बनारस। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ के नाम पर एक तरफ शहर को सजाया-संवारा जा रहा है, तो दूसरी तरफ़ गरीबों की रोटी-रोज़गार पर अचानक बुलडोजर चला दिया गया। तारीख़ थी 4/ 5 जुलाई 2025 की रात, जगह थी कैंट रेलवे स्टेशन के सामने फ्लाईओवर के नीचे सजने वाला नाइट बाजार। जब शहर सो रहा था, तब इस बाजार के दुकानदारों की नींद बुलडोजर की घरघराहट ने छीन ली। एडीएम सिटी आलोक वर्मा की अगुवाई में नगर निगम के अफसर भारी पुलिस फोर्स के साथ नाइट बाजार पहुंचे और कुछ ही पलों में जेसीबी की गड़गड़ाहट गुमटियों और ठेला-ठेली वालों को रौंदने लगी।
कैंट रेलवे स्टेशन से समाने रात नौ बजे के बाद भारी पुलिस के साथ नगर निगम का भारी-भरकम अमला नाइट बाजार में पहुंचा और ठेला-ठेली व गुमटियों में बैठे लोगों पर टूट पड़ा। नाइट बाजार की जो गुमटियां कई परिवारों का पेट पालती थीं, उन्हें मिनटों में ध्वस्त कर दिया गया। जो गुमटियां बरसों से आशियाना बनी थीं, वे रात के अंधेरे में मलबे में बदल गईं। वहां सार्वजनिक शौचालयों को छोड़कर सारी दुकानें तोड़ दी गईं। करीब पांच घंटे चली इस कार्रवाई में 48 से अधिक दुकानें नेस्तनाबूद कर दी गईं। रात एक बजे तक चला यह ऑपरेशन कई आंखों में नींद की जगह आंसू छोड़ गया।

नगर निगम के एक्शन पर लोग यह समझ भी नहीं पाए कि जो बाज़ार एक समय प्रधानमंत्री की सौगात कहा गया था उसे इस तरह अचानक क्यों उजाड़ा गया? कुछ दुकानदारों ने दो दिन पहले खुद ही अपनी दुकानें हटा ली थीं। कैंट विधायक सौरभ श्रीवास्तव ने भी नगर निगम प्रशासन से आग्रह कर दो दिन की मोहलत दिलवाई थी ताकि व्यापारी खुद से हट जाएं। प्रशासन ने इंतज़ार करना भी ज़रूरी नहीं समझा। नाइट बाजार को आनन-फानन में तहस-नहस कर दिया गया। कार्रवाई के वक्त अफरातफरी का माहौल रहा। दुकानदार अपने सामान समेट भी नहीं पाए। कुछ के तवे, कड़ाही और खाने के डब्बे मलबे में दब गए। किसी के पास इतना समय नहीं था कि वह अपनी बची-खुची पूंजी बचा सके।
इस बाजार में खाने-पीने का सामान बेचने वाले वो मेहनतकश लोग थे जो दिन भर की कमाई से बच्चों की किताबें खरीदते थे, गैस का सिलेंडर भरवाते थे और सपना देकते था कि कल का सूरज आज से थोड़ा बेहतर होगा। वहां खाना-पीना, चाय-पकौड़ी, बाटी-चोखा और ठंडी हवा के साथ जिंदगी का स्वाद मिलता था। कुछ ही सालों में यह सपना व्यवस्था की कठोर लाठियों की हनक और नोटिसों के नीचे दम तोड़ गया।
बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?
बनारस की पुष्पा देवी-एक साधारण, लेकिन हिम्मती महिला हैं। फ्लाईओवर के नीचे नाइट बाजार में एक ठेले पर बाटी-चोखा बनाकर बेचती थीं। वही स्वाद, वही देसीपन और वही मुस्कान जिसने उनके ग्राहकों को बांधे रखा। पुष्पा के चार छोटे-छोटे बच्चे हैं, जिनकी पढ़ाई, दवा और पेट की भूख-सबकुछ इसी ठेले से चलता था। नगर निगम ने उनके ठेले को उठा लिया। अब न ग्राहक हैं, न ठेला, न ठौर।

पुष्पा की आंखें छलकती हैं, पर वो आंसू पोंछकर फिर कहती हैं, “हम गरीब हैं, लेकिन मेहनत करती हूं। न चोर हैं, न अपराधी। सिर्फ़ इतना ही तो चाहते थे कि हमें एक कोना दे दीजिए, जहां बैठकर रोज़ी-रोटी कमा सकें।” पुष्पा ने कहा, “चार बच्चे हैं साहब… सुबह से भूखे बैठे हैं। जब तक ठेला लगता था, कोई चिंता नहीं रहती थी। अब ठेला नहीं तो चूल्हा भी नहीं जलता। क्या रोशनी के नाम पर हमारी रोटी छीन लेना ही विकास है?”
