जनादेश की रक्षा पर निर्भर है लोकतंत्र का भविष्य

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लोकसभा चुनाव 2024 अब अंतिम चरण में है। प्रशांत किशोर जैसे लोग जो भी दावे करें, अब यह हर उस शख्स को जो सच से मुंह नहीं चुराना चाहता, साफ है कि इण्डिया गठबन्धन लगातार आगे बढ़ रहा है और भाजपा तेज ढलान पर है। जाहिर है जैसे 2014 और 2019 के उभार में, वैसे ही ढलान की इस पूरी परिघटना के केंद्र में मोदी जी ही हैं।

मोदी मैजिक का पूरी तरह खत्म होना इस चुनाव की सबसे बड़ी कहानी है और चुनाव नतीजों को तय करने में सबसे बड़ा कारक बनने जा रहा है। दरअसल गोदी मीडिया की मदद से जो मोदी मैजिक गढ़ा गया था, उसमें सर्वप्रमुख कारक अच्छे दिन की उम्मीद थी, जो मोदी ने जगाई थी। उसके लिए गुजरात मॉडल का झूठा मिथ खड़ा किया गया था। मोदी ने पूरे देश में रैलियां करके भारत को चीन की तरह मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने और हर साल 2 करोड़ रोजगार, विदेश से काला धन लाकर सबके खाते में 15 लाख जमा करने आदि का वायदा किया था। गुजरात के उनके कारनामों के फलस्वरूप उनका  ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ होना निश्चय ही उनके राज्यारोहण में अतिरिक्त फैक्टर बना, लेकिन 2014 में यह प्राथमिक कारक नहीं था।

पहले कार्यकाल में अच्छे दिन का वायदा पूरा नहीं हुआ। बढ़ती बेरोजगारी आदि से लोग परेशान होने लगे। नोटबन्दी और दोषपूर्ण जीएसटी अर्थव्यवस्था और आम जनता के लिए भारी तबाही क़ा सबब बनी। राफेल सौदे में घोटाले का मामला भी सामने आया। लेकिन जनता के मन में तकलीफ और निराशा के बावजूद मोदी की नीयत को लेकर उम्मीद अभी शेष थी। लोग उन्हें एक और मौका देना चाहते थे।

रही सही कसर पुलवामा और बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक ने पूरी कर दी थी। यह तय है कि इनके बिना यदि सामान्य माहौल में चुनाव हुआ होता तो 2019 में सरकार अगर बनती भी तो बहुत ही  अल्प बहुमत ( thin majority ) से, प्रचंड बहुमत तो नहीं ही मिलता।

बहरहाल दूसरे कार्यकाल का अंत आते आते मोदी की विनाशकारी अर्थनीति ने आम जनता की कमर तोड़ दी और लोगों को अब उनसे कोई उम्मीद नहीं बची है, उनकी किसी गारंटी पर अब लोगों को रत्ती भर भी यकीन नहीं है।

सच तो यह है कि वे अब कोई नई गारंटी दे भी नहीं पा रहे हैं। उनके पास जनता को देने के लिये न ठोस कुछ बचा है, न बेचने के लिए कोई नया सपना है। विश्व की 5वीं अर्थव्यवस्था और विकसित भारत की लफ्फाजी जनता के वास्तविक जीवन-स्थितियों से पूरी तरह बेमेल है। यह अनायास नहीं है कि मोदी जी अपने घोषणापत्र पर नहीं, कांग्रेस के घोषणापत्र पर ही रैली-दर-रैली बोलते रहे। उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र को मुस्लिमपरस्त और माओवादी दस्तावेज के रूप में पेश करने में कोई कसर न छोड़ी। लेकिन यह मनगढ़ंत आरोप सत्य से इतना दूर था कि स्वाभाविक रूप से लोगों पर इसका कोई असर नहीं हुआ।

ले-देकर एक जो 5 किलो अनाज का मुद्दा था, विपक्ष ने अब 10 किलो अनाज की घोषणा करके उसे भी निष्प्रभावी कर दिया है। इसके अतिरिक्त सभी गरीब परिवारों की एक महिला को 1 लाख रुपये की घोषणा ने भारी आकर्षण पैदा कर दिया है। उधर युवाओं में 1 लाख की अप्रेंटिस, 30 लाख रिक्त पदों पर भर्ती तथा अग्निवीर योजना खत्म करने की घोषणा ने जबरदस्त उत्साह पैदा किया है। किसानों की दो सबसे बड़ी मांगों-MSP की कानूनी गारंटी और कर्जमाफी-को भी विपक्ष ने अपने घोषणापत्र में शमिल कर लिया है।

इसके अतिरिक्त जाति जनगणना, आरक्षण की सीमा बढ़ाने तथा सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने की घोषणाओं ने वंचित तबकों में इंडिया के पक्ष में माहौल बनाया है। मोदी ने इसे यह तथ्यहीन twist देने की कोशिश की कि विपक्ष वंचित हिंदुओं का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को देना चाहता है। जाहिर है इस बेसिर पैर की बात का कोई असर नहीं हुआ।

इसके विपरीत भाजपा के बारे में हाशिये के तबकों में यह लोकप्रिय धारणा बन गया है कि वे आरक्षण को खत्म करने के लिए संविधान बदलने वाले हैं।

