दहशत और उसे बनाए रखने का घना जाल है इस खामोशी के पीछे

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पहले आम चुनाव के बाद 1977, 84 और 89 को छोड़कर इस बार का चुनाव भारत के संसदीय लोकतंत्र में संभवतः सबसे ज्यादा गहमागहमी वाला चुनाव है। इसके बावजूद और खुद प्रधानमंत्री सहित सत्ता पार्टी द्वारा इस चुनाव में उन्माद भड़काने की हर संभव असंभव अप्रत्याशित आपराधिक कोशिशों के बावजूद अप्रैल से शुरू होकर जून तक सात चरणों में चलने वाले इस निर्वाचन में मतदान प्रतिशत के घटने को सभी ने और सही ही दर्ज किया है। इसका घाटा किसे होता है, फायदे में कौन रहेगा इस गणित से अलग लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिहाज से यह एक ऐसा आयाम है जिसे गंभीरता के साथ विचार में लिया जाना चाहिए। लेकिन यह बीमारी नहीं, उसका सिर्फ एक लक्षण है। पोलिंग बूथ के क्षेत्र में आने वाली बसाहटों में जाकर देखने से रोग, उसकी व्यापकता और संक्रामकता को समझा जा सकता है। उस विवशता को जाना जा सकता है जो मतदाताओं की इस मुखर चुप्पी के पीछे है।

चुनाव हो रहे हैं मगर नागरिक समाज में न कहीं राजनीतिक चर्चाएं हैं, न बहस है। एक अजीब सी घुटन भरी ख़ामोशी है; न बोलना, न बतियाना, न कहना, न सुनना, पूछे जाने पर सूनी आंखों से देखना और जवाब देने से कतराना इस खामोशी की अभिव्यक्ति है। यह खामोशी अकारण नहीं है- इसके पीछे अनिश्चितता या संकोच या कोऊ नृप होय…वाला कैकेयी भाव नहीं है। इसके पीछे डर है जिसे योजनाबद्ध तरीके से पनपाई गयी दहशत के जरिये पैदा किया गया है और एक चक्रव्यूह सा रच कर कायम रखा गया है। इसके अनेक जरिये और अनेक रूप हैं।

मोदी राज में प्रताड़ना और दमन को राज करने के अमोध हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया है। ऊपरी मलाईदार परत के लिए सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स विभागों का जिस तरह दुरुपयोग किया गया है, बीच चुनाव में भी किया जा रहा है, वह सभी की जानकारी में है। बाकी की जनता को डराने धमकाने के लिए तंत्र के अन्य औजारों को उपयोग में लाया गया। परिवार के युवाओं और महिलाओं के किसी आन्दोलन वगैरा में शामिल होने यहां तक कि असहमति जताने तक के मामलों में उनके अभिभावकों को नतीजे भुगतने की धमकी दी गयी। अग्निवीर योजना के खिलाफ युवाओं के देशव्यापी प्रतिरोध के समय तो खुद फ़ौज के एक अफसर ने अपने आचरण की सारी निर्धारित सीमाओं को लांघते हुए खुलेआम धमकी दी थी कि जो इस आन्दोलन में शामिल होंगे उन्हें कभी सैना या और किसी नौकरी में भर्ती नहीं किया जाएगा। भाजपा ने यह तरीका अंग्रेज हुक्मरानों से सीखा है। बड़ी और लोकख्यात शख्सियतो, साहित्यकार, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों यहाँ तक कि दो दो मुख्यमंत्रियों तक को झूठे मुकदमों में जेलों में डालकर, जेलों में उन्हें अमानुषिक बर्ताब का शिकार बनाकर, असहमत और विरोधी फिल्म अदाकारों को काम न मिलने देने का तरीका अपनाकर और ऐसे अधिकांश मामलों में न्यायपालिका को ठेंगे पर रखने के रवैय्ये को बार बार दिखाकर इस आतंक को और ज्यादा गाढ़ा बनाया गया।

