी क्षेत्रों में भाषाओं को पढ़ाए जाने के एक कारक के बारे में पता चलेगा I वह कारक है “मोटिवेशन” I
कोठारी कमीशन की सिफारिश है कि हिंदी-भाषी क्षेत्रों के विद्यार्थियों से जब किसी तीसरी भाषा को चुनने के लिए कहा जाए तब उनके पास उस भाषा को चुनने का विकल्प होना चाहिए जिस भाषा के प्रति उनमें सहज मोटिवेशन हो। कोठारी कमीशन के सिफारिश है कि त्रि-भाषा सूत्र के अंतर्गत हिंदी-भाषी क्षेत्रों के विद्यार्थियों को उस भाषा को चुनने के लिए न कहा जाए जिस भाषा के प्रति उनमें मोटिवेशन नहीं है।
कोठारी कमीशन के पेरा 8.37 में लिखा गया है कि – “… the pupils in the Hindi areas will study Hindi, English and a modern Indian language, while the vast majority of pupils in non- Hindi areas will learn the regional language, Hindi and English.” यानि हिंदी-भाषी क्षेत्रों के विद्यार्थी हिंदी और इंग्लिश के साथ आधुनिक भारतीय भाषाओं में से किसी एक भाषा को पढेंगे I जबकि अ-हिंदी भाषी क्षेत्रों के विद्यार्थी क्षेत्रीय-भाषा के साथ हिंदी और अंग्रेजी पढेंगे I
कमीशन ने अपने इसी पेरा में आगे लिखा है कि – “In the selection of the modern Indian language in Hindi speaking areas, the criterion should be the motivation of the pupils for studying that language.” यानि हिंदी-भाषी क्षेत्रों में आधुनिक भारतीय भाषा के चयन में, मानदंड उस भाषा को सीखने के लिए विद्यार्थियों में मोटिवेशन होना चाहिए।
लेकिन आयोग ने अ-हिंदी भाषा क्षेत्रों के लिए तीसरी भाषा के चयन में विद्यार्थियों में उस भाषा के प्रति मोटिवेशन के होने को महत्त्व नहीं दिया है।
तीसरी भाषा का चुनाव करने के लिए कोठारी आयोग उत्तर भारत के लोगों के मोटिवेशन को केंद्र में रख रहा है लेकिन अ-हिंदी भाषी क्षेत्रों पर हिंदी “थोप” रहा है I उसने अ-हिंदी भाषी क्षेत्रों के संदर्भ में motivation को तीसरी भाषा के चुनाव का आधार नहीं बनाया है I क्या कोठारी आयोग की इस सिफारिश को पूर्वाग्रह से ग्रस्त माना जा सकता है?
तीन भाषाएँ पढ़ाने का प्रभाव और बहुभाषिकता का भ्रम
स्कूलों में तीन भाषाओं को पढाए जाने का मूल्यांकन इस बात पर भी किया जाना चाहिए कि उन भाषाओं को पढ़ाने का वास्तविक प्रभाव कितना है?
क्या भारत में तीन भाषाएँ जानने वाले लोग पर्याप्त संख्या में है? यह बात सच है कि भारत एक मल्टीलिंगुअल देश है। लेकिन क्या भारत के लोग भी मल्टीलिंगुअल हैं? अब मैं बारी-बारी से इन दो सवालों का उत्तर देने की कोशिश करूंगाI
पहला सवाल यह है कि क्या त्रि-भाषा सूत्र एक प्रभावकारी सूत्र साबित हुआ है? त्रिभाषा सूत्र के प्रभाव कार्य होने का पता इस बात से चलना चाहिए कि जिन विद्यार्थियों ने स्कूलों में तीन भाषाएँ सीखी हैं उन्होंने उन तीनों भाषाओं में बुनियादी दक्षताएँ हासिल कर ली हैं I यानि वे उन भाषाओं में कही गयी बात को सुनकर और पढ़कर समझ सकते/ सकती हैं और उन भाषाओं में बोलकर और लिखकर अपनी बात को व्यक्त कर सकते/सकती हैंI
लेकिन, क्या वे ऐसा कर पाते हैं?
