दिल्ली नरसंहार की पूरी दास्तान

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नई दिल्ली। दिल्ली दंगा, दंगा नहीं सत्ता प्रायोजित एक कार्यक्रम था। जिसे केंद्रीय सत्ता के साथ मिलकर संघ और उसकी दूसरी एजेंसियों ने अंजाम दिया था। और वह बिल्कुल शीर्ष सत्ता से संचालित था। जिसकी स्वीकारोक्ति एक दूसरे तरीके से खुद पीएम मोदी ने कल बीजेपी सांसदों को दिए गए अपने भाषण में की। उन्होंने पहले कहा कि सांसदों को शांति के लिए काम करना चाहिए। फिर उसी सांस में उन्होंने कहा कि दूसरे सभी दलगत स्वार्थ से संचालित होते हैं और हमारे लिए देश हित सर्वोपरि है। आगे उन्होंने कहा कि एक हिस्सा अभी भी देश में ‘भारत माता की जय’ कहने से हिचकता है।

लिहाजा यह सब ठीक करना होगा। और देशहित की यह लड़ाई आखिर में जीतनी ही होगी। आमतौर पर संसद सत्र के दौरान बीजेपी संसदीय दल की बैठक में पीएम के दिए भाषण की कोई प्रेस विज्ञप्ति नहीं आती है। लेकिन पहली बार इसकी एक विज्ञप्ति जारी हुई। हालांकि यह बीजेपी के लेटर पैड पर नहीं थी। इस बयान के साथ ही पीएम मोदी ने यह संकेत दे दिया कि अभी आगे भी इस तरह का कार्यक्रम जारी रहेगा।

दूसरी तरफ अगर किसी को याद हो तो दंगों से ठीक पहले आरएसएस चीफ मोहन भागवत ने दिल्ली की यात्रा की थी। और उन्होंने गांधी की हत्या वाले स्थल बिड़ला भवन यानी गांधी स्मृति का दौरा किया था। दौरे की खबर सुनकर सभी लोगों के कान खड़े हो गए थे। क्योंकि वहां जाकर श्रद्धांजलि देने की बात तो दूर आज तक किसी सरसंघचालक ने गांधी का नाम भी लेना जरूरी नहीं समझा है। आमतौर पर संघ गांधी के बरख्श उनके हत्यारे गोडसे को ही प्रमोट करता रहा है। लेकिन भागवत की इस यात्रा के पीछे एक बड़ा संदेश छिपा था जिसे वह पूरे देश को देना चाहते थे।

बाहर रखा गया मुबारक का शव।

इस दक्षिणपंथी खेमे में यह परंपरा सी बन गयी है कि किसी चीज को खत्म करने से पहले उसके सामने शीश नवाया जाए। मोदी ने कभी संसद के साथ ऐसा किया तो कभी संविधान के साथ। और उसी के बाद उन संस्थाओं की ऐसी की तैसी शुरू हो गयी थी। गोडसे ने यही काम गांधी के साथ किया था। भागवत की यह यात्रा दिल्ली को गांधी से छीनने और उसे गोडसे के हवाले करने का संकेत भर था। 

बहरहाल अब बात करते हैं दिल्ली दंगे की। वैसे इसके लिए नरसंहार या फिर अंग्रेजी में जेनोसाइड सबसे उचित शब्द होगा। इसको समझने से पहले बात उन हालात की जिसमें यह दंगा हुआ। बहुत लोगों का कहना है कि ट्रंप यात्रा पर थे लिहाजा केंद्र सरकार भला क्यों चाहेगी कि उस दौरान इस तरह का कोई फसाद हो जिससे देश और खुद सरकार की छवि को बट्टा लगे। शायद सामान्य परिस्थितियों या फिर किसी और सरकार के लिए यह बात बिल्कुल सच है। लेकिन मोदी के लिए यह बात नहीं कही जा सकती है। मोदी एक खास विचारधारा के साथ देश को एक खास दिशा में ले जाना चाहते हैं। और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस तरह का कोई समझौता उनके लिए बड़ा मायने नहीं रखता है।

