पंजाब ने क्यों नरेंद्र मोदी को अपनी धरती पर कभी मजबूती से पांव नहीं जमाने दिया

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इस बार के लोकसभा चुनाव में पंजाब में नानक के लोगों ने भाजपा को खाता भी खोलने नहीं दिया। पंजाब की 13 लोकसभा सीटों में कांग्रेस ने 7 और आम आदमी पार्टी ने 3 सीटों पर जीत हासिल की। 1 सीट अकाली दल और 2 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की। सिर्फ 2 सीटें ऐसी थीं, जहां भाजपा जहां दूसरे स्थान पर रही। 11 सीटों पर भाजपा तीसरे या चौथे स्थान पर रही। राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन की साझेदार कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को कुल मिलाकर 52.32 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए। हालांकि पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अलग-अलग चुनाव लड़े थे। दोनों पार्टियों का वोट प्रतिशत करीब समान था। कांग्रेस को 26.30 प्रतिशत और आम आदमी पार्टी को 26.02 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ। 

पंजाब की 13 सीटों में 6 सीटें हिंदू बहुल सीटें हैं, वहां भी कांग्रेस ने जीत हासिल की है। हालांकि भाजपा का वोट प्रतिशत इस बार 9.63 से बढ़कर 18.56 प्रतिशत हो गया है। पंजाबी हिंदुओं के एक बड़े हिस्से का वोट इस बार भी भाजपा को मिला। भाजपा के वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी का एक बड़ा कारण उसका इस बार सभी सीटों पर चुनाव लड़ना भी था। इसके पहले वह शिरोमणि अकाली दल से मिलकर चुनाव लड़ती थी।

पंजाब की जिन हिंदू बहुल 6 सीटों पर कांग्रेस जीती है, वहां सिखों, विशेषकर दलितों ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट दिया है। आम आदमी की 3 सीटों की तुलना में 7 सीटों पर कांग्रेस की जीत बताती है कि प्रदेश स्तर पर भले ही अपनी जनकल्याणकारी योजनाओं के चलते आम आदमी कांग्रेस से ज्यादा लोकप्रिय रही हो, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पंजाब के मतदाता भाजपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस को बेहतर मान रहे हैं। पंजाब में भाजपा का पूरी तरह सफाया इसके बावजूद हुआ है कि कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह और सुनील जाखड़ जैसे बड़े नेता कांग्रेस को छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे। इन दोनों नेताओं के साथ बड़ी संख्या में कांग्रेस के अन्य नेता भी भाजपा में गए थे। 

2019 में नरेंद्र मोदी की अंध-राष्ट्रवाद की  चरम लहर के दौर में भी पंजाब में भाजपा 13 में से सिर्फ दो सीट जीत पाई थी। 2014 में मोदी की लहर भी नानक के शिष्यों को कुछ खास प्रभावित नहीं कर पाई। 2014 में भाजपा को सिर्फ 2 सीटें ही मिली थीं। 2014 और 2019 दोनों लोकसभा चुनावों में भाजपा का शिरोमणि अकाली दल (SAD) से चुनावी गठबंधन था। शिरोमणि अकाली दल अपनी पार्टी के समर्थक पंजाबी सिखों का वोट भाजपा को ट्रांसफर करने में सफल रही थी।

सिर्फ लोकसभा ही नहीं, विधानसभा में भी पंजाबियों ने भाजपा को  पंजाब में पांव जमाने नहीं दिया। नरेंद्र मोदी की हर कोशिश को नाकाम कर दिया। नरेंद्र मोदी की उत्तर भारत में अपार लोकप्रियता को किनारे लगाते हुए पंजाबियों ने भाजपा को पंजाब से बाहर रखा। 2017 के विधान सभा चुनावों में उसे  कुल 117 सीटों में से सिर्फ 3 सीटें मिलीं। 2022 के विधान सभा चुनावों में वह 2 सीटों पर सिमट गई।