यदि आप 2024 की ASER (Rural) की रिपोर्ट का अध्ययन करें तो आपको पता चलेगा कि त्रि-भाषा सूत्र कहीं से भी अपना सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ पाया हैI भारत में एक भी राज्य ऐसा नहीं है जिसके ग्रामीण क्षेत्रों के आठवीं कक्षा के सभी बच्चे दूसरी कक्षा की भाषा की किताब को पढ़ सकेंI आठवीं के बहुत से बच्चे, दूसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ सकतेI
असम और उत्तर प्रदेश दो ऐसे राज्य हैं जिनके आठवीं कक्षा के करीब 40% बच्चे दूसरी कक्षा की भाषा की किताब को नहीं पढ़ सकते। जम्मू और कश्मीर के आठवीं कक्षा के 45% बच्चे दूसरी कक्षा की भाषा की किताब को नहीं पढ़ सकते।
अब थोड़ी से बात अंकगणित की कर लेते हैंI
मिजोरम और पंजाब को छोड़कर किसी भी राज्य के 8 वीं कक्षा के 50% बच्चे भाग तक नहीं कर सकतेI
केवल मिजोरम एक अकेला राज्य है जिसके तीसरी कक्षा के 50% से ज्यादा बच्चे कम-से-कम घटा के आसान सवाल कर लेते हैंI
उत्तराखंड में सरकारी स्कूलों के तीसरी कक्षा के करीब 36 प्रतिशत विद्यार्थी ही कक्षा-2 की हिंदी कि किताब पढ़ पाते हैं। उत्तराखंड में तीसरी कक्षा के 64% विद्यार्थी दूसरी कक्षा का हिंदी का टेक्स्ट नहीं पढ़ सकते। उत्तराखंड राज्य के पास बच्चों को हिंदी सीखने के संसाधन कम पड़ रहे हैं और पहले से ही सीमित संसाधनों के रहते उसने सरकारी स्कूलों में तीसरी से संस्कृत पढ़ाने की नीति को भी लागू कर दिया है। यहां पर एक बार फिर से याद दिलाना जरूरी है कि उत्तराखंड के प्राइवेट स्कूलों में, तीसरी कक्षा से नहीं बल्कि छठी कक्षा से संस्कृत पढ़ाई जाती है। प्राइवेट स्कूल्स अपने संसाधन दो भाषा सीखने पर खर्च कर रहे हैं, जबकि सरकार अपने संसाधन तीन भाषाएं सीखने पर जाया कर रही हैI इसी को, कोढ़ पर खाज का होना कहते हैं।
अब यहां से बात करते हैं बहुभाषिकता पर। भारत एक बहुभाषिक देश है, लेकिन क्या यहां के लोग भी बहुभाषिक हैं। और अगर हैं तो किन राज्यों के लोग नयी भाषाएं सीखने के अधिक तैयार हैं और किन राज्यों के लोग नई-नई भाषाएं सीखने से अपने आप को दूर रखते हैं।
इस सवाल का उत्तर देने के लिए मैं भारत सरकार कि एक रिपोर्ट का सहारा लूँगा I उस रिपोर्ट का नाम है – Language Atlas of India – 2011.
इस रिपोर्ट में दिये गये आंकड़ों कि मदद से दो सवाल का उत्तर दूंगा-
प्रश्न: भारत के किन राज्यों में बाईलिंगुअल लोगों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है?
उत्तर: 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में गोवा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, और नागालैंड चार ऐसे राज्य हैं जिनमें दो भाषाएँ बोलने में लोगों का प्रतिशत 60 से 80% तक है। गोवा में 77% अरुणाचल प्रदेश में 64% सिक्किम में 64% और नगालैंड में 62% लोग दो भाषाएं बोलते हैं I
प्रश्न: भारत के किन राज्यों में बाईलिंगुअल लोगों का प्रतिशत सबसे कम है ?
उत्तर: भारत में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, और राजस्थान तीन ऐसे राज्य हैं जिनमें बाइलिंगुअल लोग 15% से भी कम हैI
इस आंकड़े से साफ पता चलता है कि हिंदी पट्टी के लोगों की रुचि हिंदी के अलावा किसी भी अन्य भाषा को सीखने में नहीं हैI
इन आंकड़ों पर एक किस्सा याद आ गया I एक आदमी बीच सड़क पर कच्छे-बनियान पहनकर खड़ा था और पेंट-कमीज पहने लोगों को नंगा बता रहा था I यही हाल हिंदी-पट्टी के लोगों का हैI वे खुद तो भारत की भाषाएँ सीखना नहीं चाहते, लेकिन नॉन-हिंदी बेल्ट के लोगों के बारे में कहते फिरते हैं कि वे नयी भाषा नहीं सीखना चाहतेI
(बीरेंद्र सिंह रावत शिक्षा विभाग, दिल्ली-विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं)
Links:
1. Constituent Assembly Debates On 13 September, 1949 Part I. https://indiankanoon.org/doc/1234021/
- Kothari Commission. https://archive.org/details/ReportOfTheEducationCommission1964-66D.S.KothariReport/page/n207/mode/2up?view=theater
- ASER Report (Rural) – 2024. https://asercentre.org/wp-content/uploads/2022/12/ASER_2024_Final-Report_25_1_24.pdf
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