सुप्रीम कोर्ट सहित अदालतों के कई फैसलों के बाद भी, आज भी बुलडोजर न्याय जारी है और इस बार तो बाकायदा उस पर सवार होकर चुनाव अभियान चलाया जा रहा है। यही दहशत है जिसे और डरावना बनाने के लिए बर्बरों के अभिषेक किये जा आरहे हैं; लखीमपुर खीरी के किसानो के हत्याकांड से जुड़े मंत्री टेनी को फिर टिकिट देकर, महिला खिलाडियों के साथ दुष्कर्म और यौन उत्पीडन के अपराधी ब्रजभूषण शरण सिंह चौहान की जगह उसके बेटे को उम्मीदवार बनाकर और दुनिया को चौकाने वाले सेक्स स्कैंडल के अपराधी कर्नाटक के रेवन्ना बाप बेटे के लिए खुद प्रधानमंत्री द्वारा चुनाव प्रचार कर और अब उसे प्रत्यार्पित कराने के लिए कुछ भी न करके उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं कि मोदी मेहरबान तो टेनी, ब्रजभूषण, रेवन्ना पह्लवान। 

यही काम और भी ज्यादा नीचे तक जाकर कल्याणकारी योजनाओं को लेकर किया जा रहा है। भाजपा को वोट न देने, उसके विरोध में जाने पर महिलाओं के खाते में जाने वाले हजार बारह सौ रुपयों, किसानो को दी जाने वाली कथित सम्मान निधि के रुपयों सहित 5 किलो अनाज को बंद करवा देने की धमकियां गांव मोहल्लों में जाकर छुटभैय्ये भाजपाई खुल्लमखुल्ला दे रहे हैं। मंचों से यह डर “अगर मोदी हार गए तो यह पैसा और अनाज बंद हो जाएगा” कहकर दिखाते हैं- नीचे यह बात “अगर मोदी को वोट नहीं दिया तो हम ये पैसे और अनाज बंद करवा देंगे” के रूप में दोहराते हैं। भाजपा के हर पन्ना-अन्ना और अन्नी को उसके इलाके के हितग्राहियों की लिस्ट थमाकर हर हितग्राही से वोट मांगने का जिम्मा ही नहीं दिया जा रहा, उस तक यही धमकी लगातार पहुंचाने का काम भी दिया गया है। यही उनके चुनाव प्रचार का तरीका बचा है। भाजपा शासित प्रदेशों में बूथ की ईवीएम से वोट नहीं निकले तो इस या उस बहाने पूरी बस्ती उजाड़ दी जायेगी की चेतावनी पूरी बेशर्मी के साथ दी जाती है। यह सलूक पहले दलित और अल्पसंख्यक बाहुल्य आबादी वाली बस्तियों और मोहल्लों के साथ होता था, अब इसके दायरे में बाकी समुदायों की बसाहटें और कथित अवैध बताई जाने वाली कॉलोनियां भी जुड़ गयी हैं।

अब स्कूल्स और कॉलेज के छात्र तथा शिक्षक भविष्य का डर दिखाकर भाजपाई चुनावी बिसात के प्यादे बनाए जा रहे हैं। गलगोटिया यूनिवर्सिटी के मालिक द्वारा अपने विद्यार्थियों का इस्तेमाल राजधानी में दिखाई गयी बानगी थी;  नीचे हालात और भी बदतर हैं। यही स्थिति सरकारी, अर्ध सरकारी यहाँ तक कि निजी क्षेत्र के दफ्तरों और उद्योग धंधों की है। विचारधारा से प्रभावित कर, संगठन में जोड़ने की बजाय प्रताड़ना और दमन को झुकाने और शरणागत बनाने का एकमात्र जरिया बना दिया गया है। यह सब करने वाले अफसर ऐसा करते हुए उसे इससे बचने का रास्ता- भाजपा में शामिल होने का रास्ता- भी सुझाते रहते हैं। इसी तरह का दिखावटी गाजर और असली चाबुक का खेल अलग अलग स्तर पर अलग अलग जरियों से खेला जा रहा है।

