पश्चिम एशिया में चल रहे युद्ध में सितंबर के दूसरे पखवाड़े में समीकरण नाटकीय रूप से बदले। निर्विवाद है कि इस अवधि में इजरायल ने बाजी पलट दी। सितंबर के पहले पखवाड़े तक सूरत यह थी कि इजरायल घिरा नज़र आता था। गज़ा में उसके जारी नरसंहार से पास-पड़ोस में असीम आक्रोश था।
उधर ‘प्रतिरोध की धुरी’ (Axis of Resistance) की war of attrition (युद्ध संघर्षण) रणनीति कामयाब नजर आती थी। war of attrition का अर्थ ऐसी जंग से समझा जाता है, जिसमें लंबी लड़ाई की रणनीति अपनाई जाती है। उस दौरान छोटे हमले जारी रखे जाते हैं, लेकिन खुल कर युद्ध यानी all-out war नहीं होता।
मकसद होता है, धीरे-धीरे दुश्मन की क्षमता को क्षीण करना, जिससे एक बिंदु पर जाकर पर वह समर्पण कर दे। अक्सर अपेक्षाकृत कमजोर ताकतें मजबूत प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ यह रणनीति अपनाती हैं।
साल भर से (सात अक्टूबर 2023 को हमास के हमलों के साथ मौजूदा युद्ध शुरू हुआ था) जारी युद्ध के दौरान war of attrition की रणनीति खासी कामयाब साबित हुई। इस दौरान इजरायल की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई और उसके मनोबल पर बहुत खराब असर पड़ा।
हकीकत यह है कि अमेरिका से वित्तीय और हथियारों की लगातार मदद नहीं मिलती, तो इजरायल की अंदरूनी व्यवस्था इस अवधि में ढह चुकी होती। इस सिलसिले में यह भी उल्लेखनीय है कि इस वक्त इजरायल के अंदर अभूतपूर्व सियासी बंटवारा और टकराव है।
प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की अलोकप्रियता चरम पर है।
इन स्थितियों में नेतन्याहू ‘प्रतिरोध की धुरी’ के खिलाफ all-out war के लिए बेसब्र होते गए, तो यह बात समझी जा सकती है। उनके इस आकलन में दम है कि सिर्फ इसी तरीके से इजरायल अपना अस्तित्व बचा सकता है और वे अपना सियासी वजूद बचा सकते हैं।
मगर दो हफ्ते पहले तक all-out war के अपने खतरे थे। लेबनान स्थित हिज्बुल्लाह पिछले चार दशक में एक मजबूत अर्ध-सैनिक शक्ति बन कर उभरा है। 2006 के युद्ध में उसने इजरायल को बराबरी पर रोक लिया था, जिसे हिज्बुल्लाह की नैतिक जीत माना गया।
अब मारे जा चुके हिज्बुल्लाह प्रमुख हसन नसरुल्लाह अपने समूह को पश्चिम एशिया की एक प्रमुख सैनिक एवं राजनीतिक इकाई में तब्दील करने में कामयाब रहे थे।
हिज्बुल्ला की उस प्रतिरोध की धुरी की प्रमुख भूमिका रही है, कहा जाता है कि जिसकी कमान ईरान के हाथ में है। हमास, यमन स्थित अंसारुल्लाह (हूती), इराक स्थित इराक रेजिस्टैंस फोर्स, और सीरिया स्थित राष्ट्रपति बशर अल-असद समर्थक समूह इस धुरी के अन्य सदस्य माने जाते हैं।
इस धुरी की इकाइयां पूरे तालमेल के साथ काम करती हैं, ऐसा नहीं है, फिर भी मोटे तौर पर उनमें सहयोग रहता है।
तो सवाल यही है कि यह धुरी प्रभावशाली दिखते-दिखते अचानक कमजोर कैसे पड़ गई?
