हाल ही में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की और अमेरिकी उप राष्ट्रपति जेडी वेंस के बीच जो संवाद हुआ, वह सिर्फ दो नेताओं की बहस भर नहीं थी, बल्कि यह वैश्विक राजनीति में साम्राज्यवाद और पूंजीवादी हितों की टकराहट का खुला प्रदर्शन था। इसमें ट्रंप की प्रतिक्रियाएं भी एक बड़े ऐतिहासिक संदर्भ में रखे जाने योग्य हैं। यह पूरा घटनाक्रम अमेरिकी साम्राज्यवाद, सैन्य पूंजीवाद और युद्ध से संचालित अर्थव्यवस्था का ही एक और चरण है।
जेलेंस्की: साम्राज्यवाद के प्यादे का संकट
वोलोदिमीर जेलेंस्की को यूक्रेन में पश्चिमी देशों द्वारा “लोकतंत्र का चेहरा” बताकर स्थापित किया गया। असल में, वे अमेरिकी और यूरोपीय सैन्य-औद्योगिक हितों के लिए काम करने वाले एक प्रॉक्सी नेता हैं। 2014 में हुए मैदान विद्रोह (Maidan Coup) और उसके बाद रूस-यूक्रेन संघर्ष को देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यूक्रेन को पश्चिमी ताकतों ने रूस के ख़िलाफ़ एक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया। जेलेंस्की का सत्ता में आना भी इसी साम्राज्यवादी योजना का हिस्सा था।
यह लड़ाई यूक्रेनी जनता की नहीं है, बल्कि पूंजीपति वर्ग की भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की उपज है। जेलेंस्की जिस “लोकतंत्र और संप्रभुता” की बात करते हैं, वह असल में अमेरिकी और नाटो समर्थित सैन्य गठजोड़ का विस्तार भर है। यूक्रेन को लगातार हथियारों से भरकर अमेरिका ने इसे एक रणक्षेत्र बना दिया है, जहां असल कीमत वहाँ के श्रमिकों, किसानों और आम नागरिकों को चुकानी पड़ रही है।
जेडी वेंस: अमेरिकी साम्राज्यवाद में दरारें?
उप राष्ट्रपति जेडी वेंस का यह कहना कि “यूक्रेन को दी जाने वाली मदद से अमेरिकी करदाताओं का नुकसान हो रहा है,” एक दिलचस्प मोड़ है। यह ट्रंपवादी राजनीति की ओर झुकाव रखने वाले रिपब्लिकनों की साम्राज्यवादी रणनीति में बदलाव को दिखाता है। अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक तंत्र की प्राथमिकता अब चीन पर केंद्रित हो रही है, इसलिए रूस के ख़िलाफ़ यूक्रेन में अनावश्यक संसाधन लगाना एक मुद्दा बन रहा है।
हालांकि, जेडी वेंस का यह विरोध अमेरिकी जनता के हितों की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि अमेरिकी पूंजीपतियों के नीतिगत बदलाव का संकेत है। जब तक यूक्रेन युद्ध से अमेरिकी हथियार कंपनियों और ऊर्जा लॉबी को फायदा हो रहा था, तब तक वेंस और उनके साथी चुप थे। अब जब पूंजीवादी हितों को दिशा बदलनी है, तो यह नया विमर्श खड़ा किया जा रहा है कि “हमें पहले अमेरिका की चिंता करनी चाहिए।” यह वही रणनीति है, जो ट्रंप 2016 से अपनाते आए हैं—”अमेरिका फर्स्ट”।
ट्रंप: पूंजीवाद का एक और चेहरा
डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान और पारंपरिक साम्राज्यवादी धड़े से अलग एक “पॉपुलिस्ट” नेता के रूप में देखा जाता है, लेकिन असल में वे भी पूंजीवाद के ही एक और चेहरे हैं। ट्रंप का यह कहना कि “अगर वे सत्ता में आते हैं, तो रूस-यूक्रेन युद्ध 24 घंटे में खत्म कर देंगे,” एक भ्रामक बयान है। इसका असली मतलब यह है कि अमेरिका को यूरोपीय युद्धों में नहीं, बल्कि एशिया (चीन) और घरेलू औद्योगिक पुनर्गठन में निवेश करना चाहिए।
असल में, ट्रंप और बाइडन की नीतियों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। दोनों ही अमेरिकी पूंजीवाद को बनाए रखने के लिए अलग-अलग रणनीतियां अपनाते हैं। बाइडन नाटो विस्तार और सैन्य गठबंधनों के माध्यम से अमेरिका के प्रभुत्व को बनाए रखना चाहते हैं, जबकि ट्रंप इसे आंतरिक पुनर्गठन और “इकोनॉमिक नेशनलिज़्म” के माध्यम से करने की कोशिश कर रहे हैं।
पूंजीवाद और युद्ध: मजदूरों के लिए विनाश, पूंजीपतियों के लिए मुनाफ़ा
इस बात को दोहराने की जरूरत नहीं कि पूंजीवाद अपने ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। साम्राज्यवादी युद्ध इन अंतर्विरोधों को हल करने का तरीका होते हैं। लेनिन ने अपनी किताब Imperialism: The Highest Stage of Capitalism में यह स्पष्ट किया कि पूंजीवाद का अंतिम चरण साम्राज्यवाद ही होता है, जहां युद्ध पूंजी संचय का एक आवश्यक साधन बन जाता है।
यूक्रेन युद्ध इसका एक सटीक उदाहरण है। अमेरिका और पश्चिमी यूरोप की हथियार कंपनियां इस संघर्ष से अरबों डॉलर कमा रही हैं, जबकि आम यूक्रेनी मजदूर और रूसी सैनिक अपनी जानें गंवा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती महंगाई, ऊर्जा संकट और खाद्यान्न संकट भी इसी युद्ध का नतीजा हैं।
और अंत में
जेलेंस्की पश्चिमी साम्राज्यवाद का मोहरा हैं, जो “लोकतंत्र” के नाम पर यूक्रेन को नष्ट कर रहे हैं। जेडी वेंस और ट्रंप जैसे नेता अमेरिकी पूंजीवाद के नए स्वरूप की ओर इशारा कर रहे हैं, लेकिन उनकी प्राथमिकताएं पूंजीपतियों के हितों से ही संचालित होती हैं। असली समस्या यह है कि युद्ध और पूंजीवाद का रिश्ता अटूट है- जब तक पूंजीवाद रहेगा, युद्ध इसके अस्तित्व का एक अनिवार्य हिस्सा रहेगा।
इसलिए, अगर किसी को वास्तव में युद्धों को रोकना है और विश्व शांति स्थापित करनी है, तो उसे पूंजीवाद के मूल ढांचे को बदलने की दिशा में सोचना होगा। केवल सत्ता बदलने या “अमेरिका फर्स्ट” जैसी नीतियों से कुछ भी नहीं बदलेगा। सवाल यह है कि हम कब तक पूंजीवादी झूठ और साम्राज्यवादी छल को नज़रअंदाज करते रहेंगे?
(सचिन श्रीवास्तव पत्रकार हैं।)
+ There are no comments
Add yours