पुष्पा देवी अब चुप हैं, मगर उनकी आंखें बोलती हैं। वो फूट-फूट कर कहती हैं, “साहब, जब ठेला लगता था तो रोज़ सुबह उठते ही जान में जान होती थी कि बच्चों को भूखा नहीं रहना पड़ेगा। चूल्हा नहीं जलता, पेट नहीं भरता। अब रोज़ सुबह लगता है जैसे कोई बुरा सपना फिर से दोहराया जा रहा है।”

यह बनारस का नाइट बाजार ऐसा था जहां जहां ठेले पर बाटी-चोखा बेचकर कोई मां अपने बच्चों की फीस भरती है, कोई बाप दवा और गैस सिलेंडर का इंतज़ाम करता है और कोई बूढ़ी अम्मा बेटे की कमाई से बचे पैसों में बहू के लिए चूड़ियां लाती रही हैं। नाइट बाजार की शक्ल में जो जगह हर रात गुलजार रहती थी अब वहां सन्नाटा पसरा है। ठेले की खटखटाहट, ग्राहकों की आवाजाही और चूल्हे की धीमी आंच से गरमाया करता था वो अब स्मार्ट सिटी की चमक में ठंडा हो गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक लोककल्याणकारी सोच का हिस्सा नाइट बाजार अब नगर निगम की कागजी कार्रवाई में ‘अवैध’ घोषित हो चुका है। सब कुछ अचानक हुआ। एक नोटिस आया और फिर बुलडोजर आ गया। किसी ने यह नहीं पूछा कि इस बाजार से जुड़ी ज़िंदगियां अब कहां जाएंगी? किसी ने यह नहीं पूछा कि इस बाजार से जुड़े चेहरों का अब क्या होगा?
“हमारा कसूर क्या था?”
राजू की एक छोटी सी ठेली जो अब सिर्फ़ याद बन गई है। वो भी बाटी-चोखा का ठेला लगाया करते थे। उनकी जिंदगी पटरी पर आ गई थी, लेकिन अचानक आफत कहर बनकर टूटी और उन्हें उजाड़ दिया गया। अब वो चुप हैं। वह कहते हैं, “हमारे परिवार में छह लोग हैं। अब दुकान हट गई… किराया देने के पैसे नहीं हैं। बच्चों की फीस भरनी है, लेकिन जेब में कुछ नहीं।”
राजू, जो कभी मुस्कुराकर ग्राहकों से कहता था, “भइया, बाटी गरम है, चटनी तेज है,” अब खामोश है। ठेले की जगह खाली ज़मीन और उस पर फैले सूखे पत्ते हैं। वह फटी जेब में किराये की पुरानी रसीदें दिखाता है, “देखिए ठेला लगाने का किराया भी दिया और सफाई भी रखी। फिर भी हटा दिए गए। अब किराया नहीं दे सकता तो बच्चों की फीस कैसे भरूं?”

राजू गंभीर सवाल उठाते हैं और कहते हैं, “नगर निगम के अफसरों का कहना है कि जहां उनके ठेले लगते थे, वहां रंग-बिरंगी लाइटें लगेंगी और यात्रियों के बैठने के लिए बेंचें बनेंगी। मगर क्या इन बेंचों पर वे मां-बाप बैठ पाएंगे, जो अब बच्चों का स्कूल छुड़ाने की सोच रहे हैं?”
नाइट बाजार में सिर्फ ठेले नहीं थे, वहां सपने थे। वहां एक गरीब बाप की उम्मीद थी कि वो खुद के दम पर अपने बच्चों को बड़ा कर सकेगा। वहां एक मां की तपस्या थी कि बिना किसी पर बोझ बने वह बच्चों का पेट भर सकेगी। लेकिन स्मार्ट सिटी द्वारा भविष्य में कराए जाने वाले ‘सुंदरीकरण’ में तमाम लोगों की जिंदगी को बदरंग बना दिया है।

स्मार्ट सिटी परियोजना और नगर निगम की सख़्ती के बीच सबसे ज़्यादा चोट उन लोगों को लगी है हर जो रोज़ ठेला लगाकर दो वक़्त की रोटी कमाते थे। यह कोई सरकारी कागज़ की रिपोर्ट नहीं, बल्कि उन लोगों की ज़मीनी कहानी है जिनकी ज़िंदगी भविष्य के कथित ‘सुंदरीकरण’ के नाम पर बर्बाद कर दी गईं। रंग-बिरंगे नाइट बाजार में अब घुप सन्नाटा है।
क्या मेहनत करना गुनाह है?
