भारतीयों को त्रासदियों की ओर धकेल रही है अवसरहीनता

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कुवैत में एक भीषण अग्निकांड में तकरीबन 40 भारतीयों की हुई मौत ने देश में व्यग्रता पैदा की है। वहां विदेशी मजदूरों के एक रहवास में हुए इस भयंकर हादसे में इन भारतीयों की जान गई। इससे खाड़ी देशों में मजदूरों के असुरक्षित परिस्थितियों में रहने की गंभीर समस्या की तरफ भारतवासियों का क्षणिक ध्यान गया है। लेकिन यह समस्या नई नहीं है।

साल 2022 में कतर में विश्व कप फुटबॉल टूर्नामेंट के आयोजन के लिए निर्माण कार्य लगभग दस साल पहले शुरू हुए थे। उनमें काम करने के लिए भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, फिलीपीन्स आदि से बड़ी संख्या में मजदूरों को ले जाया गया। कामकाज और रहने की अमानवीय परिस्थितियों के कारण निर्माण की अवधि में सैकड़ों मजदूरों की जान गई थी। तब एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित कई मानव अधिकार संगठनों ने कामकाज और मजदूरों के रहने की विकट परिस्थितियों का विवरण अपनी रिपोर्टों में दर्ज किया था। लेकिन तब देश के अंदर शायद ही कोई संवेदना जगी।

जो हालात कतर या कुवैत में हैं, वही सऊदी अरब या संयुक्त अरब अमीरात में हैं। मगर इन हालात के बावजूद हजारों की संख्या में भारतीय मजदूर वहां जाते हैं। उनके अलावा लाखों मजदूर इस जद्दोजहद में लगे रहते हैं कि किसी तरह उन्हें उन देशों में जाकर कमाने का मौका मिल जाए।

जिस रोज कुवैत में हुए अग्निकांड की खबर आई, उसी रोज यह खबर भी आई कि रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध में भाड़े के सैनिक के तौर पर गए दो और भारतीयों की मौत हो गई है। ये भारतीय रूस की तरफ से लड़ते हुए मारे गए। ये उन 30 लोगों से अलग थे, जिनके परिजनों ने पहले भारत सरकार से संपर्क किया था। उन परिजनों का दावा था कि भर्ती एजेंसियां बिना यह बताए उनके घर के सदस्यों को रूस ले गईं कि उन्हें युद्ध लड़ने के काम में लगाया जाएगा। ये खबर तब चर्चित हुई थी, जब दो भारतीयों के युद्ध में मारे जाने की खबर आई थी। अब दो और भारतीयों के बारे में दुखद खबर आई है।

ताजा रिपोर्ट का मतलब यह है कि रूस की तरफ से लड़ने के लिए जिन भारतीयों को “बहला-फुसला कर” ले जा गया गया, उनकी संख्या उससे कहीं अधिक है, जिसकी जानकारी भारत सरकार और भारत के आम लोगों को रही है।

यह खबर तो पहले से ही बहुचर्चित है कि भारत सरकार ने खुद अपने प्रयास से सैकड़ों देशवासियों को युद्धग्रस्त इजराइल में मजदूरी करने के लिए भेजा है। जिस समय भारत सरकार ने इसके लिए इजराइल से करार किया, तभी यह सूचना भी सामने आई थी कि भारत सरकार अपने मजदूरों को कई अन्य देशों में भी भेजने के प्रयास में है। समझा जा सकता है कि सरकार ने देश में भीषण होती जा रही बेरोजगारी के समाधान का यह एक नायाब तरीका निकाला है!

और बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। यह तो उन मजदूरों की कथा है, जो गरीबी में जिंदगी गुजराते हैं। लेकिन बेहतर आर्थिक हालत वाले भारतीयों को भी आज विदेश में ही अपने लिए अवसर नजर नहीं आ रहे हैं। 2023 की समाप्ति पर यह खबर आई थी कि अमेरिका में अवैध ढंग से प्रवेश की कोशिश करने वाले लोगों में अब भारतीयों की संख्या सबसे ज्यादा हो गई है। अमेरिका में घुस चुके अवैध आव्रजकों में अब भारतीयों की संख्या तीसरे नंबर पर है। (Indians now third-largest group of undocumented immigrants in the U.S. – The Washington Post)

अवैध ढंग से अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में जाने की जारी कोशिश को एक फिल्म के नाम पर अब डंकी रूट नाम से जाना जाता है। मगर डंकी रूट का सहारा लेने वाले लोग- अगर भारतीय पैमाने को ध्यान में रखें- तो गरीब नहीं हैं। पिछले साल जब इस रूट से जा रहे 300 से अधिक व्यक्तियों वाले एक विमान को फ्रांस में रोक लिया गया था, तो उसके बाद इस रूट के फैले अवैध कारोबार के बारे में काफी जानकारियां आई थीं। उससे पता चला कि किसी तरह अमेरिका पहुंचने को बेसब्र भारतीय अवैध रूट के एजेंटों को 20 से 80 लाख रुपये तक देते हैं। जाहिर है, इतनी रकम का जो जुगाड़ कर ले, उसे भारत में गरीब नहीं समझा जाएगा।