इस बारे में अब कुछ ठोस जानकारियां सामने चुकी हैं। सारा फर्क रहस्यमय परिस्थितियों में हुए हेलीकॉप्टर हादसे में ईरान में तत्कालीन राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की मौत से पड़ा। रईसी uncompromising (समझौता-विहीन रुख वाले) नेता थे। उन्हें उच्च-कोटि का रणनीतिकार माना जाता था।
उनकी मौत के बाद ईरान में हुए चुनाव में उदारवादी और पश्चिम (यानी अमेरिका) के प्रति नरम रुख रखने वाले मसूद पेजेश्कियान राष्ट्रपति चुने गए। उनका नजरिया ही प्रतिरोध की धुरी के लिए फिलहाल घातक साबित हुआ है।
पेजेश्कियान के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने आए हमास के नेता इस्माइल हानिया की इजरायली खुफिया एजेंसियों ने तेहरान में हत्या करवा दी। तब ईरान ने इसका बदला लेने का एलान किया था। बताया जाता है कि ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह खामेनई भी इस पक्ष में थे कि इजरायल को जोरदार जवाब दिया जाए।
लेकिन इसी बीच पश्चिमी देशों ने मध्यस्थता की। पेजेश्कियान उनकी बातों में आ गए। पश्चिम की तरफ से फॉर्मूला दिया गया कि अगर ईरान जवाबी हमला ना करे, तो वे (यानी अमेरिका) इजरायल और हिज्बुल्लाह के बीच शांति समझौता करवा देंगे, जिसके तहत इजरायल लेबनान पर हमले का इरादा छोड़ देगा।
पेजेश्कियान ने ये शर्त मंजूर कर ली। उन्होंने खामेनई की अवज्ञा करते हुए बदले की कार्रवाई का इरादा टाल दिया। उन्होंने हिज्बुल्लाह को संदेश भेज दिया कि इजराइल लेबनान पर हमला नहीं करेगा। बताया जाता है कि फिनलैंड के प्रधानमंत्री एलेक्जेंडर स्टब ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई।
समझा जाता है कि उन्होंने जो शांति फॉर्मूला दिया, उस पर ही विचार के लिए हिज्बुल्लाह नेता एक जगह इकट्ठे हुए थे, जिस समय इजरायली विमानों ने घोर बमबारी कर दी। इसमें हिज्बुल्लाह के सात सर्वोच्च नेता मारे गए।
अब पेजेश्कियान ने खुद कहा है- ‘अमेरिका और यूरोप ने दावा किया था कि अगर ईरान इस्माइल हानिया की हत्या का जवाब देने में देर करे, तो गजा में युद्धविराम हो जाएगा। मगर उन्होंने झूठ बोला था।’
ईरान के अखबार ला पर्सियन ने यह खबर छापी है कि नसरुल्लाह के सही लोकेशन और उनके कार्यक्रम की जानकारी एक Iranian mole (ईरानी खबरी) ने ही इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद को दी। यह खबरी कौन था, इसको लेकर कयास लगाए जा रहे हैं।
कुछ सोशल मीडिया पोस्ट में बताया गया है कि ईरान में मोसाद की मौजूदगी खत्म करने के लिए सरकार ने एक मोसाद विरोधी एजेंसी बनाई थी। मगर इस एजेंसी का प्रमुख ही मोसाद का एजेंट निकला।
क्या उसी एजेंट ने यह सूचना लीक की, इसको लेकर अटकलें लग रही हैं। हिज्बुल्लाह की हर सूचना का ईरानी एजेंसी के पास मौजूद होना सूचनाओं के स्वाभाविक आदान-प्रदान का हिस्सा रहा है।
ईरान का रुख बदल जाने की चर्चा नसरुल्लाह की हत्या के पहले ही चर्चित हो गई थी। लेबनान स्थित शिया मौलवी अली अल-हुसैनी ने उसके कुछ ही दिन पहले एक टीवी इंटरव्यू में कह दिया था कि नसरुल्लाह को अपना वसीयत लिख लेना चाहिए, क्योंकि ईरान उनसे “विश्वासघात” कर चुका है।