आजमगढ़ के मेहनगर निवासी विजय यादव के चार भाई-प्रताप, दुर्गा और राहुल बनारस में रहते हैं। पहले वो ठेला लगाया करते थे। नाइट बाजार खुला तो फ्लाईओवर के पिलर के नीचे एक दुकान आवंटित कराई और गुमटी में गरीबों के लिए भरपेट भोजन वाला ढाबा खोल लिया। नगर निगम के नए फरमान के बाद इनका परिवार सड़क पर आ गया।
विजय नाइट बाजार में गुमटी लगाकर गरीबों को सस्ता खाना खिलाते थे, लेकिन आज खुद भूख की कगार पर खड़े हैं। उन्होंने कहा, “हमने सरकार की बात मानी, नियमानुसार दुकान ली। लेकिन आज हम अपराधी की तरह हटा दिए गए। बताइए, हमारा कसूर क्या था? “
वो कहते हैं, “हम तो साफ-सफाई का भी ध्यान रखते थे। कोई यह बताने वाला नहीं है कि आखिर हमारा कसूर क्या है? अब तो बेटे की पढ़ाई छुड़ानी पड़ेगी। कोई यह बताने वाला नहीं है कि उजाड़े जाने के बाद आखिर हम कहां जाएं और अपने परिवार का पेट कैसे भरें?”
कुछ इसी तरह की कहानी नखड़ू सोनकर की भी है। वो रोज़ पसीना बहाकर पूड़ी-सब्जी बेचते थे, लेकिन अब थक गए हैं। नगर निगम के एक्शन से उनके परिवार का भी चूल्हा बुझ गया है। नखड़ू ने कहा, ” हम कोई अपराधी नहीं थे, नशेड़ी नहीं थे। बस मेहनती लोग थे। क्या मेहनत अब गुनाह बन गया है? हम तो मेहनत करते थे, नगर निगम की एजेंसी श्रेया एंटरप्राइजेज को समय से किराया देते थे। हमें बस जीने की जगह चाहिए थी, वो भी छीन ली गई।”
नखड़ू की तरह ही नाइट बाजार में ठेले पर खाने-पीने का सामान बेचने वाले ऐसे दर्जनों परिवार हैं, जिनका जीवन इस बाजार से जुड़ा था। उन्हें हटाने से पहले न कोई ठोस सूचना दी गई और न ही कोई वैकल्पिक जगह मुहैया कराई गई। नगर निगम का कहना है कि फ्लाईओवर के नीचे का क्षेत्र अब स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत सुंदर बनाया जाएगा। वहां बेंचें लगेंगी और लाइटें सजेंगी, लेकिन क्या इन लाइटों की चमक उन अंधे घरों तक पहुंच पाएगी, जहां आज चूल्हा ठंडा पड़ा है?
नाइट बाजार में ठेला-ठेली लगाने वालों की आंखों में डर है। भविष्य का डर… बच्चों के भविष्य का और परिवार के बिखरने का डर। बनारस के गंगा घाटों पर हर शाम आरती होती है, दीप जलते हैं, लेकिन नाइट बाजार में ठेला-ठेलियों पर खाने-पीने का सामान बेचने वाले गरीबों के घर अब अंधेरे में हैं। नाइट बाजार में ठेला-ठेली लगाने वाले गरीब परिवारों के सवाल हवा में हैं, जिसका जवाब कोई नहीं दे रहा है। हर दिन वे इस उम्मीद में जागते हैं कि शायद कोई अधिकारी आए, कोई जगह बताए, कोई हल निकाले। लेकिन आजतक न कोई आया, न कोई जवाब।

नाइट बाजार में ठेला-ठेली लगाने वाले हासिये के समाज के लोगों का इकलौता सवाल यह है कि, “उनका अपराध क्या था? यही कि उन्होंने मेहनत की? यही कि उन्होंने रोजगार के लिए किसी पर बोझ बनने की जगह खुद का रास्ता चुना? सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर ये बाजार गलत था, तो इसे शुरू ही क्यों किया गया? क्या पहले की अनुमति अब अपराध बन गई? क्या वाकई विकास का मतलब है गरीब को उजाड़कर लाइट लगाना? क्या रोटी और रौशनी साथ नहीं चल सकते? जिनके जीवन की गाड़ी नाइट बाजार से चल रही थी, उन्हें क्या मिलेगा? उन्हें उजाड़ने से पहले कोई प्लान बी क्यों नहीं था? क्या रोटी और रौशनी साथ नहीं चल सकते? “
जानिए क्या है नाइट बाजार