बहरहाल, ये तो अवैध तरीकों का सहारा लेने वाले लोग हैं। वैध तरीकों से भारत छोड़ कर विदेश जा बसने का एक सिलसिला भी लगातार आगे बढ़ा है। पिछले साल धनी वर्ग के 6,500 भारतीयों ने देश का पासपोर्ट छोड़ दिया। (6,500 Super-Rich Indians Will Leave India in 2023 and Why (moneycontrol.com)). हाई नेट इनकम श्रेणी में आने वाले लोगों ने यह पलायन किया। यानी उन लोगों ने जिनकी सालाना आमदनी दस लाख डॉलर (लगभग आठ करोड़ रुपये) से ज्यादा है।

तो सवाल यह उठता है कि आखिर क्या कारण है कि लोगों को- चाहे वे जिस आय वर्ग के हों- अपने लिए विदेशों में बेहतर मौके नजर आते हैं? इस प्रश्न को इस तरह भी पूछा जा सकता है कि देश में अवसरों की इतनी कमी और उससे उत्पन्न निराशा इतनी व्यापक क्यों है कि देशवासी कहीं भी जाकर अपनी जान खतरे में डालने के लिए तैयार हो जाते हैं?

(सिर्फ धनी वर्ग के लोगों पर यह सवाल सीधे लागू नहीं होता। मगर एक अर्थ में उन पर भी होता है। अगर देश में उन्हें फैलता और समृद्ध होता बाज़ार नजर आता, आम जीवन स्तर में सुधार दिखता, विकास की ऐसी नीति नजर आती जिससे कुल माहौल क्वालिटी लाइफ की आकांक्षा के अनुरूप महसूस होता, तो शायद वे भी भारत से इस तरह तौबा नहीं करते।)

बहरहाल, धनी तबकों को छोड़कर बाकी लोगों के बारे में अगर हम कुछ आंकड़ों पर गौर करें, तो इसके कारणों के बारे में कुछ अनुमान लगा सकते हैं।