ईरान में इजरायली जासूसों की मौजूदगी पहले से थी। या कहें कि हमेशा रही है। इसी वजह से इजरायल तेहरान में हमास नेता की हत्या कर पाया। इसके अलावा गुजरे एक साल के अंदर ही ईरान के भीतर कई आतंकवादी हमले हुए। मगर अब यह निर्विवाद है कि ईरान के लोगों का पश्चिम के प्रति उदार नेता का राष्ट्रपति चुनना प्रतिरोध की धुरी के लिए घातक साबित हुआ है।
पश्चिमी/अमेरिकी नेताओं की बात पर भरोसा सिर्फ अपने नुकसान की कीमत पर ही किया जा सकता है। ऐसा भरोसा मिखाइल गोर्बाचेव ने किया, जिसका परिणाम सोवियत यूनियन जैसी बड़ी ताकत के विघटन और बाद में रूस के दरवाजे तक नाटो के विस्तार के रूप में सामने आया।
उन पर भरोसा कर रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने मिन्स्क 1 और 2 समझौते किए और सोचा कि इससे यूक्रेन के दोनबास इलाके में मौजूद रूसी आबादी के हित सुरक्षित हो जाएंगे।
2022 में यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद जर्मनी की पूर्व चांसलर अंगेला मैर्केल ने एक मीडिया इंटरव्यू में कहा था कि मिन्स्क समझौता समय काटने का बहाना था, ताकि यूक्रेन रूस का मुकाबला करने के लिए तैयार हो सके। समझौते के वक्त मैर्केल चांसलर थीं और वे भी समझौते की एक गारंटर थीं।
अमेरीकी नेताओं पर भरोसा चीन ने किया, जब अमेरिका ने 1979 में वन चाइना पॉलिसी का एलान किया। तब चीनी नेताओं को अंदाजा नहीं होगा कि यह महज एक अमेरिकी रणनीति है। जिस रोज उनके हित चीन से टकराएंगे, वे फिर से ताइवान का मामला उठा देंगे।
खुद भरोसा ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति हसन रूहानी ने उन पर किया था, जब 2015 में उन्होंने P-5+1 (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और जर्मनी) के साथ परमाणु समझौता किया। इसके तहत ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम रोक दिया। तब अमेरिका के ओबामा प्रशासन ने ईरान पर से कई प्रतिबंध हटा लिए।
लेकिन दो वर्ष बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका को उस समझौते से निकाल लिया और फिर से ईरान पर सख्त प्रतिबंध थोप दिए।
इस अनुभव के बावजूद पेजेश्कियान ने पश्चिम पर यकीन किया और प्रतिरोध की धुरी के कमजोर पड़ने का रास्ता साफ किया। हकीकत यह है कि अमेरिका समर्थित इजरायल अब इस क्षेत्रीय युद्ध में भारी नजर आ रहा है। उसने लेबनान पर जमीनी हमले की शुरुआत कर दी है।
विश्लेषकों के मुताबिक अब इस युद्ध का परिणाम इसी युद्ध पर निर्भर करता है। 2006 की तरह हिज्बुल्लाह ने इजरायल को विजयी नहीं होने दिया, तो इजराइल के हालात बेहद प्रतिकूल हो जाएंगे। उसे अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।
उसकी हैसियत सितंबर के दूसरे पखवाड़े के पहले की स्थिति से भी बदतर हो जाएगी। लेकिन इजरायल जीता, तो फिर यह संभव है कि कई दशकों के लिए इस इलाके पर उसका वर्चस्व फिर कायम हो जाए।
लेकिन क्या उससे मौजूद युद्ध थम जाएगा? इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमें इस प्रश्न की तह में जाना होगा कि आखिर इस मौके पर दुनिया के विभिन्न इलाकों में युद्ध के हॉटस्पॉट क्यों उभर आए हैं?