नरेंद्र मोदी की भाजपा पंजाबियों विशेषकर पंजाबी सिखों को अपने हिंदू राष्ट्र की परियोजना के साथ नहीं कर पाईं। क्योंकि सिख समुदाय मूलत: ब्राह्मणवादी दर्शन, विचारों, मूल्यों और आदर्शों को चुनौती देने वाला समुदाय रहा है। सिख समुदाय ब्राह्मणवादी वर्ण-जाति व्यवस्था और जातिवादी पितृसत्ता के दायरे से बाहर का समुदाय है। ब्राह्मण-गैर ब्राह्मण और द्विज-गैर-द्विज का बंटवारा नहीं है।

गुरुनानक ने आज से 550 वर्ष पूर्व जिस सिख पंथ की स्थापना की थी, समता उसका मुख्य तत्व है। मूर्ति-पूजा और वैदिक ब्राह्मणवादी कर्मकांडों के लिए इसमें कोई जगह नहीं है। यह पुरोहितवाद से भी दूर है यह एकेश्वरवाद में विश्वास करता है, विभिन्न देवी-देवताओं और अवतारों के लिए इसमें कोई जगह नहीं है। गुरू ग्रंथ साहिब में किसी भी वर्ण-जाति के पोषक संत-महात्मा की वाणी को कोई जगह नहीं दी गई है। उसकी जगह कबीर और रैदास जैसे  वर्ण-जाति व्यवस्था विरोधी और समता एवं श्रम की संस्कृति के पोषक संतों की वाणियों को इसमें जगह मिली है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पंजाबी सिखों को वर्ण-जाति की बीमारी ने छुआ नहीं, जब इस देश में इस्लाम और ईसाइयत जैसे धर्म-वर्ण-जाति के शिकार हुए, तो सिख धर्म कैसे बच पाता।

लेकिन हिंदू धर्म के दायरे के वर्ण-जातिवाद और सिखों के बीच जातीय भेदवाव की उपस्थिति में जमीन-आसमान का अंतर है। सिखों का कोई गुरु या मुख्य ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ किसी भी तरीके से जाति-पाति को मान्यता नहीं देता है। सच तो यह है कि सिख धर्म वैदिक-सनातनी हिंदू धर्म के लिए चुनौती देते हुए पैदा हुआ और समता एवं मानव सेवा इसका मुख्य नारा बना। सिखों के सामाजिक-सांस्कृतिक और धर्म का यह समतावादी और मानवतावादी स्वरूप किसान आंदोलन में काफी हद तक सामने आया था। जिस तरह की उदात्तता, सामूहिकता, बंधुता और सेवा भाव दिख रहा था, उसका एक बड़ा श्रेय सिख धर्म के मूल चरित्र को भी जाता है।

ऐतिहासिक तौर पर सिख कौम अपने स्वाभिमान एवं अन्याय के खिलाफ लड़ने वाली कौम रही है, वे शहीद होना तो जानते हैं, लेकिन झुकना नहीं जानते हैं। सिख गुरुओं की शहादत का एक लंबा इतिहास रहा है, वे अत्याचारी शासकों के खिलाफ अपने मान-सम्मान एवं स्वाभिमान की रक्षा के लिए संघर्ष करते रहे हैं। आधुनिक काल में ऐतिहासिक गदर आंदोलन की रीढ़ सिख रहे हैं। 1857 के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में सिख रहे हैं। करतार सिंह सराभा, भगत सिंह और ऊधम सिंह की तस्वीरें किसान आंदोलन के मुख्य पोस्टरों में शामिल रही हैं। आंदोलन में शामिल अधिकांश किसान खुद को सिख गुरुओं, गदर पार्टी के नेताओं और करतार सिंह सराभा एवं भगत सिंह के वारिस के रूप में देखते हैं। वे अपनी इस क्रांतिकारी विरासत के जज्बे से लैस हैं। मोदी और उनकी सरकार को पंजाबी अत्याचारी शासकों के एक कड़ी के रूप में देखते हैं और खुद को उनके खिलाफ संघर्षरत योद्धा की तरह देखते हैं। 