दुनिया पहले से ही जानती है कि गुजरात दंगों के प्रायोजक मोदी थे। लिहाजा एक और दंगे का दाग अगर मोदी के दामन पर लग भी जाता है तो उससे न तो मोदी को फर्क पड़ने वाला है और न ही दुनिया को जिसने सब कुछ जानते हुए भी उन्हें स्वीकार कर लिया है। वैसे भी अगर अमेरिका मोदी के साथ है तो बाकी की चिंता उन्हें नहीं करनी है। और मोदी इस बात को अच्छे तरीके से जानते हैं कि ट्रंप को कैसे पटाए रखा जा सकता है। अमेरिका को भारत या फिर किसी भी देश से सिर्फ और सिर्फ मुनाफा चाहिए। और मोदी हथियारों की खरीद से लेकर हर वह सौदा करने के लिए तैयार हैं जिसमें अमेरिका का फायदा हो। फिर भला अमेरिका क्यों मोदी के खिलाफ होने जा रहा है? और वैसे भी इस तरह की किसी हिंसा और युद्ध में हथियारों की खरीद-फरोख्त और बढ़ जाती है। सुरक्षा का वास्ता देकर जनमत को भी उसके लिए तैयार करना आसान हो जाता है।

और अमेरिका तो इस तरह के मौकों को पैदा कर हथियारों का कारोबार करने का माहिर खिलाड़ी रहा है। इराक-ईरान युद्ध रहा हो या कि लादेन के जरिये आतंकवाद की पैदाइश। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे। ट्रंप की यात्रा के दौरान दंगा होने से बदनामी की बात की जहां तक बात है तो संघ ने उसका भी उल्टा फायदा निकालने की योजना बना ली थी। जिसके तहत दंगों का दोष भी मुसलमानों के सिर यह कहते हुए मढ़ देना था कि ये तो शुरू से ही देशद्रोही रहे हैं। और एक बार फिर भारत की छवि को दुनिया में नुकसान पहुंचाने के लिए इन लोगों ने ही उसे अंजाम देिया है। और मौजूदा समय में संघ समेत उसके सारे संगठन इसी लाइन पर काम कर रहे हैं। जिसमें पूरी हिंसा को जेहादी हिंसा बतायी जा रही है। और दंगे को मुस्लिम प्रायोजित। गृहराज्य मंत्री रेड्डी का बयान हो या फिर शांति के नाम पर कपिल मिश्रा द्वारा निकाला गया उन्मादी जुलूस सभी में इसी लाइन को आगे बढ़ाया जा रहा है।

अब आते हैं दंगों के क्षेत्र पर। यमुना पार नया बसा इलाका है। यहां की पूरी बसाहट 1980 के बाद की है। अवैध कालोनियां हैं और एक दौर तक इलाके के लोग तमाम सुविधाओं से महरूम रहे हैं। गावों में मूलत: गूर्जरों की आबादी रही है। बाहर से आए लोगों ने उनकी ही जमीनों पर अपने आशियाने बनाए हैं। इस तरह से पूरी आबादी का यहां विस्तार हुआ है। इनमें भी ज्यादातर इलाके मुस्लिम बहुल हैं। बाबरपुर, सीलमपर, नूर इलाही, चांदबाग, मौजपुर, मुस्तफाबाद, जाफराबाद से लेकर तमाम बस्तियां हैं जहां बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों की है।

यहां स्वाभाविक रूप से गूर्जरों और मुसलमानों के बीच एक अतंरविरोध काम करता रहा है। वह यह कि बाहर से आए लोग उनके सामने उन्हीं की जमीनों पर बस कर बढ़ते रहे और वे लगातार पीछे छूटते चले गए। लिहाजा बाहरी और भीतरी का यहां एक स्थाई अंतरविरोध है। इसके साथ ही गूर्जरों को यह दुख भी सालता रहा है कि उन्हें अपनी जमीनों की अपेक्षित कीमतें नहीं मिली। जैसा कि नोएडा और उसके आस-पास के इलाकों में हुआ। जहां के गूर्जर अथारिटी द्वारा दी गयी मुआवजे की राशि से मालामाल हो गए। इस पूरी कवायद में दिल्ली के इस इलाके के गूर्जर पीछे छूट गए। साथ ही अवैध कालोनियों के रजिस्ट्री न होने के चलते उनकी कीमतों में भी तुलनात्मक रूप से वह बढ़ोत्तरी नहीं हो पायी, जिसकी अपेक्षा थी।