मौजूदा हुक्मरानों ने दहशत फैलाने और उसे कायम रखने का तंत्र और इसका शिल्प सीधे जॉर्ज ओरवेल के उपन्यास 1984 से उठाया गया है। उस उपन्यास का बिग ब्रदर ठेठ घर में घुसकर सब कुछ देख रहा होता है। इसके 2024 के भाजपाई संस्करण में बिग ब्रदर को हर तरह से अपडेट किया गया है; अब वह अपनी तरफ से देखने वालों पर भी नजर रखता है। जो घुडकियां नागरिकों को दी जाती हैं वही अपने कार्यकर्ताओं, पार्षदों, ब्लाक और निचले स्तर के पदाधिकारियों को दी जाती हैं-  ऊपर वालों को राजी करने के लिए उनके कारनामों की ईडी और आईटी की फाइलें दिखाई जाती हैं, नीचे वालों को चाशनी में उनकी हिस्सेदारी को उनके परफॉरमेंस के साथ जोड़कर डराया जाता है।

हाल ही में मोदी के बाद दूसरे नम्बर पर आने वाले अमित शाह की खुलेआम अपने ही दल के मंत्रियों को दी गयी धमकी, विधायकों को दिखाई गयी गाजर इसी की निरंतरता में थी। उन्होंने कहा कि “जिन मंत्रियों के क्षेत्रों में मतदान कम होगा उन्हें मंत्रिमंडल से हटाकर जिन विधायकों के यहां वोट प्रतिशत बढेगा उन्हें मंत्री बना दिया जाएगा।“ ये अलग बात है कि इसके बाद भी कद्दू बदलाव नहीं आया। बिग ब्रदर 2024 ने निचले स्तर तक एक सुव्यवस्थित कार्यविधि और उसका तंत्र बनाया हुआ है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नेटवर्क इसकी धुरी है- भाई जी सब देख रहे हैं और सत्ता में अपनी हैसियत का इस्तेमाल करके शिक्षक, शिक्षिकाओं. पटवारी, गिरदावर, आंगनबाडी, आशा कार्यकर्ता, नगरपालिका कर्मचारी, पंचायत कर्मी और स्वास्थ्य कर्मी को अपनी जकडन में लेकर उनसे अपने चुनावी कार्यकर्ता से कहीं ज्यादा काम करवा रहे हैं, न करने पर ताड़ना भुगता रहे हैं।

बूथ्स और बस्तियों की हर मीटिंग में बस दो काम होते हैं ; एक- कार्यकर्ताओं को कुछ न कुछ भेंट किया जाना, दो – उनको पड़ोसियों,  इलाके में सक्रिय अन्य दलों, संगठनो, एनजीओ की टोह लेने, उस खुफिया जानकारी को पहुंचाने का जिम्मा देना ताकि उस फीडबैक को आधार बनाकर साम, दाम, दण्ड, भेद से उसकी अंगुली मरोड़ कर ईवीएम के वांछित बटन तक पहुंचाई जा सके। इसके लिए उन्होंने सोशल मीडिया की चौकियां और मचान ताने हुए हैं- हरेक को किसी न किसी व्हाट्सएप समूह में जोड़कर उसे नफरत की नियमित खुराक देने, उसकी फेसबुक टिप्पणियों, पसंदों की मोनिटरिंग करने का काम निठल्ले और कुंठित अंक़िलों को दिया हुआ है, जो समझाईश से बात न बनती देख दो चार का समूह बनाकर घर जाकर धमकने और अपने बाल बच्चों की तरफ देखो की समझाईश देने के लिए मुस्तैद और तत्पर बैठे रहते हैं।