युद्ध यूक्रेन में चल रहा है, पश्चिम अफ्रीका में एक अलग रूप में यह आगे बढ़ा है, और सबसे ज्यादा खतरा एशिया-प्रशांत क्षेत्र में मंडरा रहा है। पश्चिम एशिया का युद्ध इस पूरे वातावरण से अलग नहीं है।
यह बात याद रखनी चाहिए कि युद्ध होते ही तब हैं, जब किन्हीं अन्य माध्यमों से विवाद के हल होने की संभावना चूक जाती है। जब विश्व संस्थाएं मूलभूत विवादों का हल निकालने में विफल हो जाती हैं, तब संबंधित देशों को यह लगता है कि युद्ध का जोखिम उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
प्रथम विश्व युद्ध से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक ऐसी ही बनी परिस्थितियों के परिणाम थे। संयुक्त राष्ट्र जब कारगर रहा या जब एक ध्रुवीय दुनिया में अमेरिका अपने बनाए नियम बाकी दुनिया पर थोपने में कामयाब रहा, तब तक विस्तृत दायरे वाले युद्ध भी नहीं हुए।
अब ऐसे युद्धों का साया फैल रहा है, तो उसका मतलब यही है कि परिस्थितियां बदल चुकी हैं।
नई परिस्थितियां एक आर्थिक ताकत के रूप में अमेरिका के क्षय और चीन के अभूतपूर्व उदय से निर्मित हुई हैं। हालांकि सैन्य क्षेत्र में अमेरिकी की संहारक शक्ति अब भी बिना किसी मुकाबले की है, फिर भी उसे चुनौती देने वाली ताकतें अलग-अलग इलाकों में उभर चुकी हैं।
कम-से-कम चीन और रूस दो ऐसी बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आए हैं। इन नई परिस्थितियों के कारण अमेरिका के लिए दुनिया को मनमाने ढंग से चलाना असंभव हो गया है। लेकिन अपनी इस नई हैसियत को वहां का शासक वर्ग स्वीकार करने को तैयार नहीं है। नतीजा, युद्ध के हॉटस्पॉट्स गरम करने की रणनीति अपनाई गई है।
पश्चिम एशिया में युद्ध का नया दौर इसीलिए शुरू हुआ कि फिलस्तीन मसले के समझौते से हल की उम्मींदे टूट गई थीं। उधर बदली विश्व परिस्थितियों से हमास या हिज्बुल्लाह जैसी ताकतों को महसूस हुआ कि युद्ध के जरिए विश्व पटल पर अपने मुद्दों की तरफ ध्यान खींचने का यह उपयुक्त समय है।
हालांकि इस सोच की भारी कीमत गज़ा और वेस्ट बैंक स्थित फिलिस्तीनी आबादी को चुकानी पड़ी है, फिर कहा जा सकता है कि दो हफ्ते पहले तक ये रणनीति कारगर होती लग रही थी। मगर हालिया घटनाओं ने सूरत बदल दी है।
इसके बावजूद यह सोचने का कोई आधार नहीं है कि नई परिस्थितियों में उस इलाके या दुनिया के अन्य इलाकों को युद्ध से छुटकारा मिल जाएगा।
वस्तुगत हालात ऐसे हैं, जिनमें युद्ध एक अवधि के लिए धीमा पड़ सकता है, मगर विश्व परिस्थितियों से पश्चिम एशिया के समीकरण देर तक अप्रभावित नहीं रहेंगे।
दरअसल, युद्ध की वैश्विक स्थितियों के कई आयाम हैं। सैन्य मोर्चे उसका एक आयाम हैं। आर्थिक और मौद्रिक क्षेत्र इसके दो अन्य प्रमुख आयाम हैं। अमेरिकी वर्चस्व को असल चुनौती चीन की आर्थिक ताकत और उसके इर्द-गिर्द बने नए समीकरणों से पेश आई है।
इन समीकरणों में ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन, यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन का उल्लेख किया जा सकता है। इनके अलावा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव है, जिसका दायरा अफ्रीका से लेकर लैटिन अमेरिका तक फैला हुआ है। रूस और चीन के बीच उभरी धुरी ने इस समीकरण में सैन्य आयाम जोड़ा है।
यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से खुद अमेरिकी रणनीतिकार यह ध्यान दिलाते रहे हैं कि रूस के ‘मौसम’ में एक आम बदलाव है, जबकि चीन ‘जलवायु परिवर्तन’ है। यानी असल चुनौती चीन से है।
दूसरे युद्धों का क्या अंतिम परिणाम होगा, यह चीन और अमेरिका के बीच जारी टकराव, जिसे कुछ विश्लेषक नया शीत युद्ध कहते हैं, के नतीजे से तय होगा। चूंकि पश्चिम एशिया का युद्ध इस पूरी विश्व परिघटना से अलग नहीं है, इसलिए यह बात उस पर भी लागू होती है।
बहरहाल, ये टकराव आने वाले दिनों में किस तरह के मोड़ लेगा, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है। यह कब तक चलेगा, इस बारे में भी फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता। एक दांव जीत लेना इजरायल की अंतिम जीत नहीं है। वह बड़े युद्ध की विभिन्न लड़ाइयों में महज एक में जीत भर है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)
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