नाइट मार्केट की स्थापना एक बड़े सपने के साथ की गई थी। यह सपना देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का था, जिन्होंने वाराणसी के ठेला-पटरी व्यवसायियों को सम्मानजनक रोजगार देने के लिए इस बाज़ार की नींव रखी थी। स्टेशन के ठीक सामने से लेकर चौकाघाट तक इस पूरे क्षेत्र को चुना गया, जहां कुल 83 दुकानें बनाई गईं। मकसद यह था कि गरीब तबके के लोग भी व्यवस्थित रूप से व्यापार कर सकें, सड़क की धूल और ठोकरों से निकलकर वे एक नई रोशनी में अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें।
नाइट बाजार स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत जुलाई 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों शुरू हुआ था। करीब 1.9 किलोमीटर तक फ्लाईओवर के नीचे दीवारों पर चित्रकारी कर बाजार बसाया गया था। खानपान, हस्तशिल्प और लोक संस्कृति को एक ही जगह पर जीवंत रखने की कोशिश की गई थी। शुरुआत में सब कुछ सुनियोजित लगा। धीरे-धीरे यह प्रोजेक्ट अव्यवस्था, लापरवाही और कथित भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता गया। 83 में से आधी से भी कम दुकानों का ही आवंटन हुआ। बाक़ी दुकानें आज भी सूनी पड़ी थीं। फ्लाईओवर के नीचे रोशनी, बेंच, मनोरंजन की व्यवस्था-यह सब एक नई बनारसी पहचान गढ़ने की कोशिश थी, लेकिन बाद में वह पहचान प्रशासनिक फाइलों की गर्द में खो गई है।

कैंट रेलवे स्टेशन के सामने जितने पिलर थे, उनमें से कुछ को सुंदरीकरण के लिए छोड़ दिया गया था। किसी पर “I Love Varanasi” लिखा गया, कहीं नाव की आकृति बनाई गई, कहीं झूले लगाए गए। लेकिन जो बाकी पिलर थे, उन्हें स्मार्ट सिटी परियोजना और संबंधित एजेंसियों ने कथित तौर पर भारी सिक्योरिटी राशि लेकर किराये पर दे दिया।
कई महिलाओं को 60 से 70 हज़ार रुपये किराये पर दुकानें आवंटित की गईं, जो आश्चर्यजनक है। जिनके लिए यह बाज़ार बनाया गया था-ठेले-पटरी वाले, फेरीवाले, छोटे दुकानदार, वे तो इस खर्च को वहन करने में असमर्थ थे। धीरे-धीरे ये दुकानें उनके हाथ से निकलती चली गईं। नाइट मार्केट का असल मकसद कहीं खो गया।
कुछ रोज पहले एक नया फरमान आया। नगर निगम प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया कि 48 घंटे के अंदर सभी दुकानदार अपनी दुकानें हटा लें। ज्यादातर दुकाने उखाड़ ली गई हैं और कुछ इसकी तैयारी में है। कहा जा रहा है कि अब इस क्षेत्र में 11 करोड़ रुपये का एक नया प्रोजेक्ट आएगा। यह सवाल बड़ा है कि जब पहले से 11 करोड़ रुपये खर्च करके एक नाइट मार्केट बनाया गया था, तो अब फिर इतनी ही धनराशि का एक नया प्रोजेक्ट क्यों? क्या पहले का प्रोजेक्ट असफल था या फिर यह केवल फंड की अदला-बदली और नई एजेंसी को मौका देने की कवायद है?
02 जुलाई को जब नगर निगम ने नाइट बाजार की दुकानों को खाली कराना शुरू किया, तो विरोध की लहर उठी। दुकानदारों ने हाथ जोड़े, विनती की, “साहब, थोड़ा वक्त दीजिए, सामान समेट लें, रोज़ी-रोटी चली जाएगी…” लेकिन नगर निगम के प्रवर्तन दल और पुलिस के सामने किसी की नहीं चली। 25 दुकानें बंद करा दी गईं। हालांकि अपर नगर आयुक्त संगम लाल यादव ने भारी विरोध के बाद कुछ घंटे की अंतिम मोहलत दी और कहा इसके बाद कोई सुनवाई नहीं होगी। बची हुई सभी दुकानों को शुक्रवार को रात के अंधेरे में जमींदोज कर दिया गया।
आम आदमी की जगह कहां है?
नगर निगम का कहना है कि नाइट बाजार के संचालन की जिम्मेदारी जिस श्रेया एजेंसी को दी गई थी, उसने नियमों का पालन नहीं किया। छह महीने से लगातार नोटिस दिए जा रहे थे, लेकिन दुकानें खाली नहीं की गईं। अब एजेंसी का अनुबंध रद्द हो चुका है। लेकिन सवाल यह है कि जब एजेंसी दोषी थी, तो सजा दुकानदारों को क्यों दी गई?