  • जब युवा बेरोजगारी असामान्य रूप से ऊंची हो और खाद्य मुद्रास्फीति लगातार आठ प्रतिशत से ऊपर चल रही हो, वहां आम जन की कैसी जिंदगी की कल्पना की जा सकती है? अप्रैल के जारी ताजा आंकड़ों में भी खाद्य मुद्रास्फीति 8.7 प्रतिशत दर्ज हुई है।
  • सर्वे एजेंसी गैलप के एक विश्वव्यापी आकलन में सामने आया कि भारत में सिर्फ 14 फीसदी कर्मचारियों ने अपनी स्थिति को खुशहाल श्रेणी में रखा। बाकी 86 प्रतिशत कर्मचारियों ने अपनी हालत को संघर्षरत या पीड़ादायक बताया। जबकि अपने को खुशहाल बताने वाले कर्मचारियों का वैश्विक औसत 34 प्रतिशत था।
  • अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल की व्यवस्था और परिवहन पहले ही आम शख्स की पहुंच से बाहर हो गए हैं। निजीकरण के दौर में सरकारी स्कूलों की बदहाली जग-जाहिर है, जबकि अच्छे प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को भेजना अब लग्जरी बन चुका है।
  • इलाज का भी यही हाल है। ये स्थितियां आने वाले दिनों में और विकट होने वाली हैं। हाल में खबर आई कि अस्पताल और दवा कंपनियों में विदेशी इक्विटी फंड और वेंचर कैपिटलिस्ट बड़े पैमाने पर निवेश बढ़ा रहे हैं। कारण यह बताया गया कि देश में डॉक्टरों के बिल और बीमा प्रीमियम में तेज बढ़ोतरी के कारण मुनाफे की संभावना बढ़ती जा रही है। इसके अलावा लाइफस्टाइल रोग तेजी से फैल रहे हैं। इससे भी मुनाफा बढ़ने की संभावना मजबूत हुई है। (Private equity targets India’s healthcare sector with record investments (ft.com))
  • इस खबर के मुताबिक 2023 में अस्पताल और दवा उद्योग में प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल संस्थाओं ने 5.5 बिलियन डॉलर का निवेश किया। यह 2022 की तुलना में 25 फीसदी ज्यादा है। प्राइवेट इक्विटी फर्म बेन्स एंड कंपनी की एक रिपोर्ट के मुताबिक बेन्स कैपिटल, ब्लैटस्टोन ग्रुप और केकेआर जैसी कंपनियों के बड़े अधिकारी हाल में भारत का दौरा कर चुके हैं। कंपनी अधिकारियों की राय है कि भारत में ‘संपत्तियों’ में सही रफ्तार से बढ़ोतरी हो रही है और अधिक कंपनियां इस बाजार में उतर रही हैं। ये कंपनियां हर आकार के अस्पतालों में निवेश कर रही हैं। बाजार पर नज़र रखने वाली एजेंसी इन्वेस्ट इंडिया के मुताबिक 2027 तक अस्पतालों का राजस्व बढ़ कर 219 बिलियन डॉलर सालाना हो जाने का अनुमान है।
  • मगर एक तरफ प्राइवेट अस्पतालों में नए निवेश से उनका स्टैंडर्ड बढ़ रहा है, वहीं सरकारी अस्पताल बजट के अभाव में जर्जर होते जा रहे हैं। निजी अस्पतालों में मुनाफा केंद्रित कंपनियों के निवेश से वहां इलाज की हर गतिविधि महंगी होती जा रही है, जिससे वे आम जन की पहुंच से अधिक दूर होते जा रहे हैं। इस कारण मेडिक्लेम पॉलिसी का प्रीमियम भी पिछले चार साल में लगातार बढ़ा है। सरकारों ने गरीबों के इलाज के लिए बीमा योजनाएं घोषित की हैं। लेकिन इनका लाभ अस्पताल में भर्ती होने पर ही मिलता है। उसके पहले का सारा खर्च अपनी जेब से करना पड़ता है। इसलिए हैरत नहीं, भारत में इलाज पर अपनी जेब से खर्च दुनिया में सबसे ऊंचा बना हुआ है। 
  • दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि शासक तबकों और उनके संचार माध्यमों की तरफ से इस जमीनी सूरत पर परदा डालने के सुनियोजित अभियान लगातार चलाए जाते हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद तो एक असत्य पर आधारित धारणाएं बनाने की सुनियोजित रणनीति अपना ली गई है। लेकिन उससे, जिन लोगों को अपने सामने कोई अवसर नजर नहीं आता, उनमें उत्साह नहीं भरा जा सकता।
  • वैसे अगर गौर करें, तो यह भी साफ होता है कि आम जन और शासक समूहों के बीच खाई कितनी चौड़ी हो चुकी है। अभी नई लोकसभा में कैसे जन प्रतिनिधि पहुंचे हैं, उस पर गौर करें, तो बात कुछ समझ में आ सकती है। आखिर व्यक्ति की सोच और प्राथमिकताएं जिस वर्ग और पृष्ठभूमि से वह आता है, अक्सर उससे ही तय होती हैं। अति सुख-सुविधा में पले बढ़े व्यक्ति से यह अपेक्षा निराधार है कि वह वंचित लोगों की पीड़ा को ठीक-ठीक महसूस करेगा- खासकर उस स्थिति में अगर उसका समाज सेवा की कोई पृष्ठभूमि न रही हो। इसके विपरीत संभावना यह अधिक रहेगी कि वह जिस तबके से आया है, उसकी प्राथमिकताएं उसकी सोच को अधिक प्रभावित करें।
  • गैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिस राइट्स (एडीआर) ने नव-निर्वाचित प्रतिनिधियों का विवरण पेश किया है, जो बतौर उम्मीदवार दायर उन प्रतिनिधियों के हलफनामे पर आधारित है। एडीआर के मुताबिक भाजपा के नए 240 लोकसभा सदस्यों की औसत संपत्ति 50.04 करोड़ रुपये है। ध्यान रहे कि अगले पांच साल तक यही लोग देश की नीति और दिशा तय करेंगे।
  • एक बिजनेस अखबार के विश्लेषण से यह सामने आया है कि 54 प्रतिशत लोकसभा चुनाव क्षेत्रों में सबसे ज्यादा धनवान उम्मीदवार को जीत मिली। 542 (सूरत को छोड़कर, जहां निर्विरोध निर्वाचन हुआ) सीटों में से 501 में विजयी हुए उम्मीदवार करोड़पति हैं। उनमें से 30 ने अपनी संपत्ति 100 करोड़ रुपये से ज्यादा बताई है।

ये हकीकत इस बात का प्रमाण है कि देश में लोकतंत्र एक धनिक-तंत्र में तब्दील हो गया है। इन स्थितियों में आम जन में समस्याओं के हल की उम्मीदों का टूटना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। ‘अच्छे दिन’ जैसे वादे अगर हवाई साबित हों और उम्मीद की कोई नई किरण ना दिखे, तो लोग क्या करेंगे?  उनकी वही मनोदशा बनेगी, जो मजदूरों को इजराइल ले जाने के लिए हरियाणा में लगे कैंप में एक श्रमिक की बात में जाहिर हुई थी। इस ओर ध्यान खींचने पर इजराइल में युद्ध चल रहा है, उसने कहा था- ‘यहां भूखे मरने से अच्छा वहां कमाते हुए मरना है।’

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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