लिहाजा यमुना पार के इन गूर्जरों के जेहन में एक अजीब किस्म का स्थाई अवसाद भर गया है। और इसी चीज का फायदा बीजेपी उठाती रही है। अनायास नहीं जब पूरी दिल्ली से बीजेपी का सफाया हो गया है तो उसकी आठ सीटों में अगर रामवीर बिधूड़ी की सीट को भी जोड़ लिया जाए, तो 7 सीटें यमुनापार के इन्हीं इलाकों से आयी हैं। इससे किसी के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि पूरा इलाका सांप्रदायिकता के विस्फोटक गोले पर बैठा था। बस उसे एक चिंगारी की जरूरत थी।

लाख कोशिशों के बाद भी शाहीन बाग को बीजेपी सांप्रदायिक रंग देने में नाकाम हो रही थी। दिल्ली चुनाव के दौरान अमित शाह ने क्या-क्या तरीके नहीं अपनाए लेकिन मामला सांप्रदायिक रंग नहीं ले सका। और आखिर में चुनाव के नतीजे भी इसी बात को साबित किए। उस चुनाव के बाद जो अवसाद पैदा हुआ वह बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व और उसके पूरे वजूद के लिए खतरनाक साबित हो रहा था। लिहाजा पार्टी को उससे बाहर निकलना था। साथ ही पूरे देश के स्तर पर एक संदेश देने के साथ ही सांप्रदायिक-फासीवादी अभियान को उसके दूसरे चरण में ले जाना था। और उसके लिए दिल्ली से बेहतर स्थान भला और कौन हो सकता था। गुजरात के आनंद में ट्रंप की यात्रा के दौरान मुसलमानों के एक पूरे गांव को जला दिया गया लेकिन उसकी कहीं कोई खबर तक नहीं बनी। लेकिन दिल्ली की एक छोटी सी घटना पूरे देश की निगाह में आ जाती है।

लिहाजा मौका आया चंद्रशेखर आजाद द्वारा बुलाए गए बंद का। चुनाव हारने के बाद कपिल मिश्रा का राजनीतिक भविष्य दांव पर लग गया था। साथ ही बीजेपी में नये सिरे से किसी सांगठनिक फेरबदल में अपने स्थान की पुख्तगी के लिए भी इस तरह की पहल उनकी जरूरत बन गयी थी। जाफराबाद के पास सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों ने भारत बंद के दिन दलितों के साथ मिलकर करावलनगर की मुख्य सड़क को जाम कर दिया। मुख्य मार्ग होने के चलते आने-जाने वालों के लिए परेशानी खड़ी होने लगी। कपिल मिश्रा के लिए मानो यह मुंहमांगी मुराद थी।

उसने अपने समर्थकों और गुर्गों के साथ मौके पर पहुंचकर क्षेत्र के डीएसपी की मौजूदगी में जो चेतावनी दी वह दंगे की पूर्वपीठिका बन गयी। चेतावनी के अगले ही दिन शाम को इलाकों में दंगा शुरू हो गया। दरअसल पहले से खराब इलाके के माहौल को सड़क जाम ने और खराब कर दिया था। इस बात में कोई शक नहीं कि सीएए अभी सिर्फ मुसलमानों के ही मुद्दे के तौर पर देखा जा रहा है। पढ़े-लिखे और सेकुलर हिंदुओं को छोड़ दिया जाए तो आम हिंदू को उसमें अपनी कोई भूमिका नजर नहीं आ रही है। लिहाजा सड़क जाम के बाद आरएसएस और बीजेपी के सक्रिय तत्वों ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ पहले से ही बने गुस्से को और हवा दे दी।

कपिल मिश्रा के भाषण के बाद और दंगे शुरू होने से पहले जगह-जगह ईंटों-पत्थरों तथा कतलियों की ट्रैक्टर ट्रालियों से ढुलाई की खबरें और तस्वीरें दोनों आनी शुरू हो गयी थीं। इस दंगे की आशंका राजधानी में रहने वाला हर शख्स अगर महसूस कर रहा था तो यह कहना बेमानी होगा कि सरकार की खुफिया एजेंसियां इससे अनजान थीं। लेकिन पूरी मशीनरी हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। और दंगा शुरू होने और उसके जारी रहने के बाद जो तस्वीरें सामने आयीं उसने इस बात को साबित कर दिया कि इस काम में पुलिस और दंगाइयों की पूरी मिलीभगत थी। और जगह-जगह वह दंगाइयों के लिए संरक्षण का काम कर रही थी।