एजेंसी पर गंभीर आरोप हैं। पार्किंग और बिजली शुल्क के 2 करोड़ 76 लाख से ज्यादा बकाया हैं। जनवरी 2025 में ही एजेंसी का लाइसेंस रद्द कर दिया गया था। बावजूद इसके दुकानें चलती रहीं। एक अप्रैल 2025 को यहां गंभीर हादसा भी हुआ। सिलेंडर में आग लगने से कई दुकानें जलकर राख हो गईं, लेकिन इसके बाद भी न कोई ठोस कार्रवाई हुई, न कोई वैकल्पिक व्यवस्था बनाई गई।
ठेला-ठेली वालों का कहना है कि उन्होंने एजेंसी से वैध तरीके से दुकानें ली थीं। उनके पास एग्रीमेंट हैं। अब जब एजेंसी का अनुबंध रद्द हो गया, तो दुकानें खुद-ब-खुद अवैध घोषित कर दी गईं। बिना पुनर्वास, बिना विकल्प, एक झटके में सब कुछ खत्म कर देना क्या यही है स्मार्ट सिटी का मॉडल?
नाइट बाजार के संचालन में लगी श्रेया इंटरप्राइजेज वही एजेंसी थी जिसे तीन साल पहले स्मार्ट सिटी योजना के तहत चौकाघाट लहरतारा फ्लाईओवर के नीचे नाइट बाजार संचालित करने की जिम्मेदारी दी गई थी। शुरुआत में इसे यात्रियों की सुविधा के नाम पर शुरू किया गया था। यह सोचकर कि कैंट स्टेशन और बस स्टेशन जैसे भीड़भाड़ वाले इलाकों में रात के समय कुछ सुविधाएं मिलें, कुछ राहत मिले, लेकिन हुआ इसके उलट। दुकानों का आवंटन करने वाले श्रेया इंटरप्राइजेज के कर्ताधर्ता लापता है। अब किसी का फोन नहीं उठ रहा है।
आरोप एजेंसी पर हैं, ना कि उन छोटे दुकानदारों पर जिन्होंने अपने बच्चों की फीस, घर का किराया और दवाइयों का खर्च इसी दुकान से निकाला। नगर निगम और एजेंसी की खींचतान के बीच जो लोग पिस गए हैं अब वही सपना उनकी आंखों में चुभने लगा है। वे पूछ रहे हैं कि जब नाइट बाजार शुरू हुआ था तब क्या हमें किसी ने बताया था कि ये सिर्फ एक प्रयोग है जिसकी मियाद कुछ सालों की है?

नगर निगम के आयुक्त अक्षत वर्मा के निर्देश पर श्रेया इंटरप्राइजेज के खिलाफ बनारस के सिगरा थाने में धोखाधड़ी की धाराओं में केस भी दर्ज करा दिया है। पुलिस जांच कर रही है, लेकिन जिन लोगों ने इस जगह को अपनी रोजी-रोटी समझकर दुकानें सजाईं, वे अब असमंजस में हैं। उनका दोष कितना है, यह जांच का विषय हो सकता है, लेकिन प्रशासन की जिम्मेदारी भी कम नहीं थी। काशी की आत्मा से जुड़ा ये नाइट बाजार अब इतिहास बन रहा है। पहले जहां कला थी और अब वहां ताले हैं। जहां चाय की खुशबू थी, अब सन्नाटा है। जहां उम्मीदें थीं, अब सवाल हैं। काशी पूछ रही है कि अगर विकास का यही रास्ता है, तो उसमें आम आदमी की जगह कहां है?
क्या कहता है नगर निगम?
नगर निगम के जनसंपर्क अधिकारी संदीप श्रीवास्तव के मुताबिक, “फ्लाई ओवर के नीचे के इलाके को अब एक व्यवस्थित, स्वच्छ और आकर्षक सार्वजनिक स्थान के रूप में विकसित किया जाएगा। प्रस्तावित विकास कार्यों में यात्रियों की सुविधाओं और यातायात की सुगमता दोनों को ध्यान में रखा गया है। सबसे पहले यहां बैठने के लिए सुंदर और टिकाऊ सीटिंग बेंच लगाई जाएंगी, ताकि स्टेशन या बस स्टॉप से आने-जाने वाले यात्रियों को विश्राम का स्थान मिल सके। इन बेंचों को इस तरह डिजाइन किया जाएगा कि वे क्षेत्र की सुंदरता में भी इजाफा करें।”