दरअसल RSS के बारे में यह सर्वविदित है कि उसने मौजूदा संविधान को मन से कभी स्वीकार नहीं किया। वाजपेयी के समय से संघ भाजपा के लोगों तथा इनके नीति नियामकों द्वारा इसकी समीक्षा और बदलाव की चर्चा चलती रही है। इस पृष्ठभूमि में जब मोदी ने 400 पार का नारा दिया और उनके कई महत्वपूर्ण नेताओं ने खुलकर यह कहा कि इसकी जरूरत है ताकि सम्विधान बदला जा सके, तब उन तमाम लोगों के कान खड़े हुए जो पहले से ही इस आशंका को लेकर सतर्क और चिंतित थे। इंडिया गठबन्धन के नेताओं, नागरिक समाज ने जब इस सवाल को जोरशोर से उठाया कि संघ भाजपा के निशाने पर न सिर्फ नागरिकों के तमाम मूलभूत अधिकार हैं बल्कि उनका इरादा इसके माध्यम से आरक्षण खत्म करना है, तो वंचित तबकों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई।

जाहिर है इस सब ने मिलकर इंडिया गठबन्धन के पक्ष में एक बड़े सामाजिक ध्रुवीकरण को जन्म दिया है जिसके आगे भाजपा-मोदी द्वारा धुर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की सारी कोशिशें फुस्स हो गयी हैं।

रही सही कसर बृहत्तर राजनीतिक और सामाजिक समीकरण बनाकर विपक्ष ने विभिन्न राज्यों में पूरी कर दिया। इंडिया गठबन्धन विपक्षी एकता के अब तक के सबसे बड़े यूनिटी इंडेक्स का प्रतिनिधित्व कर रहा है।लगभग 350 सीटों पर भाजपा के खिलाफ विपक्ष का एक उम्मीदवार चुनौती दे रहा है।इसके अलावा राज्यों के अंदर तमाम सीटों पर प्रत्याशियों के चयन में विपक्ष ने इस बार तमाम तबकों को बड़े पैमाने पर प्रतिनिधित्व दिया है जिससे उनका सामाजिक आधार विस्तीर्ण हो गया है। यूपी में सपा ने तमाम गैर यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों को उतार कर भाजपा से इन तबकों को बड़े पैमाने पर अलग कर अपने पाल्हे में खींच लिया है।

चुनाव में तमाम स्थानीय कारक भी भूमिका निभा रहे हैं। भाजपा के कोर समर्थक सवर्ण जनाधार में भी जगह जगह टूटन देखी जा सकती है। महंगाई, बेरोजगारी से तो हर तबका परेशान है ही। किसी राष्ट्रीय नैरेटिव के अभाव में जैसे ही कोई मजबूत कारक मसलन अपनी जाति का प्रत्याशी आदि जुड़ जा रहा है, सवर्ण समुदाय का एक हिस्सा उसकी ओर झुक जा रहा है।

दरअसल प्रशांत किशोर जैसे लोग, कारण चाहे जो हो, विपक्ष की ताकत की नई बातों को नजरंदाज कर रहे हैं। उन्होंने जो भाजपा की पुरानी स्थिति कायम रहने की भविष्यवाणी की है, उसका मूल आधार यही है कि ब्रांड मोदी में तो गिरावट हुई है लेकिन विपक्ष विकल्प नहीं पेश कर पाया। कुल मिलाकर TINA फैक्टर के कारण ऐसा हो रहा है। यह सच नही है। 2014, 2019 से आज के विपक्ष, उसके नैरेटिव तथा unity index में जमीन आसमान का फर्क है।

सुरजीत भल्ला जैसे लोग जब अर्थव्यवस्था और GDP के आधार पर भाजपा के लिए 350 से अधिक सीटों की भविष्यवाणी करते हैं तब वे आम आदमी के जीवन पर पड़ने वाले इनके असर को account में नहीं लेते। यह सच है कि अर्थव्यवस्था चुनाव परिणाम पर असर डालती है, पर आम आदमी GDP के आधार पर नहीं बल्कि उसके जीवन पर  जो असर पड़ रहा है, उसके आधार पर फैसला करता है। अबकी बार सचमुच सरकार के खिलाफ आम आदमी के गुस्से के मूल में मोदी की कॉर्पोरेटपरस्त अर्थनीति के चलते हूई तबाही -आसमान छूती महंगाई और बेरोजगारी ही है।

दरअसल, इंडिया गठबन्धन ने मोदी के हथियारों को उन्हीं के ऊपर पलट दिया है- चाहे वह सोशल इंजीनियरिंग का मामला हो या कल्याणकारी/लोकलुभावन वायदों का। अंततः मोदी राज में हुई बेइंतहा तबाही का जनता के अंदर अहसास मोदी-शाह-योगी-हिमंता शर्मा के ध्रुवीकरण के प्रयासों पर भारी पड़ा और चुनाव इंडिया गठबन्धन की ओर झुक गया है।

बहरहाल आज सबके मन मे सबसे बड़ी चिंता यही है कि क्या जनादेश को निष्पक्ष ढंग से फलित होने दिया जायेगा ? जिस तरह चुनाव आयोग मतदान के आंकड़ों को सार्वजनिक करने में आनाकानी कर रहा है, पहले राउंड के आंकड़े 1 करोड़ बढ़ी संख्या के साथ 11 दिन बाद जारी किए गये, अधिकांशतः विपक्ष द्वारा जीती गयी 115 सीटों पर अबकी बार 2019 से भी absolute number में कम मतदान हुआ (द हिन्दू की रिपोर्ट) क्योंकि बड़े पैमाने पर वहां लोगों के नाम मतदाता सूची से काट दिए गए थे, इस सबने लोगों को गहरी आशंकाओं से भर दिया है।

अब यक्ष प्रश्न यही है कि क्या जनता और विपक्ष जनादेश की रक्षा कर पाएंगे? यह तय है कि इसके लिए सबको कमर कस के उतरना पडेगा और इसी पर हमारे देश के लोकतंत्र का भविष्य निर्भर है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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