यह अनायास नहीं है कि दंगाई तलवारों, लाठियों और तमंचों से अल्पसंख्यकों पर हमले करने के बाद भागकर पुलिस के पीछे छुप जाया करते थे। और इस तरह से दोनों ने मिलकर मिलकर जनसंहार के इस कार्यक्रम को संचालित किया। उस दौरान की तस्वीरें बताती हैं कि इलाके की सभी मुख्य सड़कों पर दंगाइयों का कब्जा था। पुलिस या तो नष्क्रिय थी या फिर सक्रिय रूप से उनका साथ दे रही थी। कहीं भी कोई एक तस्वीर या वीडियो सामने नहीं आया जिसमें पुलिस दंगाइयों पर लाठीचार्ज की हो। जगह-जगह की एक तरह की सूचना है। मुख्य सड़कों पर मौजूद दंगाई मौके-मौके पर गलियों में घुसकर हमले कर रहे थे। और अल्पसंख्यकों की संपत्तियों को निशाना बना रहे थे।

अल्पसंख्यकों की तीन चीजें दंगाइयों के निशाने पर थीं। उनकी बड़ी संपत्तियां, जान और इबादतगाहें। जगह-जगह चुन-चुन कर इनको निशाना बनाया गया। इसीलिए मौतों की संख्या हो या फिर संपत्तियों का नुकसान या मस्जिदों की तबाही। ये तीन चीजें सबसे ज्यादा देखने को मिली हैं। आम तौर पर बड़ी दुकानों को निशाना बनाया गया है। उसमें भी ऐसी दुकानें जो होलसेल की थीं। मसलन नूर-इलाही में ताले की एक होलसेल की दुकान को जलाकर खाक कर दिया गया। गोकुलपुरी में आग के हवाले की गयी दवा की एक होलसेल का मैं खुद प्रत्यक्ष गवाह हूं।

एक पूरी टायर मार्केट जला दी गयी। कारों का पूरा काफिला राख में तब्दील कर दिया गया। इस हमले में मस्जिदें खासकर दंगाइयों के निशाने पर रहीं। गोकुलपुरी की भव्य जन्नती मस्जिद को सिलेंडर लगाकर दंगाइयों ने उड़ा दिया। और फिर उसके ऊपर भगवा झंडा फहरा दिया। पांचवें पुस्ता पर स्थित गांवड़ी की खूबसूरत अज़ीज़िया मस्जिद को आग के हवाले कर दिया गया। यहां तक कि इनमें रखे पवित्र कुरान को भी नहीं बख्शा गया। खजूरी खास के पास स्थित ओल्ड गढ़ी मेड़ू गांव में मुसलमानों के 40 घरों को पहले जलाया गया और उसके बाद निर्माणाधीन मस्जिद को तहस-नहस कर दिया गया।

इन घरों के सभी लोग पलायन कर इस समय गांव से कुछ दूरी पर स्थित सामुदायिक भवन में शरणार्थी का जीवन गुजार रहे हैं। अशोक नगर की वह मस्जिद पूरी दुनिया में मशहूर हो चुकी है जिसकी मीनार पर चढ़कर दंगाइयों ने भगवा फहराया। वह एक तरह से मुसलमानों पर दंगाइयों के विजय का ऐलान था। जहां तक मौतों का सवाल है तो लोगों के सीने को निशाना बना-बना कर गोलियां दागी गयी हैं। और बहुत स्थानों पर तो लोगों ने बताया कि खुद पुलिस ने उनको अंजाम दिया।

रही मोडस आपरेंडी की बात तो बताया जा रहा है कि दंगाइयों का एक बड़ा हिस्सा बाहर से लाया गया था। जिसमें लोनी से लेकर हापुड़ और दिल्ली तथा हरियाणा के भी कुछ हिस्सों के लोग शामिल थे। इनमें समुदाय के तौर पर गूर्जरों की केंद्रीय भूमिका थी। इस तरह के कई ह्वाट्सएप चैट और आडियो सुने जा सकते हैं जिनमें दंगाइयों को संगठित तरीके से काम पर लगाया गया था। कई जगहों पर मुस्लिम बस्तियों में पकड़े गए हमलावरों ने अपने बाहरी होने का खुलासा किया। जिनके कई वीडियो वायरल हो चुके हैं। दिलचस्प बात यह है कि उन्हें मारने की जगह लोगों ने सकुशल पुलिस या फिर उनके परिजनों के हवाले करना उचित समझा।