जाल और भी नीचे तक बिछाया गया है। भोपाल में जनवादी महिला समिति ने अपने अभियान के दौरान इसके जो रूप और प्रकार पाए उनमे ; धार्मिक उत्सव समितियो का मोहल्ला स्तर पर गठन कर हर छोटे छोटे त्यौहार पर बड़े आयोजन और भंडारे कर उनमे जबरिया भागीदारी करवाना,  उसमें स्थानीय नेताओं को मंच देना, विभिन्न रहवासी सोसाइटी में अपने लोगों को शामिल कर इन आयोजनों का नियंत्रण लेना, सभी सार्वजनिक पार्कों पर अन्किलों का कब्जा कराकर उनमें टहलने आने वालों को ख़ास तरह से ढालना,  योग टीम के नाम पर हिंदुत्व को प्रतिष्ठित करना,  सुबह सुबह राम राम जपते हुये भजन मंडली को मोहल्लों में घुमाना उसमें अधिक से अधिक लोगों की भागीदारी करवाने के प्रयास करना, बच्चों की विभिन्न गतिविधियों के लिए समर कैम्प चलाना और उसमें नफरत की खुराक देना, कोचिंग सेंटर, टिफिन सेंटर को  जासूसी और अपने पाले में लाने का जरिया बनाना शामिल है। टीन एजर खिलाड़ियों को खेल किट बांटना, औरतों और आदमियों  की टोलियों को मुफ्त तीर्थ दर्शन कराना, चैनलों पर बाबाओं को सुनने के लिए महिलाओं को “प्रेरित” करना। इनके अलावा बस्तियों में योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए थोड़ा बहुत कमीशन देकर महिलाओं, लड़कियों और लड़कों को जोड़ना और इस नेटवर्क के जरिये परिवार के एक एक सदस्य की जानकारी रखना, अगर कोई समाजसेवी, प्रगतिशील है तो उसके घर में दूसरे सदस्यों को उकसाना उसके काम में व्यवधान पैदा करने का काम भी किया जाता है।  एडवा ने जो भोपाल में देखा है वह हर भाजपा शासित प्रदेश की ओरवेलियन कथा है।

निस्संदेह इस दहशत को तनिक से प्रयासों से तोड़ा जा सकता है। मगर बिग ब्रदर ने सिर्फ ओरवेल के उपन्यास से ही नहीं सीखा ; उसके ट्रेनर्स में हिटलर और मुसोलिनी भी हैं जिनसे इनने अन्धेरा कायम करने के लिए सारी रोशनियाँ गुल करने चुप्पियों से निजात पाने के सारे माध्यमों के पुल तोड़ने की शिक्षा ली हुई है । मुख्य पार्टियों के कार्यकर्ताओं को समेट बटोरकर लाना, उनके सांगठनिक ढाँचे ध्वस्त कर देना सिर्फ राजनीतिक कार्यकर्ताओं में हताशा फैलाने के लिए नहीं किया जा रहा, इसके जरिये आम जनता में भी “कोई नहीं हैं टक्कर में” का माहौल बनाया जाता है। मुख्य धारा के मीडिया पर पूरा कब्जा है और वह हुक्मरानों और उनके गिरोड़ के अपराधों का ब्लैकआउट करके जनता को सूचित करने के अपने काम को काफी पहले ही छोड़ चुका है।

अब योजनाबद्ध झूठे प्रचार से न सिर्फ मौजूदा बल्कि इतिहास में दर्ज, इतिहास रचने वाले नायकों की छवि को धूमिल और हास्यास्पद बना रहा है और इस तरह “खाओ तो बैगन, न खाओ तो बैगन” की विकल्पहीनता का नैरेटिव तैयार कर रहा है – जिसका उस पैमाने पर खंडन करना आसान नहीं है। प्रतिरोध के लिए सडकों पर उतरना, रैली, जलसे, जलूस, प्रदर्शन करना इसे तोड़ने के आम और कारगर तरीके रहे हैं। नवउदार के बाद आमतौर से, मोदी राज में खासतौर से इन सबको रोकने, बांधने के तरीके निकाले गए हैं।