पंजाबी सिख समुदाय मेहनतकश किसानों का समुदाय है। हमारे देश में ठीक से भूमि सुधार न होने के चलते दो तरह के किसान हैं, एक वे जो जमीन के मालिक तो हैं, लेकिन वे खुद के खेतों में काम नहीं करते हैं, पहले वे दलितों के श्रम का इस्तेमाल करके खेती करते थे और जमीदारी उन्मूलन के बाद बंटाई पर खेती दे देते हैं या आधुनिक मशीनों एवं मजदूरों का इस्तेमाल करके खेती करते हैं। ऐसे ज्यादातर किसान पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के कई अन्य हिस्सों में पाए जाते हैं, ये मुख्यत: अपरकॉस्ट के लोग हैं, जो कागजों में तो किसान हैं, लेकिन ये किसी तरह से किसान की परिभाषा में नहीं आते हैं। न तो इनकी आय का मुख्य स्रोत खेती है और न ही ये अपने खेतों में अपने परिवार के साथ काम करते हैं। अपने चरित्र में ये मुख्यत: परजीवी हैं। 

किसानों का दूसरा समुदाय मध्य जातियों के किसानों का है, जिन्हें वर्ण व्यवस्था ने शूद्र ठहरा दिया, जिन्हें पिछड़ा वर्ग भी कहा जाता है। ऐतिहासिक किसान आंदोलन की रीढ़ पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों के यही किसान, मुख्यत: सिख-जाट किसान रहे हैं। इनकी आय और समृद्धि का मुख्य स्रोत इनकी खेती है और इन खेतों में अपने परिवार के साथ ये हाड़-तोड़ परिश्रम करते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि ये मजदूरों के श्रम का अपने खेतों में इस्तेमाल नहीं करते हैं और उनके साथ इनका कोई अन्तर्विरोध नहीं है, लेकिन ये मूलत: मेहनतकश किसान हैं। इन्हीं पंजाबी किसानों ने अपने श्रम के दम पर भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया। यही हरित क्रांति के वाहक थे और कऱीब 40 वर्षों तक अधिकांश भारत का पेट भरा। ये कार्पोरेट की लूट की प्रति नफरत का भाव रखते हैं। उन्हें अपना दुश्मन समझते हैं। नरेंद्र मोदी उन्हें हिंदुत्व के प्रतिनिधि के साथ कार्पोरेट प्रतिनिधि के रूप में दिखते हैं। जोकि वे हैं, भी।

पंजाब वामपंथ का मजबूत गढ़ रहा है। किसान आंदोलन की रीढ़ वामपंथी संगठन थे। यहां वामपंथ के सभी धड़े कमोबेश उपस्थित हैं। यहां के वामपंथियों का कुर्बानी और संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। आज भी पंजाब उन क्षेत्रों में से एक है, जहां वामपंथी आंदोलन सापेक्षिक तौर पर मजबूत हैं। यहां के मजबूत वामपंथी संगठनों में से अधिकांश खुद को चुनावी राजनीति से दूर रखते हैं। अपने आप को जनसंघर्षों तक सीमित रखते हैं। पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन के दौर में भी वामपंथी कार्यकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर कुर्बानी दी। खालिस्तानियों के गोलियों के शिकार बने। पाश उसकी एक बड़ी मिसाल हैं। 

पंजाबी सिखों ने जनपक्षधर कवियों, नाटककारों, कहानीकारों और गीतकारों की एक बड़ी जमात पैदा की है। जो खुद को अकादमिक जगत और साहित्यिक दुनिया तक सीमित नहीं रखते हैं। जनसंघर्षों में सीधे हिस्सेदारी करते हैं। खुद को मेहनतकश जनों के दुख-सुख के साथ जोड़ कर रखते हैं।

ब्राह्मणवाद विरोधी सिख धर्म, लंबी क्रांतिकारी विरासत, मेहनतकश उत्पादक किसान-मजदूर और जनसंघर्षों में हिस्सेदार वामपंथ ने मिलकर पंजाब को एक ऐसी जमीन बना देते हैं, जिस जमीन पर हिंदुत्व और कार्पोरेट के प्रतिनिधि नरेंद्र मोदी कभी भी मजबूती से पांव नहीं जमा पाए।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)

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