“फ्लाई ओवर के नीचे पैदल चलने वालों के लिए पाथवे यानी वॉकवे तैयार किए जाएंगे। इन रास्तों से न केवल आवाजाही सुगम होगी बल्कि ट्रैफिक का दबाव भी कम होगा। खासकर वरिष्ठ नागरिकों, बच्चों और दिव्यांगजनों के लिए यह सुविधा अत्यंत सहायक होगी। ई-रिक्शा चार्जिंग स्टेशन की स्थापना इस क्षेत्र को पर्यावरण के अनुकूल बनाएगी। इससे न केवल ई-रिक्शा चालकों को सुविधा मिलेगी, बल्कि यात्रियों के लिए भी साफ, सुलभ और किफायती परिवहन का विकल्प उपलब्ध रहेगा।”
संदीप कहते हैं, “फ्लाईओवर के नीचे स्कल्पचर यानी मूर्तिकला के माध्यम से सांस्कृतिक पहचान को उकेरा जाएगा। साथ ही डेकोरेटिव लाइटिंग का विशेष इंतजाम होगा, जिससे यह स्थान रात में भी आकर्षक और सुरक्षित दिखेगा। रोशनी की व्यवस्था इस तरह की जाएगी कि वह सौंदर्य और सुरक्षा दोनों की भूमिका निभाए। पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी नगर निगम ने योजना बनाई है। यहां हॉर्टिकल्चर यानी बागवानी के अंतर्गत पेड़-पौधे लगाए जाएंगे, जिससे न केवल हरियाली बढ़ेगी, बल्कि यात्रियों को छांव और ताजगी का भी अनुभव मिलेगा। इसके अलावा पूरे क्षेत्र में एडवर्टाइजिंग पैनल लगाए जाएंगे, जिनका उपयोग सामाजिक जागरूकता, पर्यटक जानकारी और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में किया जाएगा।”
“यातायात की सुगमता के लिए टेबल टॉप क्रॉसिंग जैसी व्यवस्थाएं लागू की जाएंगी, जिससे वाहन नियंत्रित गति से गुजरें और राहगीरों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। नगर निगम की यह योजना काशी के इस हिस्से को एक नए रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश है। जहां पहले एक व्यावसायिक हलचल थी, अब वहां एक सुव्यवस्थित, स्वच्छ और सजावटी सार्वजनिक स्थल का निर्माण होगा। हालांकि सवाल अभी भी कायम है कि इस नई व्यवस्था में उन छोटे दुकानदारों की क्या भूमिका होगी, जिनकी आजीविका इसी नाइट बाजार से जुड़ी थी।”
सवालों का बाजार, जवाबों की चुप्पी
नाइट बाजार की हर गुमटी, हर ठेला, हर चूल्हा अब एक सवाल है। और इन सवालों के सामने स्मार्ट सिटी की लाइटें बहुत बौनी लगती हैं। नगर निगम कहता है कि फ्लाईओवर के नीचे अब रंगीन लाइटें होंगी, बेंच लगेंगी। लेकिन उन बेंचों पर अब कौन बैठेगा? वो मां-बाप जिनके बच्चों का स्कूल छूट गया? वो महिलाएं जिनका हाथ अब खाली है? क्या विकास का मतलब यही है कि गरीबों को हटाओ और रंग-बिरंगी लाइटें लगाओ? क्या रोटी और रौशनी एक साथ नहीं चल सकते?
बनारस के जगमगाते कैंट रेलवे स्टेशन के समाने नाइट बाजार जमींदोज हो गया है। अब वहां खामोशी और सन्नाटा है। स्टेशन के उजालों के नीचे अंधेरा गहरा होता जा रहा है। इस बाजार से वो लोग हटाए गए हैं जिन्होंने अपना घर, गांव, खेत छोड़कर बनारस को अपना शहर माना। अब वही शहर उन्हें पराया कर गया। यह कोई योजना की विफलता नहीं है। यह एक व्यवस्था की संवेदनहीनता है। एक सिस्टम, जिसने गरीब की रोज़ी को फ़ुटपाथ मान लिया और अमीर की गाड़ी के लिए रास्ता साफ कर दिया।

विकास तब तक अधूरा है जब तक उसमें हर वर्ग की जगह न हो। इस समय, बनारस के फ्लाईओवर के नीचे जिनकी जगह छीनी गई है, वो यही पूछ रहे हैं कि क्या उनके बच्चों की भूख, स्मार्ट सिटी की लाइटों से कम ज़रूरी है? शायद यही उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा अंधेरा है। नाइट बाजार एक सपना था-रोजगार का, आत्मनिर्भरता का, जिसे खुद सरकार ने शुरू किया था। अगर यह बाजार गलत था तो शुरू क्यों किया गया? अगर यह वैध था तो अचानक अवैध कैसे हो गया?