सभाओं जलूसों की अनुमतियों में कड़ी शर्तें, परमपरागत स्थानों को प्रतिबंधित करना या इतना महंगा कर दिया गया है कि वे जन की पहुँच से ही बाहर हो गए। भाजपा शासित मध्यप्रदेश में एक सभा या एक जलूस निकालने से पहले ली जाने वाली अनुमति के प्रोफार्मा में 65 से ज्यादा किन्तु परन्तु, अगर, मगर हैं। इनमे जलूस में भाग लेने वालों की एकदम सटीक संख्या, लगाए जाने वाले नारे और उसमे शामिल होने वालों के मोबाइल नम्बर्स, गांव बस्तियों से आने वाले वाहनों के नम्बर्स और जिस पुलिस थाने के इलाके से वे आ रहे हैं उस थानेदार की अनुमति तक की शर्तें शामिल हैं। बंद कमरों में भी की जाने वाली संगोष्ठियों, बैठकों के लिए भी पूर्वानुमति आवश्यक है। इसके बाद भी अनुमति मिल जाने की गारंटी नहीं है।

सभायें और जलूस सिर्फ बोलने वाले की बात पहुंचाने का जरिया भर नहीं होते – वे सुनने वाले की निराशा को उत्साह में बदलने, उसका अकेलापन तोड़ उसे विराट का हिस्सा बनाने और इस तरह आत्मविश्वास भरने का भी काम करते हैं। सफ़दर हाशमी ने नुक्कड नाटकों का महत्त्व बताते हुए कहा था कि जब कोई दर्शक किसी द्रश्य पर हंसता है, तालियाँ बजाता है तो वह खुद को प्रतिरोध की कार्यवाही में शामिल कर रहा होता है। यही बात छोटी बड़ी सभाओं और रैली, जलूसों के बारे में भी सच है। कारखानों में शिफ्ट में जाने से पहले और निकलने के बाद नारेबाजी करने के अत्यंत शाकाहारी आन्दोलन से भी मालिक घबराते हैं। क्योंकि उन्हें पता होता है कि नारे लगाने के बाद कारखाने में घुसने वाला मजदूर अलग ही तरह की ऊर्जा से भरा, चमकती आँखों वाला होता है; उसे डराना या झुकाना बहुत कठिन हो जाता है।

वर्गविभाजित समाज की विडम्बना यह है कि जनता की ताकत के बारे में खुद जनता से ज्यादा राज्यसत्ता पर बैठे गिरोह जानते हैं, लुटने वालों से ज्यादा वर्ग सजगता लूटने वालों में होती है। लोकतंत्र की निर्णायक शक्ति के प्रति उसके समर्थकों से अधिक मालूमात फासिस्टों और तानाशाहों में होती है। इसलिए वे हर खिड़की दरवाजे पर ताले जड़ने की बदहवासी में रहते हैं। इस तिलिस्म का प्रबंधन वे इतने सूक्ष्म और मायावी तरीके से करते हैं कि कई बार जो दिखता है वैसा होता हुआ नहीं निकलता। हाल में हुए राज्य विधानसभाओं के चुनाव नतीजे इसका उदाहरण है।

बहरहाल यदि वे अपनी विधा में पारंगत होने का भरम पाले हैं तो इधर अवाम ने भी बहुत से सबक हासिल किये हैं। कार्पोरेटी धनपिशाचों के पैसे और हिन्दुत्व के अँधेरे की दम पर उनने जाल बिछाया है तो इधर जनता ने भी चक्रव्यूह को भेदना और तोड़ना सीख लिया है। यही वजह है कि सरोदा बिगड़ा हुआ है, आवाज बैठी हुयी है, भरोसा हिला हुआ है। बाकी के बचे मतदान में यही और तेजी से होना तय है क्योंकि अंधियारे उम्रदराज नहीं होते।

(बादल सरोज लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)

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