इस बात में कोई शक नहीं कि इन बाहरी तत्वों की भीतर के लोगों के साथ साठ-गांठ थी। जिसमें संघ से जुड़ी एजेंसियों ने पुल का काम किया। और फिर पुलिस के संरक्षण में नरसंहार के इस पूरे कार्यक्रम को अंजाम दिया गया। इस तरह से तीन दिनों 23, 24 और 25 फरवरी तक यमुनापार की इन सड़कों पर दंगाइयों का राज रहा। और पुलिस निष्क्रिय रही या फिर सक्रिय भी हुई तो दंगाइयों के पक्ष में। दंगाइयों के हाथों में हथियार बता रहे थे कि दंगा किस स्तर पर प्रायोजित था। तलवारों की जगह अबकी तमंचों की भरमार थी। सड़क पर उतरे हर तीसरे शख्स के हाथ में तमंचा था। ऐसा लगता है कि तमंचे की बड़े स्तर पर सप्लाई हुयी थी।

इस बात में कोई शक नहीं कि गुस्से में ही सही कुछ जगहों पर मुसलमानों ने भी हमला किया है। लेकिन ज्यादातर जगहों पर उनकी तरफ से यह सब कुछ आत्म रक्षा में किया गया था। हिंदुओं की मौतें भी इन्हीं परिघटनाओं का नतीजा हैं। जिनमें हमला करने के दौरान हमलावर पकड़ लिए गए या फिर किसी दूसरी वजह से उसके शिकार हो गए। लिहाजा इस बात का किसी को भ्रम नहीं रहना चाहिए कि संघ प्रायोजित इस दंगे में हिंदू हमलावर की भूमिका में नहीं रहा है।

वरना इसका क्या जवाब है कि दुकानें जलीं तो मुसलमानों की। इबादतगाहें खाक हुईं तो वह भी मुसलमानों की और मरे भी तो सबसे ज्यादा मुसलमान। वरना ऐसी एक भी दुकान जलने की सूचना नहीं है जो हिंदू की रही हो। एक भी मंदिर नहीं है जिसे दंगे में कोई क्षति पहुंची हो। यहां तक कि कई जगहों से इस तरह की सूचनाएं आयी हैं कि दंगाइयों के हमले के दौरान मुसलमानों ने मानव श्रृंखला बना कर मंदिरों की रक्षा की। कई जगहों पर तो रात भर जगकर उनकी रक्षा करने की खबरें मिली हैं।

दंगा किस स्तर पर प्रायोजित था वह दंगे के दौरान सामने आये चेहरों के इस्तेमाल से देखा जा सकता है।  शाहरूख को पोस्टर ब्वॉय बना दिया गया था। हाथ में पिस्टल लहराती उसकी तस्वीरें वायरल कर दी गयीं। न केवल उसका नाम सार्वजनिक कर दिया गया बल्कि पुलिस ने यहां तक झूठ बोला कि उसे गिरफ्तार कर लिया गया है। जबकि सच्चाई बिल्कुल दूसरी थी। आप पार्षद ताहिर हुसैन को दंगे का मास्टरमाइंड करार दे दिया गया। और अब जो सच्चाई सामने आ रही है उसको सुनकर ऐसा कहने वालों के लिए अपना मुंह छुपाना मुश्किल हो जाएगा। पुलिस और सरकारी महकमे से जिन दो मौतों को सबसे ज्यादा प्रचारित और प्रसारित किया गया। उन पर भी कई तरह के सवाल हैं।

मसलन रतन लाल डीसीपी आफिस में तैनात थे और वह उस समय फील्ड ड्यूटी पर नहीं थे। उनकी मौत मौजपुर के गली नंबर सात के तिकोने पर हुई है जो एक हिंदू बहुल इलाका है। इसके साथ ही आईबी के सिपाही अंकित शर्मा उस दिन ड्यूटी पर नहीं थे। और उनकी मौत के बारे में भी उनके भाई द्वारा ‘वाल स्ट्रीट जनरल’ को दिया गया बयान कई तरह के संदेह पैदा करता है। लेकिन इन सारी मौतों को ईंधन बनाकर दंगे की आग को और भड़का दिया गया। और इस मामले में मीडिया की जो आपराधिक और बर्बर भूमिका सामने आयी है उसकी इतिहास में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी।

नोट- इन पंक्तियों का लेखक घोंडा, ब्रह्मपुरी, नूर इलाही, गोकुलपुरी, चांद बाग, गांवड़ी, खजूरी खास आदि दंगा ग्रस्त इलाकों का दौरा कर चुका है।  

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)    

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