वाराणसी छावनी बोर्ड के पूर्व उपाध्यक्ष शैलेंद्र सिंह ने भी नाइट बाजार की एक गुटमी में चाय की दुकान खोली थी। नाम था सियासत चाय। इनकी गुमटी में भी ताले लग गए हैं। वह कहते हैं, “चिंता की बात यह भी है कि जो लोग वाकई वर्षों से इस बाजार में अपने काम से जुड़े थे, उन्होंने अपने घर चलाने की उम्मीद इसी प्रोजेक्ट से जोड़ी थी। उन्हें हटाने का आदेश देकर क्या उन्हें सड़क पर धकेला नहीं जा रहा? क्या यह प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि जिनके जीवन यापन का जरिया इसी बाजार से जुड़ा है, उनके लिए कोई विकल्प पेश करे? “
“अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट को ही ज़मीन से उखाड़ फेंकने की तैयारी थी तो यह केवल एक योजनागत असफलता नहीं, बल्कि उनके द्वारा देखे गए ‘गरीब कल्याण’ के सपने पर भी सवाल है। पीएम ने कभी नहीं कहा होगा कि गरीबों को यूं सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया जाए, लेकिन आज स्मार्ट सिटी के अधिकारी और स्थानीय एजेंसियां वही कर रही हैं। यह पूरी प्रक्रिया केवल स्मार्ट सिटी परियोजना की विफलता नहीं, बल्कि नगर निगम की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। किस आधार पर दुकानों का आवंटन हुआ? किनकी सिफारिश पर अवैध किरायेदारों को मौके दिए गए? क्या यह पूरी प्रक्रिया पारदर्शी थी? जांच तो नगर निगम और स्मार्ट सिटी के अफसरों के खिलाफ होना चाहिए, जिन्होंने घपला किया, कराया और सरकार की साख पर बट्टा लगाया है।”
शैलेंद्र कहते हैं, “अब वक्त है कि इस पूरे मामले की उच्च स्तरीय जांच हो। स्मार्ट सिटी के अधिकारियों, एजेंसियों और नगर निगम के जिम्मेदारों की भूमिका की समीक्षा हो। सबसे ज़रूरी, जिन गरीब व्यवसायियों को इस बाज़ार के भरोसे ज़िंदगी चलानी थी, उन्हें उनका हक दिया जाए। नाइट मार्केट को बचाना केवल एक निर्माण को बचाना नहीं है, यह उन सपनों को बचाना है जो एक प्रधानमंत्री ने अपने संसदीय क्षेत्र में गरीबों के लिए देखे थे। अगर समय रहते चेतावनी को नहीं सुना गया, तो आने वाले दिनों में यही नाइट मार्केट एक राजनीतिक विवाद का कारण बनेगा और इसकी जवाबदेही उनसे तय होगी जिन्होंने इसे बेचा और लूटने-खसोटने के बाद इसे मिटा दिया।”
प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में शैलेंद्र ने कहा है कि आखिर यह कैसा विकास है जहां गरीबों को उजाड़कर शहर को रौशनी से सजाया जाए? क्या बेंचों की चमक अब चूल्हों की आग से बड़ी हो गई है?”उन्होंने आगे लिखा, “काश यह सिस्टम उतनी ही संवेदना से सोचता, जितनी संवेदना ये लोग रोज़ जीते हैं। काश, विकास का अर्थ होता-सभी को साथ लेकर चलना, न कि पीछे छोड़कर रौशनी में अकेले बढ़ जाना। काश कोई सुने… उन ठेले वालों की कहानी, जिनका हर दिन एक संघर्ष है-रोटी, इज्ज़त और इंसानियत का।”
स्ट्रीट वेंडर्स को स्वरोजगार देने के लिए शुरू किया गया यह नाइट बाजार अब प्रशासन और निजी एजेंसियों की लापरवाही की भेंट चढ़ चुका है। जिन गरीबों ने अपनी खून-पसीने की कमाई से एजेंसी से दुकानें लीं, समय पर किराया अदा किया, बिजली का बिल चुकाया, आज उन्हीं को नगर निगम के अधिकारियों ने तबाह कर दिया।
“स्मार्ट सिटी योजना के तहत कार्यरत कंपनी श्रेया इंटरप्राइजेज हर महीने प्रति दुकानदार छह हजार रुपये किराया वसूल रही थी। हर किसी से 24 से 40 हज़ार रुपये तक सिक्योरिटी मनी भी ली गई थी। श्रेया इंटरप्राइजेज ने कई लोगों से दस-दस लाख रुपये तक वसूले उन जगहों पर दुकानें दिलाने के नाम पर, जहां खोलने की कोई वैधानिक अनुमति ही नहीं थी। यहां तक कि एक पिज़्ज़ा हट भी अवैध रूप से खुलवाया गया, जिसका उद्घाटन डीएम एस. राजलिंगम ने किया था।”
अनोखा विरोध, सड़क पर मांगी भीख
बनारस में ठेला पटरी वालों पर एक्शन सिर्फ नाइट बाजार तक सीमित नहीं है। समूचे शहर में इनके खिलाफ मुहिम चलाई जा रही है। इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई के विरोध में अब विरोध का एक नया और अनोखा तरीका भी सामने आया है। ठेला-पटरी व्यवसाइयों ने पीएम और सीएम की तस्वीरें हाथों में लेकर 04 जुलाई 2025 को सड़क पर भीख मांगकर विरोध जताया। इस दौरान अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई पर नाराजगी जताई। साथ ही वेंडिंग जोन में स्थापित करने की मांग की।
ठेला लगाकर सड़क किनारे फल, सब्जी और अन्य खाद्य सामग्री बेचने वाले दुकानदारों का कहना है कि प्रशासनिक कार्रवाई के कारण उनकी आजीविका पूरी तरह से बाधित हो गई है। लोगों के सड़क किनारे खड़े होकर खरीदारी करने से यातायात जाम की समस्या उत्पन्न होती है, इसी को आधार बनाकर प्रशासन द्वारा इन व्यापारियों को हटाया जा रहा है। कुछ दिन पहले पुलिस कमिश्नर मोहित अग्रवाल ने गोदौलिया चौराहे पर चेतावनी देते हुए कहा था कि जो भी सड़क पर अतिक्रमण करता हुआ पाया जाएगा, उसके खिलाफ गैंगस्टर एक्ट और गुंडा एक्ट के तहत कार्रवाई की जाएगी। इसके बाद कई ठेला व्यापारियों पर केस दर्ज हुए और उनका ठेला जब्त किया गया, जिससे उनमें आक्रोश फैल गया है।
इस सख्त कार्रवाई के विरोध में मैदागिन क्षेत्र के दर्जनों ठेला पटरी व्यापारी सड़क, मंदिर और गलियों में भीख मांगते नजर आए। ठेला पटरी व्यवसायी संघ के अध्यक्ष राजू शर्मा ने बताया कि प्रशासन की धमकी और कानूनी कार्रवाई के डर से उन्होंने ठेला लगाना छोड़ दिया है। राजू कहते हैं, “हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमें 20,000 से 50,000 रुपये तक का लोन दिया था और अब जब व्यवसाय ही नहीं कर पा रहे तो लोन कैसे चुकाएंगे? हमें रोज़गार का वैकल्पिक स्थान दिया जाए, जहां वे शांतिपूर्वक अपना व्यवसाय जारी रख सकें।”

कांग्रेस के महानगर अध्यक्ष राघवेंद्र चौबे सरकार की नीति और नीयत पर गंभीर सवाल खड़ा करते हैं। वह कहते हैं, ” मोदी-योगी सरकार ‘स्वरोज़गार’ की बात करती है, तो उन स्वरोज़गारियों की रोज़ी-रोटी पर यूं रात के अंधेरे में बुलडोजर क्यों चलता है? एक तरफ शहर भर में ठेला-पटरी पर सामान बेचने वालों को उजाड़ा जा रहा है और दूसरी ओर नाइट मार्केट में दुकान लगाने वालों की गुमटियों को रातो-रात जमींदोज कर दिया गया। वहां ज्यादातर ठेला-पटरी वाले थे। कोई चाय बेचता था, कोई चाट-गोलगप्पे, तो कोई बच्चों की खिलौनों की दुकान चलाता था। यही उनकी दुनिया थी, यही उनकी रोज़ी-रोटी। विकास के नाम पर जब बुलडोजर चलता है, तब केवल ईंट-पत्थर नहीं गिरते, इंसान की उम्मीदें भी टूटती हैं।”
“अब नगर निगम ने श्रेया इंटरप्राइजेज का ठेका रद्द किया, तो सारी ज़िम्मेदारी उन गरीब दुकानदारों पर डाल दी गई जो इस सिस्टम पर भरोसा कर अपने सपनों की छोटी दुकानें चलाने लगे थे। यह सिर्फ़ एक योजना की विफलता नहीं है, यह व्यवस्था की संवेदनहीनता है। एक ऐसा सिस्टम, जिसने गरीब की रोज़ी को फुटपाथ मान लिया और अमीर की गाड़ी के लिए रास्ता साफ़ कर दिया। जब तक विकास में हर वर्ग की बराबरी से भागीदारी नहीं होती, वह अधूरा है।”
कांग्रेस नेता राघवेंद्र कहते हैं, “वाराणसी का यह नाइट मार्केट सिर्फ एक बाजार नहीं था। वह गरीबों की जीने की ज़िद थी। मगर वहां ज़िद नहीं, ज़मीन धंसी। अब सवाल यह है कि जिनका सब कुछ उजड़ गया उन्हें फिर कौन बसाएगा? क्या स्मार्ट सिटी का सपना गरीबों की कीमत पर पूरा होगा या फिर इस शहर में अब रौशनी सिर्फ फ्लाईओवर की लाइटों में सजेगी, न कि उस ठेलेवाले की चाय में जो दिन भर खड़ा रहता था, सिर्फ दो वक्त की रोटी के लिए। आज बनारस के फ्लाईओवर के नीचे, जिनकी जगह छीन ली गई है। वे सिर्फ़ एक ही सवाल पूछ रहे हैं, “क्या हमारे बच्चों की भूख, स्मार्ट सिटी की लाइटों से कम ज़रूरी है?”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक है)